साकिब सलीम
यह फिर से चुनाव का मौसम है.फिर से "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी संख्या" जैसे राजनीतिक नारे देखने को मिल रहे हैं.भारत में ऐसे राजनीतिक नेता और दल हैं जो समाज के किसी न किसी वर्ग को आकर्षित करते हैं.
हमारे पास ऐसे नेता हैं जो तर्क देते हैं कि मुसलमानों को उन्हें वोट देना चाहिए,क्योंकि वे मुसलमान हैं.जिन लोकसभा क्षेत्रों में मुसलमानों की आबादी अधिक है, वहां मुस्लिम सांसद ही चुना जाना चाहिए.इसी तरह, हम आदिवासियों, यादवों, भूमिहारों, पासी, जाटवों और ऐसी अन्य पहचानों से भी तर्क सुनते हैं.
मुस्लिम, दलित, ओबीसी आदि जैसे हाशिये पर रहने वाले समुदायों ने अक्सर तर्क दिया है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व में उनका अनुपात उनकी जनसंख्या प्रतिशत के बराबर होना चाहिए.यह विचार पूरी तरह ग़लत नहीं. लोकतंत्र में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व होना चाहिए.लेकिन, इसे हासिल करने की दिशा में पहचान-आधारित राजनेताओं द्वारा दिया गया समाधान बेहद भ्रामक है-
किसी पहचान को कैसे परिभाषित करें?
यदि हम मानते हैं कि प्रत्येक सांप्रदायिक पहचान को उनकी संख्या के अनुसार लोकसभा प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए तो हमें पहले इन समुदायों को परिभाषित करने की आवश्यकता है.प्रारंभ में, ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य ने भारतीयों को हिंदू, मुस्लिम, सिख, जैन और आदिवासी के रूप में वर्गीकृत किया.ये वे पहचानें थीं जिनके तहत लोग अपनी पहचान रखते होंगे.
बाद में, पहचान में विविधता आई.अब हमारे पास कई जातियाँ, उपजातियाँ, भाषाई भेदभाव आदि हैं.मुस्लिम प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर ध्यान केंद्रित करते हुए हम कई मुस्लिम और गैर-मुस्लिम नेताओं को यह तर्क देते हुए सुनते हैं कि जिन सीटों पर मुस्लिम आबादी अधिक है, उन्हें पार्टी द्वारा टिकट दिया जाना चाहिए.
वे आगे तर्क देते हैं कि मुसलमानों को एक ही उम्मीदवार को वोट देना चाहिए ताकि वोट विभाजित न हों.मुस्लिम सांसद चुने जाने की संभावना अधिक हो जाए.हमें यह समझना चाहिए कि किसी भी अन्य समुदाय की तरह मुसलमान भी सजातीय नहीं हैं.हाल ही में निचली जाति के मुसलमानों ने खुद को मुखर करना शुरू कर दिया है.
इसके अलावा, निचली जाति के मुसलमानों में भी जातिगत भेदभाव और प्रतिस्पर्धी आकांक्षाएं हैं,इसलिए, यदि हम मुस्लिम समुदाय से अपील करना शुरू करते हैं, तो इससे मुसलमानों के बीच पहचान और छोटी हो जाएगी.
लड़ाई ऊंची जाति बनाम निचली जाति के सवालों को निपटाने तक नहीं रुकेगी.निचली जातियाँ भी अपने प्रतिनिधित्व के लिए लड़ती हैं.सलमानियों की तुलना में अंसारी अधिक सत्ता का दावा करेंगे.सलमानी दावा करेंगे कि वे मसूदियों से भी बढ़कर हैं.विवाद कभी शांत नहीं होगा.
पहचान की राजनीति एक भानुमती का पिटारा है. एक बार खुलने पर यह हर दिन एक नया आश्चर्य पेश करेगी.स्थानीय आकांक्षाओं वाले कम से कम लोग खुद को अलग पहचान के रूप में दावा करेंगे जिससे समुदाय की समग्र एकता को नुकसान होगा.
फायदा किसका ?
सबसे अहम सवाल यह है कि इस पहचान की राजनीति से किसे फायदा होगा.बेशक, बहुमत. जो भी समूह अपने सदस्यों के रूप में बड़ी संख्या में लोगों का दावा कर सकता है, उसे पहचान की राजनीति के तर्क के अनुसार सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए ?
वर्तमान भारतीय संदर्भ में, यह हिंदुत्व पहचान है, जो अन्य समूहों के साथ उच्च जाति और ओबीसी हिंदुओं का एक ढीला समामेलन है.लेकिन, यह एकमात्र संभावित बहुमत नहीं है.1990के दशक में कांशीराम ने एक बहुजन पहचान बनाने की कोशिश की, जो उच्च जाति के हिंदू को छोड़कर सभी का एक और ढीला मिश्रण था.
पहचान की राजनीति, जिसे इसके समर्थक स्वीकार नहीं करेंगे, बहुसंख्यकवाद के समर्थन में सबसे महत्वपूर्ण तर्क है.वे आपसे कहते हैं कि बड़े समूहों को सत्ता का बड़ा हिस्सा मिलना चाहिए.तो यही बात बहुसंख्यकवाद का समर्थन करती है.
नुकसान किसका ?
पहचान की राजनीति राष्ट्र को नुकसान पहुंचाती है.विचारधाराओं से रहित राजनीति को जन्म देती है.आप किस प्रकार के भारत की कल्पना करते हैं? एक मुसलमान, एक मुसलमान को और एक हिंदू, एक हिंदू को कहां वोट देता है ?
जहां एक यादव, एक यादव को वोट देता है और एक ब्राह्मण, एक ब्राह्मण को वोट देता है? राजनीतिक दल आपको वोट देने के लिए कहां कहते हैं,क्योंकि वे किस विचारधारा के बजाय एक विशेष समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं?इस तरह 1947 में भारत का विभाजन हुआ.
हमें ऐसी राजनीति की जरूरत है जहां विचारधाराएं महत्वपूर्ण हों।. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने एक बार कहा था कि उन्हें सभी भारतीय कार्यकारी पदों पर मुसलमानों के होने से कोई आपत्ति नहीं है.उनकी एकमात्र शर्त यह थी कि वे मुसलमान मौलाना अबुल कलाम आजाद, रफी अहमद किदवई आदि की तरह राष्ट्रवादी और जनपक्षधर होने चाहिए न कि मोहम्मद अली जिन्ना की तरह जनविरोधी.
हमें उस राजनीति को फिर से स्थापित करने की जरूरत है,जहां महात्मा गांधी, एक गौरवान्वित सनातनी हिंदू, ने अखिल भारतीय खिलाफत समिति का नेतृत्व किया था.समिति लगभग पूरी तरह से मुसलमानों से बनी थी और मुस्लिम हित के लिए लड़ रही थी.
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को अशांत समय में कांग्रेस कार्य समिति द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया था, जिसे इसके आलोचकों द्वारा हिंदू पार्टी कहा गया था.भारतीय राजनेताओं को सांप्रदायिक राजनीति से ऊपर उठने की जरूरत है.उन्हें सामाजिक और आर्थिक मुद्दों के आधार पर लोगों से अपील करने की जरूरत है.
जिन उम्मीदवारों ने लोगों के लिए काम किया है, उन्हें मैदान में उतारा जाना चाहिए.' उन्हें जन कल्याण और विकास के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए.आपको किसी को वोट क्यों देना चाहिए क्योंकि वह आपके धर्म या जाति का है ?राजनीतिक दलों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उम्मीदवार चुनने का मापदंड जाति या सांप्रदायिक पहचान के बजाय कल्याणकारी दृष्टिकोण और प्रतिबद्धता हो.