भारत-उदय-07 : जरूरी है सुरक्षा-परिषद की स्थायी-सदस्यता

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 07-09-2023
It is necessary to have permanent membership of the Security Council
It is necessary to have permanent membership of the Security Council

 

joshiप्रमोद जोशी

हाल में जोहानेसबर्ग में हुए ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन के बाज जारी संयुक्त घोषणापत्र में दूसरी बातों के अलावा यह भी कहा गया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की ज़रूरत है. हम मानते हैं कि सुरक्षा परिषद को ज्यादा लोकतांत्रिक, और दक्ष बनाने के लिए इसमें सुधार करना और विकासशील देशों को इसका सदस्य बनाना जरूरी है.

घोषणापत्र में यह भी कहा गया है कि यह काम एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों की वाजिब आकांक्षाओं को पूरा करने और वैश्विक-मसलों में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने में मदद कर पाएगा, जिनमें  ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं. 

चूंकि चीन भी ब्रिक्स का संस्थापक सदस्य है, इसलिए इससे एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चीन ने सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन कर दिया है. ऐसा लगता है कि ब्रिक्स के विस्तार के लिए चीन ने भारत का समर्थन हासिल करने के लिए घोषणापत्र में इसे शामिल करने पर सहमति दी होगी.

बहरहाल इतने मात्र से चीनी समर्थन तब तक नहीं मान लेना चाहिए, जब तक इस आशय की घोषणा उसकी ओर से नहीं हो जाए. पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों को देखते हुए अभी कई प्रकार के किंतु-परंतु बीच में हैं.

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सुरक्षा परिषद के स्थायी-सदस्य वे देश हैं, जो दूसरे विश्व-युद्ध में मित्र देश थे और जिन्होंने मिलकर लड़ाई लड़ी. ये देश हैं अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन. 1945में मूल रूप से तय हुआ था कि सुरक्षा-परिषद के 11 सदस्य होंगे. पाँच स्थायी और छह अस्थायी.

1963में संरा महासभा ने चार्टर में बदलाव की सिफारिश की. यह बदलाव 31अगस्त, 1965 से लागू हुआ और सदस्यता 11से बढ़कर 15हो गई. अस्थायी सदस्यों में पाँच अफ्रीका और एशिया से, एक पूर्वी यूरोप से, दो लैटिन अमेरिका से और दो पश्चिमी यूरोप या अन्य क्षेत्रों से.

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वैश्विक-सहमति

लंबे अरसे से भारत सुरक्षा परिषद की स्थायी-सदस्यता का दावा पेश करता रहा है. उसे पाँच में से चार स्थायी सदस्यों का समर्थन भी हासिल है, केवल चीन की ना-नुकुर है. पाँचों के समर्थन से भी सदस्यता मिल नहीं जाएगा. उसके लिए व्यापक स्तर पर वैश्विक-सहमति की जरूरत होगी.

संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 108के अनुसार सुरक्षा परिषद की संरचना में बदलाव के लिए महासभा के दो तिहाई सदस्यों और सुरक्षा परिषद के सभी स्थायी सदस्यों के मत से फैसला करना होगा. इसके साथ ही जिन सदस्य देशों ने महासभा में प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया होगा, उन देशों की संसदों से भी इस प्रस्ताव की पुष्टि करानी होगी.

चूंकि इन देशों की संसदों की भूमिका भी होगी, इसलिए भारत ने इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन (आईपीयू) जैसे प्लेटफॉर्मों के साथ भी संवाद किया है. ज़ाहिर है कि इस विषय पर काफी व्यापक स्तर पर विमर्श की जरूरत है.

अमेरिकी-पेशकश

2019 में भारत में इस बात की काफी चर्चा थी कि पचास के दशक में अमेरिका की ओर से एक अनौपचारिक प्रस्ताव आया था कि भारत को चीन के स्थान पर संरा सुरक्षा परिषद की स्थायी कुर्सी दी जा सकती है. नेहरू जी ने उस प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि चीन की कीमत पर हम सदस्य बनना नहीं चाहेंगे.

वस्तुतः सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों में चीन भी शामिल था. पर वह चीन साम्यवादी चीन नहीं था. 1949में चीन की मुख्यभूमि में कम्युनिस्टों का कब्जा हो गया. उधर संरा में चीन का प्रतिनिधित्व च्यांग काई-शेक की ताइपेह स्थित कुओमिंतांग सरकार कर रही थी.

नेहरू जी के नेतृत्व में भारत सरकार ने कम्युनिस्ट चीन को मान्यता भी दी और उसे ही सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का समर्थन भी किया. उसी दौरान अमेरिका में ऐसी बातें चलीं कि क्या चीन की सीट भारत को दी जा सकती है, पर यह सब अनौपचारिक ही था.

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बदलाव की जरूरत

संयुक्त राष्ट्र का जन्म दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुआ था और वह आज भी 1945की पृष्ठभूमि में काम करता है, जबकि दुनिया में जमीन-आसमान का बदलाव हो चुका है. सबसे पहले उसके चार्टर में संशोधन की जरूरत है. 1945 में चार्टर जारी करते समय उसके अनुच्छेद 109में कहा गया था कि इस चार्टर की एक दशक के भीतर समीक्षा होनी चाहिए. ऐसा नहीं हो पाया.

इसमें रूस का नाम आज भी ‘यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक’ और चीन का नाम ‘रिपब्लिक ऑफ चायना’ है. जापान, इटली और जर्मनी को शत्रु-देश बताया गया है, जबकि तीनों इस समय जी-7के सदस्य हैं. वहीं चीन और रूस जैसे दूसरे विश्वयुद्ध के मित्र-पक्ष के देश ‘शत्रु-पक्ष’ जैसे साबित किए जा रहे हैं और दोनों जी-7के सदस्य नहीं हैं.

सुरक्षा-परिषद में अफ्रीका और लैटिन अमेरिका का प्रतिनिधित्व नहीं है, जबकि यूरोप को असाधारण-प्रतिनिधित्व मिला हुआ है. यह स्थिति वैश्विक-भू-राजनीतिक यथार्थ से बहुत दूर है. पाँच स्थायी सदस्यों को मिली वीटो-पावर को लेकर भी बड़े स्तर पर शिकायतें हैं.

भारत की प्राथमिकता

इस साल 6 अप्रेल को विदेश राज्यमंत्री वी मुरलीधरन ने एक सवाल के जवाब में बताया कि संयुक्त राष्ट्र की विस्तारित सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता हासिल करने के काम को भारत सरकार सर्वोच्च प्राथमिकता देती है. इस उद्देश्य से भारत सुधार के इच्छुक ग्रुप-4और एल.69 समूह के देशों के साथ निरंतर संपर्क में रहता है.

इस साल के पहले दिन वियना में भारतवंशियों की एक बैठक में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा कि सुरक्षा परिषद की 77 साल पुरानी संरचना में बदलाव की जरूरत है. दुनिया के बड़े हिस्से को लगता है कि संरा की व्यवस्था में उनकी आवाज़ सुनी नहीं जाती है. बदलाव एक दिन में नहीं हो जाएगा, पर यकीन मानिए एक दिन बदलाव होगा.

हाल में रूस ने यूक्रेन के मसले पर वीटो-पावर का सहारा लिया और अमेरिका ने इजरायल-फलस्तीन मसलों पर. भारत की शिकायत पर आतंकवाद के मुद्दे को लेकर पाकिस्तानी नागरिकों के खिलाफ कार्रवाई को चीन ने वीटो-पावर के सहारे रोक दिया.

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भारत के दावे

सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट को लेकर भारत के दावे के समर्थन में अनेक तर्क हैं. संरा के संस्थापक देशों में भारत का नाम भी है. दुनिया के किसी भी इलाके में शांति स्थापित करने के लिए जब संरा की शांति सेना को भेजना होता है, तब भारत को याद किया जाता है.

शांति-सेना में भारत का योगदान सबसे बड़ा है और अबतक ढाई लाख से ज्यादा भारतीय सैनिक शांति-सेना में काम कर चुके हैं. 1948के बाद से 2022के शुरु होने तक 49देशों में भेजे गए 71 शांति-मिशनों में भारतीय सैनिक शामिल हो चुके हैं. 

सबसे बड़ा बात है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और दुनिया की कुल आबादी का छठा हिस्सा भारत में निवास करता है. 1.4 अरब लोगों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए. शीत-युद्ध के दौरान भारत ने असंलग्नता की नीति को अपनाया और नाभिकीय शक्ति होने के बावजूद ‘नो फर्स्ट यूज़’ नीति को अपनाया है.

यह उसके जिम्मेदार देश होने का प्रतीक है. आज वह दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था है, जो वैश्विक-अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा सहारा बनेगी.

विस्तार का सुझाव

1997 में संरा के तत्कालीन महासचिव इस्माइल रज़ाली ने सुरक्षा परिषद के विस्तार का सुझाव दिया. उनका सुझाव था कि सुरक्षा परिषद के सदस्यों की संख्या 15 (5स्थायी और 10अस्थायी) से बढ़ाकर 24 (5 और स्थायी और 4 और अस्थायी) कर दी जाए.

उनकी इस योजना में 5नए स्थायी सदस्यों के पास वीटो का अधिकार नहीं होता. भारत का सुझाव था कि यदि हमारी स्थायी सदस्यता को स्वीकार कर लिया जाता है, तो हम कुछ शुरुआती वर्षों (मसलन 10 वर्ष) में बगैर वीटो-पावर शामिल होने को भी तैयार हैं.

हालांकि इस प्रस्ताव का भारत समेत ग्लोबल साउथ के देशों ने समर्थन किया, पर कुछ आलोचनाएं भी सामने आईं. बहरहाल इस विचार ने जड़ें जमाईं और 2005में जब कोफी अन्नान महासचिव थे, सुरक्षा परिषद सुधार के लिए एक टास्क-फोर्स का गठन हुआ. वह योजना भी ज्यादा दूर तक गई नहीं.

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विमर्श-प्रक्रिया

इस दौरान सुरक्षा परिषद में सुधार को लेकर कई अनौपचारिक समूह बन चुके हैं. इनमें भारत, जापान, जर्मनी और ब्राज़ील का जी-4 और 42 देशों का समूह एल,69 भी हैं. 2016 में भारत एक और समूह में शामिल हुआ, जिसे फ्रेंड्स ऑन सिक्योरिटी कौंसिल रिफॉर्म्स कहा जाता है.

बहरहाल 14 सितंबर, 2015 को 69 वीं संरा महासभा ने एक प्रस्ताव पास करके सुरक्षा परिषद में सुधार के लिए इंटर-गवर्नमेंटल नेगोशिएशंस (आईजीएन) प्रक्रिया का मसौदा जारी किया. आईजीएन प्रक्रिया 2008 से चल रही है. यह काफी धीमी है. इस विमर्श में शामिल 122 में से 113 देशों ने संरा और सुरक्षा परिषद में सुधारों का समर्थन किया है.

विस्तार का विरोध

इन सबसे पहले 1995 में 12 देशों का एक समूह बन गया था, जिसने सुरक्षा परिषद के विस्तार का ही विरोध किया है. इस समूह में इटली, स्पेन, माल्टा, सैन मैरीनो, पाकिस्तान, दक्षिण कोरिया, कनाडा, मैक्सिको, अर्जेंटीना, कोलंबिया, कोस्टा रिका और तुर्की शामिल हैं.

भारत का विरोध करने वालों में पाकिस्तान बहुत मुखर है. कुछ देश मानते हैं कि भारत की आर्थिक-शक्ति अब भी सीमित है. उसका मानवाधिकार रिकॉर्ड अच्छा नहीं है. संरा में भारत से ज्यादा आर्थिक योगदान जर्मनी का है और भारत ने आणविक अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं किए हैं वगैरह. 

ब्रिक्स ने सुरक्षा परिषद के सुधार और भारत का नाम लिया जरूर है, पर चीन भी भारत की सदस्यता का मुखर विरोध करता रहा है. अगस्त, 2019में जब भारत ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया, तब चीन ने उस मसले को सुरक्षा परिषद में उठाने में पूरी ताकत लगा दी थी. उस समय भारत को अपने मित्र देशों का समर्थन मिला और चीन को मुँह की खानी पड़ी.

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )

अगले अंक में पढ़ें इस श्रृंखला का आठवाँ और अंतिम लेख:जी-20से आगे वैश्विक-मंच पर भारत की संभावनाएं


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