प्रमोद जोशी
जी-20की बैठक के दौरान भारत-पश्चिम एशिया-यूरोप आर्थिक कॉरिडोर की घोषणा तो हो गई, पर विशेषज्ञों के मन में इसकी सफलता को लेकर कुछ संदेह हैं. सबसे बड़ा संदेह फलस्तीन की समस्या को लेकर है. जब तक इस समस्या का समाधान नहीं होगा, इस कॉरिडोर की सफलता में संदेह बने रहेंगे.
प्रस्तावित कॉरिडोर का एक सिरा इसरायल के हाइफ़ा तक जाएगा, जहाँ से वह यूरोप का रास्ता पकड़ेगा. जब तक इसराइल और अरब देशों, खासतौर से सऊदी अरब की सहमति नहीं होगी, तबतक हाइफ़ा को कॉरिडोर में शामिल करने की कल्पना नहीं की जा सकती है.
फलस्तीनियों से संवाद
खबरें इस आशय की भी हैं कि अमेरिकी मध्यस्थता में सऊदी अरब और इसराइल के बीच संबंध सामान्य करने को लेकर संभावित ऐतिहासिक समझौते में फ़लस्तीनियों ने अरबों डॉलर और जॉर्डन नदी के पश्चिमी किनारे में इसराइल के पूर्ण कब्ज़े वाली ज़मीन पर नियंत्रण की मांग रखी है.
इस आशय की एक खबर आई थी कि बुधवार 4सितंबर को रियाद में फ़लस्तीन अथॉरिटी और सऊदी अरब के अधिकारियों के बीच वार्ता हुई. और यह भी कि जल्द ही अमेरिकी अधिकारियों से उनकी मुलाकात होने वाली है.
फ़लस्तीनी टीम में राष्ट्रपति महमूद अब्बास के दो करीबी लोग, फ़लस्तीन अथॉरिटी के इंटेलिजेंस चीफ़ माजेद फ़राज और फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के सेक्रेटरी जनरल हुसैन अल शेख़ शामिल थे. यह प्रतिनिधि मंडल फ़लस्तीन अथॉरिटी से आया था, जिसका पश्चिमी किनारे पर प्रभुत्व है. गज़ा पट्टी पर हमस का नियंत्रण है. उसके साथ किस प्रकार संपर्क किस प्रकार किया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है.
इसरायली प्रतिनिधि
बहरहाल फलस्तीनी प्रतिनिधियों की यात्रा के एक हफ्ते बाद 11सितंबर को इसराइल का एक प्रतिनिधिमंडल रियाद आया. उसकी यह यात्रा युनेस्को की एक बैठक के सिलसिले में थी, पर इसराइल के किसी भी प्रतिनिधि मंडल की यह पहली बार घोषित सऊदी अरब यात्रा थी. इससे अनुमान लगाया गया कि दोनों देशों के बीच रिश्तों को सामान्य बनाने की कोशिशें चल रही हैं.
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने पिछले महीने दावा किया था, हम जल्द ही एक ऐतिहासिक बदलाव के गवाह बनेंगे. लंबे समय से अमेरिका भी सऊदी अरब और इसराइल के बीच संबंधों को सामान्य करने पर जोर दे रहा है.बताया जाता है कि अमेरिका इसकी मध्यस्थता करेगा. इस समझौते के साथ ही एक बड़ा सुरक्षा समझौता भी होगा, जो सऊदी अरब अमेरिका के साथ करना चाहता है. गो कि इस तरह के समझौतों में काफ़ी अड़ंगे हैं और उनपर अमल भी आसान नहीं है.
राजनयिक-गतिविधियाँ
पश्चिम एशिया में स्थितियाँ लगातार बदल रही हैं. खासतौर से इस साल मार्च में हुई चीनी मध्यस्थता के बाद सऊदी अरब और ईरान के बीच राजनयिक-रिश्तों की बहाली से स्थितियों में काफी अंतर आ गया है. हाल के महीनों में रियाद, अम्मान और यरूशलम में अमेरिकी अधिकारियों के दौरों ने अमेरिकी राजनय को भी इस इलाके में को फिर से सक्रिय किया है.
माना जा रहा है कि अगले साल होने वाले आम चुनावों से पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन सऊदी-इसराइल समझौते को अपनी विदेश नीति की सफलता के रूप में प्रचारित करें. बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि समझौता हो पाता है या नहीं.
1948में जब से इसराइल का गठन किया गया है, सऊदी अरब ने उसे कभी मान्यता नहीं दी. अब अमेरिका इस मान्यता की संभावना को देखते हुए ही कॉरिडोर की संभावना देख पा रहा है. 2020में जब यूएई ने इसरायल से संबंध बनाए थे, तब भी सऊदी अरब ने स्पष्ट किया था कि फलस्तीन-समस्या का समाधान किए बगैर इसराइल से रिश्ते बनाना संभव नहीं है.
अब्राहमी समझौता
इस क्षेत्र में यदि इसराइल और सऊदी अरब के बीच समझौता हुआ, तो इसराइल को व्यापार और रक्षा सहयोग के अलावा इस इलाके के ऐतिहासिक एकीकरण का लाभ मिलेगा. 2020में अरब देशों के साथ अब्राहमिक समझौता होने के बाद से वह इसका बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है.
उस साल तीन अरब देशों-यूएई, बहरीन और मोरक्को ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मध्यस्थता में इसराइल के साथ संबंध सामान्य करने का समझौता किया था. चौथे देश सूडान ने भी इसराइल के साथ राजनयिक संबंध बहाल करने की दिशा में कदम उठाने की बात कही थी, लेकिन उसी साल फौजी तख़्तापलट होने और देश में भारी विरोध के कारण सूडान मान्यता दे नहीं पाया.
उम्मीदें और अंदेशे
सउदी युवराज मोहम्मद बिन सलमान को अपनी जनता का भी ख्याल रखना होगा, जो इसराइल की घोर-विरोधी और फ़लस्तीनियों से गहरी सहानुभूति रखती है. सवाल यह भी है कि क्या ऐसा कोई समझौता हो सकता है, जिससे फलस्तीनी संतुष्ट हो जाएं?
राष्ट्रपति बाइडेन को अपने देश की जनता को जवाब देना होगा. वे यह साबित करना चाहेंगे कि उनकी वजह से फ़लस्तीनियों को काफी कुछ हासिल हो गया है. सवाल यह भी है कि बिन्यामिन नेतन्याहू क्या अपने देश के कट्टरपंथियों को संतुष्ट कर पाएंगे?
अम्मान में अमेरिकी उप विदेश मंत्री बारबरा लीफ़ के साथ एक बैठक में फलस्तीनियों की माँगों पर भी बातचीत हुई है. उन्होंने उसके बाद इसराइली अधिकारियों से भी बातें की हैं.
फलस्तीनियों की माँगें
फ़लस्तीनियों ने इसराइल के पूर्ण कब्ज़े वाले पश्चिमी तट का हिस्सा वापस करने की माँग की है, जिसे नब्बे के दशक में हुए ओस्लो शांति समझौते के तहत एरिया ‘सी’ यानी इसराइली क्षेत्र माना जाता है. इसके अलावा मोटे तौर पर उनकी निम्न लिखित मांगें हैं- इसराइली बस्तियों के विस्तार पर ‘पूरी तरह से पाबंदी’ लगाई जाए. फ़लस्तीनी अथॉरिटी को सऊदी आर्थिक सहायता बहाल हो, जिसमें 2016से कमी होनी शुरू हुई और तीन साल पहले पूरी तरह बंद हो गई. यह धनराशि प्रति वर्ष 20करोड़ डॉलर के करीब है.
यरूशलम में अमेरिकी कौंसुलेट (वाणिज्य दूतावास) को फिर से खोलना, जिसे तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बंद कर दिया था. अमेरिकी मध्यस्थता में इसराइल और फ़लस्तीन के बीच वार्ता को फिर से बहाल किया जाए, जो 2014में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी के समय बंद हो गई थी.
टू स्टेट सॉल्यूशन
ओस्लो समझौते के तहत इस समस्या के समाधान के लिए ‘टू स्टेट सॉल्यूशन’ का प्रस्ताव था. 1993में इसराइल सरकार और फलस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) के बीच हुई वार्ता के बाद फलस्तीनियों और यहूदियों के लिए दो अलग-अलग देश बनाने पर सहमति हुई थी. उसी सिलसिले में फलस्तीनियों के आत्म-निर्णय के लिए फलस्तीनी अथॉरिटी की स्थापना की गई थी.
समय के साथ फलस्तीनियों की माँगें काफी नरम होती गई हैं. पहले कहा जाता था कि अगर फ़लस्तीन को आज़ाद राष्ट्र नहीं माना गया. तो वे इस तरह के समझौतों को पूरी तरह ख़ारिज कर देंगे.
सऊदी अरब के नेतृत्व में 2020में हुई पहल में इसराइल को मान्यता देने के बदले इसराइल से अपने काबिज़ इलाक़ों से पीछे हटने और पश्चिमी तट और गज़ा में फ़लस्तीनी राष्ट्र और पूर्वी यरूशलम में राजधानी बनाने की माँग की गई.
इसराइल और यूएई के बीच राजनयिक संबंधों के कायम होने के बाद हुए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि फ़लस्तीनियों ने उस समझौते को फ़लस्तीनी-संघर्ष से धोखा माना था. दूसरी तरफ़ बिन्यामिन नेतन्याहू के गठबंधन में शामिल चरमपंथी फ़लस्तीनियों को दी गई किसी भी रियायत को स्वीकार नहीं करेंगे.
सदियों पुरानी समस्या
फलस्तीन-इसराइल टकराव करीब सदियों पुरानी समस्या है. ईसाई, मुसलमान और यहूदी तीनों धर्मों के लिए यह पवित्र-क्षेत्र है. सैकड़ों साल पहले इस इलाके से हटकर यहूदी दुनिया के दूसरे देशों में चले गए थे, और उन्हें कई तरह की दुश्वारियों का सामना करना पड़ रहा था.
1896 में ऑस्ट्रिया के पत्रकार थियोडोर हर्ज़ल ने ‘द ज़ियोनिस्ट स्टेट’ शीर्षक के से एक लंबा आलेख लिखा, जिसमें उन्होंने यहूदियों के पुराने देश को फिर से कायम करने का आह्वान किया गया था. उसके बाद यहूदी इस इलाके में आने भी लगे. खासतौर से जब दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ी जर्मनी में यहूदियों पर जबर्दस्त अत्याचार हुए, तो यह आप्रवास बहुत तेजी से बढ़ा.
संरा की योजना
पहले विश्वयुद्ध में उस्मानिया साम्राज्य के टूट जाने के बाद यह इलाका 1920से 1948तक ब्रिटिश मैंडेट में रहा. उसी दौरान इसराइल का पुनर्जन्म हुआ. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1947में इसराइल और फलस्तीन के गठन की एक योजना को स्वीकार किया. इसे अरब देशों ने स्वीकार नहीं किया, पर इसराइल ने 14मई, 1948को ‘यहूदी राज्य’ की घोषणा कर दी. घोषणा होते ही लड़ाई छिड़ गई. संघर्ष विराम होने तक इसराइल का काफी इलाके पर नियंत्रण हो चुका था.
इसके बाद से इस इलाके में कई तरह का लड़ाइयाँ हुई हैं. सबसे बड़ा बदलाव 1967के युद्ध से आया, जब इसराइली सेना ने पूर्वी यरूशलम, पश्चिमी किनारे और गज़ा पट्टी पर कब्ज़ा कर लिया. इतना ही नहीं, सीरिया के गोलान हाइट्स, गज़ा और मिस्र के सिनाई प्रायद्वीप के अधिकतर हिस्सों पर भी उसने क़ब्ज़ा जमा लिया.
इसराइल दावा करता है कि पूरा यरूशलम उसकी राजधानी है जबकि फ़लस्तीनी पूर्वी यरूशलम को भविष्य के फ़लस्तीनी राष्ट्र की राजधानी मानते हैं. संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव में यरूशलम को अंतरराष्ट्रीय नगर माना गया था.
ओस्लो समझौते की रोशनी में फलस्तीनी मुक्ति संगठन के फतह ग्रुप का फलस्तीनी अथॉरिटी का जॉर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर स्वायत्त क्षेत्र स्थापित हो गया है, जहाँ करीब 32लाख फलस्तीनी निवास करते हैं. 2005में इसराइल ने गज़ा पट्टी को भी छोड़ दिया, जहाँ करीब 22लाख फलस्तीनी निवास करते हैं. वहाँ हमस का प्रभाव है और उसका ही शासन चलता है.
हमस की भूमिका
हमस की स्थापना सन 1987में हुई थी. मूलतः इसका चार्टर इसराइल के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करता, साथ ही इस इलाके में शांति-स्थापना के प्रयासों को वक्त की बरबादी और बेहूदगी मानता था. पर सन 2017में उसने अपने चार्टर में कुछ बदलाव किया है.
अब उसका चार्टर कहता है कि हमारी लड़ाई यहूदियों से नहीं, बल्कि ज़ियनवादियों के फलस्तीन पर कब्जे के विरुद्ध है. इसकी पेशकश है कि यदि इसराइल 1967में किए गए कब्जे से पीछे हट जाए, तो हम शांति-समझौता कर सकते हैं.2005 के बाद से उसने गज़ा पट्टी के इलाके में राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सा लेना शुरू कर दिया. वह फलस्तीनी अथॉरिटी के चुनावों में शामिल होने लगा. गज़ा में फतह को चुनाव में हराकर उसने प्रशासन अपने अधीन कर लिया है.
अब पश्चिमी तट पर फतह गुट का नियंत्रण है और गज़ा पट्टी पर हमस का. अंतरराष्ट्रीय समुदाय पश्चिमी तट के इलाके की अल फतह नियंत्रित फलस्तीनी अथॉरिटी को ही मान्यता देता है.
भारतीय दृष्टिकोण
भारत हमेशा से फलस्तीन का खुला समर्थन करता रहा है, जिसकी राजधानी पूर्वी यरूशलम होनी चाहिए. पर 2017के बाद से इसराइल के साथ उसके रिश्तों में काफी सुधार आया है.2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फलस्तीन प्राधिकरण के राष्ट्रपति महमूद अब्बास के साथ खड़े होकर कहा था कि हम स्वतंत्र और समृद्ध फलस्तीन की स्थापना के पक्ष में है, जिसका अस्तित्व इसराइल के साथ शांतिपूर्ण तरीके से बना रहे.
1947 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ में इसराइल और फलस्तीन दो देश बनाने का प्रस्ताव पेश हुआ था, तब और 1949में जब इसराइल को संरा का सदस्य बनाने का प्रस्ताव रखा गया, तब भारत ने उसके खिलाफ वोट दिया था. अंततः भारत ने 17 सितंबर, 1950 को इसराइल को संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता दी.
ऐसा करने के बाद भी भारत और इसराइल के बीच राजनयिक संबंध लंबे समय तक नहीं रहे. भारत ने 1992में राजनयिक स्थापित किए. यह तब हुआ जब भारत में पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने.1992 में दुनिया एक ध्रुवीय हो चुकी थी. सोवियत संघ का विघटन हो गया था, पर आज ध्रुवीकरण फिर से उभरता नज़र आ रहा है.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र इस तनाव का केंद्र है. दूसरी तरफ दुनिया को जोड़ने के प्रयासों में तेजी आ रही है, ताकि नए कारोबारी रास्ते खोले जाएं. जी-20 की बैठक में प्रस्तावित भारत-पश्चिम एशिया कॉरिडोर ने इसीलिए फलस्तीनी समस्या की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है.
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )
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