प्रमोद जोशी
गज़ा में इसराइली सेना की कार्रवाई से तबाही मची है. नौ हजार से ज्यादा लोगों की मौत इस दौरान हुई है. मरने वालों में ज्यादातर स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े हैं. इलाके की दस फीसदी इमारतें खंडहरों में तब्दील हो चुकी हैं. इसराइली नाकेबंदी की वजह से ईंधन, पेयजल, खाद्य-सामग्री और चिकित्सा-सामग्री की जबर्दस्त किल्लत पैदा हो गई है, जिससे लाखों लोगों का जीवन खतरे में है.
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने लड़ाई फौरन रोकने का प्रस्ताव पास किया है, पर उसके रुकने की संभावना नज़र आ नहीं रही है. इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू खून का बदला खून से लेने और हमास को नेस्तनाबूद करना का दावा कर रहे हैं. उन्हें अपने देश के लोगों का और पश्चिम के काफी देशों का समर्थन प्राप्त है.
दुनिया का और खासतौर से भारत का हित इस बात में है कि समस्या का स्थायी और शांतिपूर्ण समाधान हो. अनुभव इस बात का है कि पश्चिम से उठी कट्टरपंथी आँधियाँ हमारे इलाके में भी आग भड़काती हैं.
कब तक चलेगी लड़ाई ?
इस लड़ाई को एक महीना हो गया है. सवाल है कि यह कब तक चलेगी और इसका अंत कैसे होगा? हमास ने क्या सोचकर 7अक्तूबर को हमला किया था? इस हमले के कारण अब उसके सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है. कहा जाए कि हम यहूदी-राष्ट्र बनने नहीं देंगे, तो 76साल बाद यह बात अव्यावहारिक हो चुकी है. अब तो हमास ने अपने चार्टर में बदलाव भी कर लिया है.
दुनिया की फलस्तीनियों के साथ हमदर्दी है. शांतिपूर्ण रास्ता खोजने की जिम्मेदारी उनकी भी है. दूसरी तरफ हमास ने जितने लोगों की हत्या की थी, इसराइल ने उसकी तुलना में तीन गुना से ज्यादा लोगों की हत्या कर दी है. अब वह क्या चाहता है?
इसराइल और अमेरिका दोनों लड़ाई रोकने के पक्ष में नहीं हैं. इसराइल चाहता है कि गज़ा में घुसकर हमास के समूचे तंत्र को खत्म कर दिया जाए और उसकी सप्लाई लाइंस को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जाए. अब उसका इरादा इस इलाके में सेना का बेस बनाना और हमास के शासन को खत्म करना है. पर मसला किसी एक पक्ष की निर्णायक विजय का नहीं, इलाके में शांति-व्यवस्था और सद्भावना कायम करने का है. यह कैसे संभव होगा?
बहरहाल यह समझने की जरूरत है कि इस लड़ाई को लेकर हमास और इसराइल के लक्ष्य क्या हैं. किस स्थिति में कोई एक पक्ष हार मानेगा या दोनों पक्ष लड़ाई रोकने पर सहमत होंगे?
हमास की घेराबंदी
गज़ा और इसराइल के बीच बनी लोहे की बाड़ टूट चुकी है. 7अक्तूबर को हमास ने इसे 29 जगहों पर तोड़ा था. इसके बाद इसराइल ने अपने बख्तरबंद दस्तों को गज़ा में प्रवेश कराने के लिए और तोड़ा. इसराइली सेना ने गज़ा की 45किलोमीटर लंबी पट्टी को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया है और उत्तरी हिस्से में गज़ा शहर को चारों ओर से घेरती जा रही है, जो हमास का गढ़ है.
इस इलाके से ज्यादातर नागरिक भाग निकले हैं या भाग रहे हैं. हमास की सेना सीधे युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं है. उसकी ट्रेनिंग छापामार शैली का युद्ध लड़ने की है. हमास की सुरंगों को इसराइली सेना निशाना बना रही है, ताकि हमास के सैनिक खुले में बाहर निकलें. इसराइल ने अपने 3,60,000 रिज़र्व सैनिकों को बुला लिया है, पर उन्हें लाम पर भेजा नहीं है.
इसराइल को भी पता होगा कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण वह लंबी अवधि तक कार्रवाई नहीं कर पाएगा. इस समय जो लड़ाई चल रही है, वह पिछले 76वर्षों की सबसे लंबी लड़ाई है. 7अक्तूबर के फौरन बाद इसराइल को पीड़ित देश माना जा रहा था, पर अब लोग उसे भूल चुके हैं. अब उसके हमलों का विवरण वैश्विक-चिंता को बढ़ा रहा है.
हिज़्बुल्ला की भूमिका
हमास के साथ हिज़्बुल्ला भी इस लड़ाई में काफी अरसे से शामिल है. इसराइल दो मोर्चों पर लड़ रहा है. फर्क इतना है कि लेबनान वाले मोर्चे पर खुली लड़ाई नहीं हो रही है, पर रॉकेट-प्रहार और जवाबी वार चल ही रहा है. गत 31अक्तूबर को यमन के हूती ग्रुप ने इसराइल पर ड्रोन और बैलिस्टिक मिसाइलों से हमला बोला. वे इसराइल से दूर हैं, पर हमले वे भी कर रहे हैं. इस तरह से इसराइल कई मोर्चों पर उलझा हुआ है.
यहूदियों के मन में होलोकॉस्ट और दूसरे नरसंहारों के कारण जबर्दस्त खौफ बैठा हुआ है. उनकी कल्पना का इसराइल वह देश है, जहाँ यहूदी लोग बेखौफ रह सकें. 7अक्तूबर के हमले ने उस भय को फिर से जगा दिया है. उधर हमास ने इस बात की चिंता किए बगैर कि इसराइली कार्रवाई के कारण कितने निर्दोष फलस्तीनियों की जान जाएगी, 7अक्तूबर की कार्रवाई की. वह भी अपने इरादों का पक्का है.
अस्थायी ढील
अमेरिका इस बात के पक्ष में है कि मानवीय सहायता पहुँचाने के लिए छोटे अंतराल के लिए ढील दी जाए. इसराइल और पश्चिमी देशों में ऐसे लोग हैं, जो मानते हैं कि इसराइली कार्रवाई जरूरत से ज्यादा कठोर, अमानवीय और अनैतिक है. वे मानते हैं कि हमास के नुकसान की तुलना में निर्दोष लोगों की तबाही बहुत ज्यादा है. कार्रवाई जितनी लंबी चलेगी, उतना ही जनमत इसराइल के खिलाफ होता जाएगा. लोग 7अक्तूबर के हमले में हुई बर्बरता को भूलते जा रहे हैं.
हमास आज भी 220से ऊपर बंधकों को फौरन रिहा करने की घोषणा कर दे, तो लड़ाई रुक सकती है. पर ऐसा होने का इमकान नहीं है. हाल में लेबनानी चरमपंथी ग्रुप हिज़्बुल्ला के नेता हसन नसरल्लाह के बयान से लगा कि उनके संगठन ने अपने तेवर नरम किए हैं. वह पूर्ण-युद्ध छेड़ने का इरादा नहीं रखता. नसरल्लाह ने यह ज़रूर कहा कि ‘ हमारे सभी विकल्प खुले’ हैं.
हिज़्बुल्ला का संकोच
हमास चाहता है कि हिज़्बुल्ला हमले तेज़ करे, पर हिज़्बुल्ला इसके लिए तैयार नहीं लगता. हसन नसरल्लाह ने कहा कि इसराइल पर 7अक्टूबर को किया गया हमला फ़लस्तीनियों पर ग़ज़ा में बढ़ रहे दबाव की वजह से किया गया था. इस हमले से इसराइल में भूचाल आ गया है और इसने उसकी कमज़ोरियों को उजागर भी किया है.
उन्होंने फलस्तीनियों पर बढ़ते दबाव के कारणों में इसराइली जेलों में बंद फ़लस्तीनी, यरूशलम और वहाँ मौजूद धार्मिक स्थानों को लेकर पैदा हुए गतिरोध और गज़ा की घेराबंदी और वेस्ट बैंक में बढ़ती यहूदी-बस्तियों को गिनाया है. उनका यह भाषण हिज़बुल्ला के चैनल अल-मनार पर प्रसारित किया गया और इसे दुनिया भर के मीडिया ने दिखाया.
हालांकि नसरल्लाह ने कहा है कि इसराइल गज़ा में प्रवेश करेगा, तो हम लड़ाई को अगले स्तर तक ले जाएंगे, पर यह सिर्फ बयान है. यह बात उन्होंने तब कही है, जब गज़ा में इसराइली कार्रवाई शुरू हुए एक हफ्ता हो चुका है. करीब डेढ़ घंटे के वक्तव्य के अंत में उन्होंने यह भी कहा कि हिज़्बुल्ला पूर्ण-युद्ध को टालना चाहता है.
तीन बातें
उन्होंने तीन बातें मुख्यतः कहीं, एक उन्हें या दूसरे फलस्तीनी ग्रुपों और ईरान को भी 7अक्तूबर के हमले की पहले से जानकारी नहीं थी. दूसरे उन्होंने गज़ा में युद्धविराम की अपील की. इसके अलावा उन्होंने ईरान के सुप्रीम नेता अली खामनेई के इस आह्वान को दोहराया कि इसराइल को तेल और गैस देने पर रोक लगाएं. यह बात खासतौर से अरब देशों को असमंजस में डालेगी.
अंदरूनी तौर पर हिज़्बुल्ला दबाव में है. हाल में उसके समर्थक अल-अखबार में प्रकाशित एक सर्वेक्षण में 68प्रतिशत लोगों का कहना था कि हमें इसराइल से पूर्ण-युद्ध में नहीं जाना चाहिए. लेबनान की शिया आबादी में 51प्रतिशत युद्ध-समर्थक हैं और 49प्रतिशत युद्ध-विरोधी.
पिछले चार साल से लेबनान आर्थिक-संकट का सामना कर रहा है. वहाँ मुद्रास्फीति की वार्षिक दर 100प्रतिशत से भी ऊपर चली गई है और करेंसी की कीमत 98फीसदी गिर गई है. 2006के युद्ध के बाद खाड़ी देशों ने एक अरब डॉलर की सहायता देने का वायदा किया था, पर वे वहाँ की राजनीति में हिज़्बुल्ला के नियंत्रण को पसंद नहीं करते हैं.
बदलता वक्त
कहना मुश्किल है कि खाड़ी देश अब मदद करेंगे या नहीं. अक्तूबर 2022के बाद से देश में राष्ट्रपति नहीं है और वहाँ की संसद एक दर्जन बार कोशिश करके भी नए राष्ट्रपति को चुन नहीं पाई है. हिज़बुल्ला, लेबनान की सबसे बड़ी राजनीतिक और सैनिक-शक्ति है.
ब्रिटेन, अमेरिका, इसराइल समेत कई देश हिज़बुल्ला को हमास की तरह आतंकवादी संगठन मानते हैं. 1992से इसकी अगुवाई हसन नसरल्लाह कर रहे हैं. हिज़्बुल्ला के पीछे ईरान का हाथ है, जो इस समय पश्चिम एशिया में अमेरिका और इसराइल का सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी है.
अस्सी के दशक में लेबनान पर इसराइली कब्ज़े के दौरान ईरान की सहायता से हिज़्बुल्ला का उदय हुआ था, जो दक्षिणी लेबनान में शियों की रक्षा करने वाली ताकत के रूप में उभरा था. 2011में जब सीरिया में गृह युद्ध शुरू हुआ तो सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद के समर्थन में हिज़्बुल्ला के हजारों सैनिक लड़ने गए थे.
सऊदी अरब के नेतृत्व वाले खाड़ी देशों से भी इसकी दुश्मनी गहरी होती गई. हाल में सऊदी अरब और ईरान के बीच राजनयिक-संबंध फिर से स्थापित हुए हैं. खाड़ी देशों के सीरिया के साथ भी रिश्ते फिर से कायम हो रहे हैं, इसलिए यह देखना होगा कि अंततः होने वाला क्या है?
अब क्या होगा ?
आने वाले समय में इसराइल और फलस्तीन दोनों जगहों पर नेतृत्व परिवर्तन होगा. बिन्यामिन नेतन्याहू इस समय इसराइल का नेतृत्व कर जरूर रहे हैं, पर उनकी आलोचना हुई है और वे टिके नहीं रहेंगे. देश की जनता उनसे नाराज़ है. दूसरी तरफ इस लड़ाई के बाद हमास का अस्तित्व रहे या नहीं रहे, पर फलस्तीनियों के बीच से एक नया नेतृत्व उभरेगा. फतह के नेता महमूद अब्बास की उम्र भी बहुत ज्यादा है.
सवाल है कि क्या कभी फलस्तीन में ऐसा मध्यमार्गी नेतृत्व उभर कर आएगा, जो ‘टू स्टेट सिद्धांत’ के तहत समझदारी के साथ समझौता करे और शांति का माहौल बनाए? पर समय का पहिया उल्टी दिशा में भी घूम सकता है. इसराइली सेना गज़ा पर कब्ज़ा करके हमास के फौजी-तंत्र को नष्ट भी कर दे, तो क्या गारंटी है कि फलस्तीनियों के बीच नए आक्रामक नेता खड़े नहीं होंगे ?
प्रशासनिक-व्यवस्था
गज़ा-पट्टी को छुट्टा छोड़ा नहीं जा सकता. उसका कामकाज चलाने के लिए व्यवस्था की जरूरत है. इसराइल वह काम नहीं कर सकता, क्योंकि फलस्तीनी उसे दुश्मन ही मानेंगे. अंतरराष्ट्रीय देखरेख में भी प्रशासनिक-व्यवस्था चलाई जा सकती है. या फिर केवल अरब देशों की देखरेख में यह काम हो सकता है. संयुक्त राष्ट्र को इस सिलसिले में कुछ करना चाहिए.
अमेरिका की दिलचस्पी यदि अरब देशों और इसराइल के बीच रिश्तों को सुधारने में है, तो उसे भी इसमें भूमिका निभानी होगी. गज़ा का पुनर्निर्माण बड़ी चुनौती है. वह तभी होगा, जब युद्ध रुकेगा. कैसे और कब रुकेगा, यह ज्यादा बड़ा सवाल है.
युद्ध केवल गज़ा में ही नहीं है. लेबनान, सीरिया से लेकर यमन तक में इसराइल और अमेरिका-विरोधी लहरें उछाल मार रही हैं. दूसरा सच यह है कि इन देशों की सरकारें इसराइल के साथ रिश्ते सुधारना चाहती हैं. यह सामाजिक-विसंगति है. ‘वैश्विक-आतंकवाद’ और ‘इस्लामोफोबिया’ के सूत्र इसी इलाके से जुड़े हैं.
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )
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