प्रमोद जोशी
गज़ा में एक साल की लड़ाई ने इस इलाके में गहरे राजनीतिक, मानवीय और सामाजिक घाव छोड़े हैं. इन घावों के अलावा भविष्य की विश्व-व्यवस्था के लिए कुछ बड़े सवाल और ध्रुवीकरण की संभावनाओं को जन्म दिया है. इस प्रक्रिया का समापन किसी बड़ी लड़ाई से भी हो सकता है.
यह लड़ाई इक्कीसवीं सदी के इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ साबित होगी. कहना मुश्किल है कि इस मोड़ की दिशा क्या होगी, पर इतना स्पष्ट है कि इसे रोक पाने में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय से लेकर संरा सुरक्षा परिषद तक नाकाम हुए हैं. लग रहा है कि यह लड़ाई अपने दूसरे वर्ष में भी बिना किसी समाधान के जारी रहेगी, जिससे इसकी पहली वर्षगाँठ काफी डरावनी लग रही है.
इस लड़ाई के कारण अमेरिका, ब्रिटेन और इसराइल की आंतरिक-राजनीति भी प्रभावित हो रही है, बल्कि दुनिया के दूसरे तमाम देशों की आंतरिक-राजनीति पर इसका असर पड़ रहा है.
ईरानी रणनीति
ईरान की रणनीति है कि इसराइल पर वैश्विक-दबाव बढ़े, पर ऐसे में उसके खिलाफ भी माहौल बन रहा है. खासतौर से ईरान के भीतर भी वैचारिक विमर्श चल रहा है, जो भले ही सामने नहीं आ रहा है, पर वह जब सामने आएगा, तब उसका पता लगेगा. वहाँ इस साल राष्ट्रपति पेज़ेश्कियान की जीत बता रही है कि ईरान के लोग बदलाव चाहते हैं.
दूसरी तरफ खाड़ी देशों, व्यापक पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका में भले ही ईरानी प्रशासन के पक्ष में ज्यादा समर्थन नहीं है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि ये देश ईरान के खिलाफ लड़ाई में शामिल होंगे. मुस्लिम देशों की जनता की हमदर्दी फलस्तीनियों के साथ है. भारत समेत आसपास के देशों में भी इन घटनाओं का असर है. यदि लड़ाई भड़की, तो पश्चिम एशिया में भारतीय कामगारों और पेट्रोलियम की आपूर्ति जैसे सवाल खड़े होंगे.
दायरा बढ़ा
गज़ा से शुरू हुई लड़ाई अब लेबनान तक पहुँच गई है और इसका दायरा सीरिया, इराक, ईरान और यमन तक पहुँच रहा है. इसे 7 अक्टूबर, 2023 से शुरू हुई लड़ाई मानें, तो एक बात है, अन्यथा यह कम से कम 1948 या उसके पहले से चल रही है.
पिछले साल 7 अक्तूबर को हमास ने अचानक गज़ा की सीमा पर लगे अवरोधों को तोड़कर किए गए हमले में करीब 1,200 लोगों की हत्या कर दी और 251 लोगों को बंधक बना लिया. इनमें से एक साल बाद भी 97 लोग बंधक बने हुए हैं. माना जाता है कि एक तिहाई लोग पहले ही मर चुके हैं.
अमेरिका, कतर और मिस्र ने नवंबर 2023 में कुछ समय के लिए युद्ध विराम कराने और कुछ बंधकों को मुक्त करने में शुरुआती सफलता हासिल की थी. पर उसके बाद शुरू हुई लड़ाई अभी जारी है, बल्कि व्यापक क्षेत्रीय संघर्ष का अंदेशा बढ़ता जा रहा है.
अचानक हुए हमले से एकबारगी इसराइल हिल गया. एक लंबे अरसे बाद उसने अपने प्रतिस्पर्धियों के खिलाफ सबसे बड़ी कार्रवाई शुरू की और यह कहा कि हमारा लक्ष्य हमास को पूरी तरह तबाह करना है. उसने शुरू में हवाई हमले किए और फिर जमीनी आक्रमण, जो आज भी जारी हैं.
41,000 मौतें
हमास के स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, युद्ध शुरू होने के बाद से, लगभग 41,000 फलस्तीनी मारे गए हैं। गज़ा में मानवीय-संकट भयावह स्तर पर है. लोगों को बड़े पैमाने पर खाद्यान्न की कमी, बीमारियों और करीब 19 लाख लोगों को विस्थापन का सामना करना पड़ रहा है.
इन हमलों से हमास का संगठनात्मक-तंत्र नष्ट ज़रूर हुआ है, पर फलस्तीनियों के मन में इसराइल को लेकर नाराज़गी बढ़ी है. दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट हो रहा है कि अरब देश इस लड़ाई से उकता गए हैं और वे इससे दूर होना चाहते हैं.
गज़ा के बाद लेबनान में इसराइल का नवीनतम आक्रमण 16 सितंबर को हिज़बुल्ला के खिलाफ पेजर-बमों के विस्फोटों के साथ शुरू हुआ. अगले दिन, वॉकी-टॉकी फटे. इसके बाद बाकायदा सैनिक अभियान शुरू हो गया. इसराइल के हवाई अभियान की तीव्रता और कमांडरों की हत्याओं के बावजूद, इस हमले के आगे झुकना और युद्ध-विराम की अपील करना हिज़्बुल्ला के डीएनए में नहीं है. इसलिए लड़ाई के बढ़ने का ही अंदेशा ज्यादा है.
ईरानी-प्रशासन
इस महीने के शुरू में ईरान ने करीब दो सौ बैलिस्टिक मिसाइलें इसराइल पर दागीं, जिसके बाद से इसराइल और ईरान के बीच सीधी लड़ाई का खतरा बढ़ गया है. हालांकि इसराइल ने अभी तक जवाबी कार्रवाई नहीं की है, पर माना जा रहा है कि जवाब आएगा.
इसके पहले अप्रैल में भी ईरान ने 300 से अधिक मिसाइलों और ड्रोनों की बौछार इसराइल पर की थी. उधर यमन के हूती विद्रोही इसराइल पर मिसाइलें दागते रहे हैं. वे लाल सागर और बाब अल-मंदेब जलडमरूमध्य में पश्चिमी देशों के व्यापारिक पोतों पर लगातार हमले कर रहे हैं.
यह सब एक व्यापक युद्ध की प्रस्तावना जैसा लगता है, जिसकी संभावना पहले गज़ा के चीफ इस्माइल हानिये और फिर हिज़्बुल्ला के महासचिव हसन नसरल्लाह की हत्या फिर इसराइली सुरक्षा बलों (आईडीएफ़) के दक्षिणी लेबनान पर जमीनी हमलों के बाद बहुत बढ़ गई है.
इन बातों के अलावा एक बड़ा सवाल है कि ईरान और अमेरिका-इसराइल के बढ़ते टकराव के दौर में क्या सऊदी-इसराइल के रिश्ते बेहतर होंगे? अब्राहम समझौते का भविष्य क्या है वगैरह? दूसरी तरफ सवाल यह भी है कि इसराइल के खिलाफ 'प्रतिरोध की धुरी' का भविष्य क्या है?
ईरानी-नेतृत्व
ऐसा नज़र आ रहा है कि इसराइल के खिलाफ लड़ाई अब ईरान के नेतृत्व में ही चलेगी. उसके साथ हमास, हिज़्बुल्ला, हूती और हशद अल-शबी जैसे संगठन हैं, जिन्हें ईरान का प्रॉक्सी माना जाता है. इनके अलावा कुछ छोटे संगठन भी हैं.
ईरान इस वक्त इसराइल के खिलाफ है, जबकि 1979 की क्रांति से पहले वह इसराइल के साथ हुआ करता था. तब वहाँ अमेरिका-परस्त शाह रज़ा पहलवी का शासन हुआ करता था. 1979 की ईरानी क्रांति ने हजारों साल पुरानी राजशाही को खत्म किया था, जिसके बाद यहाँ एक लोकतांत्रिक गणराज्य का जन्म हुआ.
ईरान के अंतिम बादशाह शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी अमेरिका और इसराइल के करीबी सहयोगी थे. तख्त पर उनकी वापसी भी अमेरिका और ब्रिटेन की मदद से हुई थी, जिन्होंने 1953 में ईरान के लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए प्रधानमंत्री मुहम्मद मुसद्देक़ का तख्ता-पलट कराया था.
पर इस क्रिया की प्रतिक्रिया होनी थी. जनता के मन में विरोध ने जन्म ले लिया था. परिणाम यह हुआ कि ईरान में इस्लामिक-क्रांति ने जन्म लिया, जिसके कारण 1979 में आयतुल्ला खुमैनी की वापसी हुई. शाह के खिलाफ उस क्रांति में वामपंथियों का एक तबका भी उनके साथ था, पर आयतुल्ला खुमैनी के शासन ने उनका क्रूर दमन कर दिया.
ईरानी समाज
पश्चिम एशिया के शेष मुस्लिम देशों की तुलना में ईरानी-समाज में लोकतांत्रिक-भावना ज्यादा गहरी है और आज वहाँ वर्तमान व्यवस्था के विरोधी भी सक्रिय हैं. अमेरिका में इस वक्त एक सामरिक-धारणा है कि ईरान में किसी तरह से आयतुल्ला खामनेई का तख्ता-पलट करके दूसरी व्यवस्था लाई जाए, पर यह काम आसान नहीं है, क्योंकि अमेरिका में अब शेष विश्व से हाथ खींचने की प्रवृत्ति बढ़ रही है.
ईरान के इस्लामिक-प्रशासन को अरब देश, इसराइल और अमेरिका, दुश्मन मानते हैं. 1979 में ईरानी-क्रांति के एक साल के भीतर, पड़ोसी देश इराक ने अरब राजशाही और अमेरिका के समर्थन से ईरान पर हमला किया।
उस दौर में ईरान ने प्रतिरोध का नया मॉडल अपनाया.
यह है इस इलाके में सशस्त्र संगठनों का नेटवर्क बनाना, जो इस वक्त दिखाई पड़ रहा है. मूलतः हमास इस नेटवर्क का हिस्सा नहीं था, पर उसका आक्रामक रुख उसे ईरान के करीब ले गया. पिछले साल हमास ने जब 7 अक्तूबर को इसराइल पर हमला किया, तब इसराइल ने जवाबी कार्रवाई की. उस मौके पर हिज़्बुल्ला और हूतियों ने इसराइल पर हमले बोले. इराक में स्थित हशद ने इराक, सीरिया और जॉर्डन में अमेरिकी ठिकानों को निशाना बनाया.
अमेरिका की भूमिका
इसे इसराइल की लड़ाई के बजाय अमेरिका और ईरान की लड़ाई मानना चाहिए. यह इस इलाके में अमेरिकी वर्चस्व की लड़ाई भी है, जिसमें अरब देश अब अमेरिका के करीब आते दिखाई पड़ रहे हैं. इस दौरान इस इलाके में चीन और रूस ने प्रवेश का प्रयास भी किया है. चीन ने फलस्तीनी-समूहों के बीच असहमतियों को दूर करने का प्रयास भी किया है, पर आज भी चीन की सामर्थ्य इतनी नहीं है कि इस इलाके में वह निर्णायक भूमिका निभा सके.
इस इलाके के घटनाक्रम पर नज़र रखने के साथ अमेरिका और इसराइल की आंतरिक-राजनीति पर भी नज़र रखनी होगी. पिछले साल यह लड़ाई तब शुरू हुई थी, जब अमेरिका की छत्र-छाया में अरब देशों और इसराइल के बीच कोई समझौता होने वाला था.
उस वक्त इसराइल की आंतरिक राजनीति में भी आलोड़न-विलोड़न चल रहा था. बिन्यामिन नेतन्याहू का नेतृत्व संकट में था. इस लड़ाई की वजह से इसराइली राजनीति में वहाँ के दक्षिणपंथी फिलहाल हावी हो गए हैं. यरूशलम स्थित थिंक टैंक इसराइल डेमोक्रेसी इंस्टीट्यूट द्वारा सितम्बर में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, 61 प्रतिशत दक्षिणपंथी यहूदी इसराइली, जो नेतन्याहू-समर्थक हैं, युद्ध जारी रखने का समर्थन करते हैं.
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की गतिविधियाँ चल रही हैं. जनवरी 2025 में जब अगला अमेरिकी प्रशासन सत्ता में आएगा, तब इसराइल के सामने मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं, क्योंकि अमेरिकी जनमत लड़ाई को खत्म कराने के पक्ष में है. राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों ने इसराइल से गज़ा अभियान को बंद करने का आह्वान किया है.
भावनात्मक असर
एक तरफ 41 हजार से ज्यादा फलस्तीनियों की मौत ने पूरे इलाके में भयावह बेचैनी पैदा कर दी है, वहीं इसराइली समाज भी जबर्दस्त भावनात्मक चिंता का शिकार है. हमास द्वारा बंधक बनाए जाने की घटना का भावनात्मक प्रभाव न केवल इसराइली बंधकों पर बल्कि उनके परिवारों पर पड़ रहा है.
केवल गज़ा पट्टी में ही नहीं, बल्कि जॉर्डन नदी के पश्चिमी किनारे में भी जीवन-नर्क बन गया है. साबुन जैसी बुनियादी ज़रूरतें भी दुर्लभ हैं, बाज़ार में जो चीजें उपलब्ध है, उनकी कीमत बहुत ज़्यादा है. हेपेटाइटिस ए से लेकर मैंनिनजाइटिस और दूसरी संक्रामक बीमारियों के फैलने से उन बच्चों की जान जोखिम में है, जिनका शरीर संक्रमण से लड़ने के लिए बहुत कमज़ोर और कुपोषित है.
इस लड़ाई के जारी रहने से, गज़ा में किसी भी महत्वपूर्ण पुनर्निर्माण या पुनर्वास के कार्यक्रम को चलाना संभव नहीं होगा. लोगों के लिए उत्तरी इसराइल और दक्षिणी लेबनान में अपने घरों में वापस लौटना मुश्किल होगा.
एक बात ज़ाहिर है कि सैन्य शक्ति से कुछ नहीं होने वाला. इतिहास ऐसे सबक सिखाता है जिन्हें युद्ध के बाद के योजनाकारों को ध्यान में रखना होता है.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया ने कुछ सबक सीखे थे, पर इक्कीसवीं सदी आते-आते उन्हें भुला दिया. पता नहीं कि इस लड़ाई से दुनिया कुछ सीख पा रही है या नहीं.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)
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