संजय सरकार
काजी नजरूल इस्लाम विद्रोह के कवि, समानता के कवि, मानवता के कवि और जन-जन के कवि हैं. जब उनका जन्म ब्रिटिश भारत में हुआ था और जिस दौरान उन्होंने साहित्य का अभ्यास किया, तब बंगाल और पूरा भारत ब्रिटिश विरोधी आंदोलन से नाराज था.
विश्व संदर्भ में वह प्रथम विश्व युद्ध का समय था. रूसी क्रांति का समय था. इन क्रांतियों, शासन के शोषण और उत्पीड़न ने कवि काज़ी नज़रूल इस्लाम को बहुत प्रभावित किया. लोगों के बीच मतभेद, धर्मों के बीच मतभेद, नस्लों के बीच मतभेद को देखते हुए कवि ने एक ओर अपनी रचनाओं में प्रेम का संदेश दिया है, तो दूसरी ओर अन्याय और शोषण के खिलाफ अपना कड़ा रुख स्पष्ट किया है.
व्यवहारवादी धर्म मूलतः धर्म से बाहर है, जिसमें केवल प्रदर्शन और पारंपरिक औपचारिक धार्मिक प्रथा का विचार है. नज़रुल ने औपचारिक धार्मिक अभ्यास को धर्म के बाद गौण माना. और इसलिए उनका विद्रोह केवल अन्यायी शासन, ब्रिटिश शासन तक ही सीमित नहीं था. वह काव्य के माध्यम से धार्मिक मुल्ला, पादरी पर बड़े पराक्रम से प्रहार करते हैं.
और उस भावना से, नज़रूल ने उमर खय्याम की रुबाई का अनुवाद किया. फ़ारसी कवि नज़रूल की इन रुबाईयों में प्रचलित समाज और धर्म के विरुद्ध विद्रोह किया गया है. वह लंबे समय से स्थापित धार्मिक व्यवस्था में पुराने सामाजिक नियमों को तोड़ना चाहते हैं. यदि परंपरागत धर्मावलंबी अपराधी है तो उसे ईमानदार नहीं कहा जा सकता. नज़रुल द्वारा अनुवादित रुबाई में एपिक्यूरियन और चारबक दर्शन का मिश्रण पाया जा सकता है.
नजरुल खय्याम की रुबाई में कहते हैं - यदि आप गरीबों को उनका उचित हिस्सा देते हैं / किसी के जीवन को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं, बुराई नहीं मांगते हैं / तो क्या होगा यदि आप धर्मग्रंथों का पालन नहीं करते हैं / मैं आपको तुरंत स्वर्ग दूंगा.
नज़रूल वर्तमान नारीवादियों की तुलना में महिलाओं की आज़ादी की प्रणेता थीं. उन्होंने शब्दों से महिलाओं के चरित्र को धूमिल करने के साथ-साथ पुरुषों को भी कठघरे में खड़ा किया. यदि कोई महिला चरित्रहीन है और उसके बच्चे को हरामजादी कहा जाता है, तो चरित्रहीन पुरुष के बच्चे को भी हरामजादा ही कहा जाना चाहिए.
नजरूल का विद्रोह पुरुष प्रधान समाज पर करारा प्रहार है. यह चोट हम आज भी नहीं कर सकते. 'बरंगना' कविता में नजरूल ने कहा- अगर बेईमान मां का बेटा कमीना है / बेईमान बाप का बेटा है तो जरूर कमीना है !
नज़रूल चाहते थे कि देश का युवा समाज साम्प्रदायिकता को भूलकर एक-दूसरे को इंसान के तौर पर परखें. सामाजिक संकट में, राज्य की आवश्यकता में, प्राकृतिक आपदा में, रोजमर्रा की जिंदगी में, युवा एक नए समाज का निर्माण करें जहां कोई धार्मिक मतभेद नहीं होगा.
नज़रूल को धर्म के बाहरी चिन्हों पर सख्त आपत्ति थी. ये निशान लोगों को इंसान के रूप में अलग करते हैं. मनुष्य का शाश्वत संबंध है. धर्म के बाहरी लक्षण इस रिश्ते को अस्पष्ट कर देते हैं.काजी नजरूल इस्लाम वास्तव में गैर-सांप्रदायिक भावना के कवि थे.
उन्होंने अपनी कविता में हिंदू मिथक के साथ इस्लामिक मिथक, ग्रीक मिथक का भी इस्तेमाल किया. उसी कविता में, शिव को नटराज के रूप में संदर्भित किया गया है और इसराफिल का संदर्भ है और यहां तक कि ऑर्फियस का संदर्भ भी नहीं छोड़ा गया है. 'मैं/इसराफिल के सींग का महान सींग,/मैं/पिनाक-पानी का डमरू त्रिशूल, धर्मराज की छड़ी.'
नजरूल ने गाने के लिए गजल लिखी है. उन्होंने हमद, नात, श्यामा संगीत लिखा और यहां तक कि कृष्ण के बारे में सभी लोकप्रिय गीत भी लिखे. नज़रुल के गीतों से न केवल साहित्यिक अभिजात वर्ग बल्कि आम लोग भी मंत्रमुग्ध थे.
नज़रूल ने अपने निबंध, उपन्यास, कविता और निजी जीवन में सभी धर्मों और दर्शनों का सार संगीत में ही समझा. नजरूल ने अपने बच्चों का नाम गैर-सांप्रदायिक विचारों को ध्यान में रखते हुए रखा. उनके पहले बच्चे का नाम काजी कृष्ण मोहम्मद, दूसरे बच्चे का नाम काजी अरिंदम खालिद, फिर काजी सब्यसाची और काजी अनिरुद्ध रखा गया.
गैर-सांप्रदायिक शब्द का अर्थ सांप्रदायिक शब्द के विपरीत हो गया है. यानी जो जाति, धर्म और आस्था के आधार पर किसी को नीचा दिखाने, अपमानित करने या विरोध करने या नुकसान पहुंचाने से परहेज करता है वह गैर-सांप्रदायिक है. जो व्यक्ति अपने धर्म, जाति, भाषा और आस्था को ही सच्चा और सर्वोत्तम मानता है वह भी एक अर्थ में सांप्रदायिक है. गैर-सांप्रदायिक का अर्थ है किसी विशेष समूह या धर्म के प्रति तटस्थ, सार्वभौमिक.
नजरूल की गैर-सांप्रदायिक भावना को 1927में प्रिंसिपल इब्राहिम खान को लिखे एक पत्र में देखा जा सकता है - 'मैं यह भी जानता हूं कि इस जले हुए देश में अगर हिंदू-मुस्लिम अपमान को दूर नहीं किया जा सका तो कुछ भी नहीं होगा. और मैं यह भी जानता हूं कि यह अनादर केवल साहित्य के माध्यम से ही दूर किया जा सकता है.'
काजी नजरूल इस्लाम ने अपनी शायरी में गैर-सांप्रदायिक दृष्टिकोण से हिंदुयानी मुस्लिम शब्दों का प्रयोग किया. जैसे-'घर-घर उसका काजिया है/रथ खींचो, अनरे तजिया,/पूजा देरे तोरा, दे कोरबन।/दुश्मन के दिल को गाली दो, फिर से हिंदू-मुसलमान।/शंख बजाओ, प्रार्थना का आह्वान करो.'
नज़रूल की गैर-सांप्रदायिक भावना की चरम अभिव्यक्ति साम्यवादी कविता में देखी जा सकती है. यह न केवल एक गैर-सांप्रदायिक भावना है, बल्कि पारंपरिक मान्यताओं के खिलाफ विद्रोह भी है. ऐसा लग रहा जैसे नज़रूल ने हमें चंडीदास की प्रसिद्ध कहावत सुनाई हो - 'मनुष्य सबसे ऊपर है, सत्य उससे ऊपर नहीं है.'
'गाही समता का गीत
जहाँ सारी बाधाएँ एक साथ आ गई हैं,
जहां हिंदू-बौद्ध-मुस्लिम-ईसाई मिले हुए हैं.
नज़रूल चाहते थे कि देश का युवा समाज साम्प्रदायिकता को भूलकर एक-दूसरे को इंसान के तौर पर परखें. सामाजिक संकट में, राज्य की आवश्यकता में, प्राकृतिक आपदा में, रोजमर्रा की जिंदगी में, युवा एक नए समाज का निर्माण करें जहां कोई धार्मिक मतभेद नहीं होगा. मानवीय आपदा में प्रचलित धर्म के नियमों की अनदेखी कर जनता के साथ खड़ी रहेगी. यही नजरूल की अपेक्षा थी.
जब हम प्राकृतिक आपदाओं में लोगों को बचाते हैं, तो हम पहले उनकी धार्मिक पहचान नहीं जानना चाहते. किसी व्यक्ति को सबसे पहले तब बचाया जाता है, जब उसे लगता है कि वह खतरे में है. नजरूल ने कई साल पहले कहा था.
हम कभी-कभी अपने युवा समाज में उस आशा की प्रतिध्वनि सुनते हैं, जो संकट समाप्त होने पर ही लुप्त हो जाती है. अगर लंबे समय तक हममें यह समझ नहीं रहेगी तो समाज और राज्य के संकट से निपटना कभी संभव नहीं हो सकेगा. शायद नजरूल ने यह सोचकर कहा था कि यदि बंगाल क्षेत्र में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय एकजुट नहीं हो सके तो हमारा संकट दूर नहीं हो सकता.
'मेरे पास एक डंठल में दो जर्दी हैं
हिंदू-मुस्लिम
मुसलमान उसकी आंख का गहना है,
हिंदू उनकी आत्मा है.
जब हम प्राकृतिक आपदाओं में लोगों को बचाते हैं, तो हम पहले उनकी धार्मिक पहचान नहीं जानना चाहते. किसी व्यक्ति को सबसे पहले तब बचाया जाता है जब उसे लगता है कि वह खतरे में है. नजरूल ने कई साल पहले कहा था. यदि यह भाव पैदा ही नहीं हुआ तो हम उसे मनुष्य कैसे कह सकते हैं!
नज़रूल ने न केवल धार्मिक सद्भाव, बल्कि सांप्रदायिक दंगों को दबाने में भी प्रत्यक्ष भूमिका निभाई. मानव भाईचारे के बंधन को नकारना मानव सभ्यता के मानव इतिहास को नकारना है. इसलिए वह सभी लोगों की संयुक्त शक्ति में विश्वास करते थे.
हालाँकि नज़रुल के विचार और लेखन समसामयिक हैं, लेकिन प्रचलित सामाजिक संरचना के ख़िलाफ़ होने के कारण उन्हें शाश्वत दर्जा प्राप्त है. जिस प्रकार उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में अपने घर में धर्म के सह-अस्तित्व की स्थापना की, वैसा ही हम उनके साहित्यिक जीवन में भी देखते हैं.
यह सांप्रदायिक एकीकरण समय की मांग थी. नजरूल ने उस मांग को नहीं टाला. उन्होंने समाज के रोमकूपों में संचित विषैली वाष्पों को नष्ट कर एक नयी दुनिया की खोज की.आज के बांग्लादेश में हम परिवर्तन की टूट-फूट को दूर करके एक नए राज्य और समाज का भी सपना देख रहे हैं.
हमारे वांछित राज्य के तत्व प्रेम, सद्भाव और गैर-सांप्रदायिक भावना से ओत-प्रोत होंगे जैसा कि नजरूल दर्शन में प्रकट हुआ है. हम विनाश से नव सृजन का गीत गाएँगे. तो नजरूल के शब्दों में हमें कहना होगा-
'विनाश से क्यों डरते हो ? - बाढ़, नव सृजन - पीड़ा!
आ रहा है नव-जीवन-हारता गैर-सुंदर चीरा!'
( संजय सरकार , एसोसिएट प्रोफेसर, बंगाली विभाग, बारिसल विश्वविद्यालय )