हिंदू बुद्धिजीवियों का इस्लामिक पुस्तकों के प्रकाशन में महत्वपूर्ण योगदान

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 25-03-2023
इस्लामी अध्ययन में हिंदू बुद्धिजीवियों का योगदान
इस्लामी अध्ययन में हिंदू बुद्धिजीवियों का योगदान

 

wasayप्रो. अख़्तरुल वासे

हिंदू बुद्धिजीवियों की सेवाओं का एक महत्वपूर्ण पहलू इस्लामी पुस्तकों के प्रकाशन के संबंध में भी है. अनेक हिन्दू सज्जनों ने इस्लामी पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए प्रेस स्थापित किए. वैसे जब ऐसे प्रेस का नाम आता है तो मुंशी नवल किशोर के नवल किशोर प्रेस का नाम सबसे पहले आता है. हालाँकि, इसके अलावा, कई और प्रेस हिंदू सज्जनों द्वारा स्थापित किए गए थे जो इस्लामी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए प्रसिद्ध थे. जैसे मुंशी हज़ारी लाल प्रेस और कुत्बख़ाना इशाअत-ए-इस्लाम आदि.

अकेले मुंशी नवल किशोर प्रेस ने इतना बड़ा काम किया है कि तमाम संस्थाओं और सरकारों के काम पर भारी पड़ता है. उन्होंने इस्लामियात पर पाँच सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित कीं. उनकी कुछ पुस्तकों के कई संस्करण भी प्रकाशित हुए. उन्होंने अवध अख़बार नामक एक समाचार पत्र भी निकाला जो अपने आप में एक तारीख़ है.

प्रकाशन में उन्होंने सुलेख, उत्कीर्णन, संपादन जैसे अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए. इन कार्यों के माध्यम से कई ऐसे इस्लामी शास्त्रों को संरक्षित किया गया था जो 1857के बाद सरकारों द्वारा उचित ध्यान न दिए जाने के कारण बर्बाद हो जाने के कगार पर जा पहुँचे थे. मुंशी नवल किशोर का काम इतना महान है कि उनकी सेवाओं पर निरंतर रिसर्च होती रही है और उनकी सेवाओं पर सेमिनार भी हो चुके हैं.

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हिंदू बुद्धिजीवियों ने प्रकाशन समूहों के अलावा अख़बार और पत्रिकाएं भी निकालीं. यद्यपि अख़बार स्वभाव से धर्मनिरपेक्ष होते हैं परन्तु ब्रिटिश काल में प्रकाशित होने वाले अधिकांश अख़बार हिंद-इस्लामी सभ्यता के प्रवक्ता थे. फ़ारसी भाषा का पहला अख़बार ईरान से नहीं बल्कि कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था और इसके प्रकाशक मुस्लिम नहीं बल्कि राजा राममोहन राय थे.

राजा राममोहन राय एक महान विद्वान थे. उन्होंने बड़े पैमाने पर इस्लाम और हिंदू धर्म के साथ-साथ ईसाई धर्म का भी अध्ययन किया था. उन्होंने अरबी और फ़ारसी में कई किताबें लिखीं थीं जिनमें से एक किताब तोहफ़त-उल-मुवह्हिदीन है. राजा राममोहन राय निस्संदेह इस सुनहरी ज़ंजीर की सबसे सुंदर कड़ी हैं.

राजा राममोहन राय के अलावा क़रीब सौ अख़बार और पत्रिकाएं हिंदू सज्जनों ने निकाली. जिसमें दैनिक, साप्ताहिक एवं मासिक अख़बार होते थे. हिंदू बुद्धिजीवियों ने भी कुछ इस्लामी अध्ययन पर काम किया है. इसके अलावा पंडित दुर्गा प्रसाद आजम भरतपुरी की मजम-ऊल-बहरैन, बाबू माधो दास की बोस्तान-ए-मारीफ़त, चरण दास शर्मा की इरफ़ान हाफिज़ आदि सूफ़ीवाद में कई महत्वपूर्ण रचनाएं हुई हैं.

कई हिंदू बुद्धिजीवी ऐसे भी हैं जिन्होंने अरबी और फ़ारसी किताबों का अनुवाद भी किया है. ऐसे अनुवादकों में एक प्रसिद्ध और पुराना नाम मुंशी तोता राम शायाँ का है. उन्होंने अलिफ़ लैला का अरबी से उर्दू में अनुवाद किया है और दास्तान-ए-अमीर हमज़ा का भी अनुवाद किया है. उन्होंने अलिफ़-लैला का अनुवाद शायरी में किया है. यह अनुवाद वास्तव में असग़र अली ख़ाँ नसीम द्वारा शुरू किया गया था, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद तोता राम शायाँ ने इसे पूरा किया.

जानी बिहारीलाल राज़ी जो मिर्ज़ा ग़ालिब के शागिर्द थे और भरतपुर में उच्च पदों पर आसीन थे. वे स्वयं फ़ारसी और उर्दू के बहुत अच्छे कवि थे और उन्होंने कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया. विशेष रूप से फ़ारसी की नैतिक पुस्तकों जैसे गुलिस्तान, अनवार साहिली, रोज़तुस्सुफ़ा आदि का उर्दू में अनुवाद किया गया. इनके अलावा मुंशी मूलचंद, दलपत राय, सदा सुख लाल, गुरदयाल मज-ज़ूब, मुंशी गोपाल कृष्ण तहसीन आदि कई महत्वपूर्ण अनुवादक रहे हैं.

हिंदू बुद्धिजीवियों और विद्वानों ने निस्संदेह इस्लाम और इस्लामी सभ्यता के बारे में बहुत कुछ लिखा है. पद्य में भी लिखा है और गद्य में भी. वह इस्लामी इतिहास से इस तरह जुड़े हुए हैं कि उन्हें इस्लाम के इतिहास से अलग नहीं किया जा सकता. यह कैसे संभव है कि गणित के ज्ञान का उल्लेख हो और ब्रह्म सिद्धांत का उल्लेख न हो ?

भारत के इतिहास का उल्लेख करना और हिंदू लेखकों का उल्लेख न करना कैसे संभव है? भारत के मुस्लिम युग का इतिहास न केवल हिंदू बल्कि सिख और जैन धर्मों से भी पूरी तरह से जुड़ा हुआ है और उनके उल्लेख के बिना यह इतिहास निश्चित रूप से अधूरा है. सारांश यह है कि हिंदू लेखकों और बुद्धिजीवियों ने भी इस्लाम के क्षेत्र में बहुमूल्य सेवाएं प्रदान की हैं.

तीन क़िस्तों में प्रकाशित इस लंबे लेख का उद्देश्य यह बताना है कि हमारे हिंदू भाई भारत में इस्लाम के आगमन से बहुत पहले और आज भी इस्लामी अध्ययन और अरबी और फ़ारसी भाषाओं की सेवा के लिए समर्पित हैं. आज जो दूरी पैदा करने की कोशिश की जा रही है,

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इस्लाम और मुसलमानों के प्रति घृणा का प्रदर्शन किया जा रहा है वह तथ्यों से कितना अलग है. अभी हमारे समकालीनों में चंद्रभान ख़्याल जैसे लोग हैं जिन्होंने "लौलाक" शीर्षक से सीरत-निगारी की एक कृति प्रस्तुत की है, वह अपनी मिसाल आप है. डॉ महेंद्र नाथ, जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है और जिनके साथ लेखक को दिल्ली उर्दू अकादमी में काम करने का अवसर मिला,

उन्हें इस्लाम और क़ुरआन का असाधारण ज्ञान था एवं बड़े गर्व से इस बात को दोहराते थे कि जब वे जामिया मिल्लिया इस्लामिया के स्कूल में पढ़ रहे थे तो ज़्यादातर कार्यक्रमों की शुरुआत उनके द्वारा क़ुरआन की तिलावत से ही होती थी.

हमने यहां अधिकतर सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं क्योंकि वे प्रचुर मात्रा में हैं. जो लोग हिंदू और मुसलमानों के बीच दूरी बनाना चाहते हैं वे यह भूल जाते हैं कि वे भारतीय समाज में सांप्रदायिक सद्भाव को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में धार्मिक समझ और विद्वत्तापूर्ण सेवाएं केवल हिंदू भाइयों ने ही की हैं, बल्कि मुसलमानों ने भी हिंदू धर्म की सेवाओं में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

अल-बैरूनी से मौलाना सऊद आलम क़ासमी तक यह सिलसिला अभी भी जारी है और अगर अल्लाह ने चाहा तो हम इस कॉलम में हिंदू धर्म के संबंध में मुसलमानों की सेवाओं पर भी प्रकाश डालेंगे.

(समाप्त)

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं.)

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