इतिहास जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 24-03-2025
History from which we can learn a lot
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harji हरजिंदर

आज जब राजनीतिक विमर्श से लेकर मीडिया तक हर जगह औरंगजेब की चर्चा हो रही है तो इससे हटकर इतिहास के कुछ पन्नों को पलटने की जरूरत है.औरंगजेब की रीति-नीति और उनके अत्याचारों का कहर जिस पर सबसे ज्यादा गिरा वह थे सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह. 

औरंगजेब ने उनके पिता गुरु तेग बहादुर का उस समय दिल्ली में लाल किले के सामने मृत्यु दंड दिया जब गुरु गोविंद सिंह अभी बच्चे ही थे. जहां यह मृत्युदंड दिया गया वहां आज गुरुद्वारा शीशगंज साहिब है.

बाकी की तकरीबन सारी जिंदगी गुरु गोविंद सिंह को बागी जीवन जीते हुए ही बितानी पड़ी. उनके चारों बेटे जिन्हें साहबजादे कहा जाता है वे मुगल सेनाओं से लड़ते हुए ही शहीद हुए. यह औरंगजेब ही था जिसके अत्याचारों के खिलाफ उन्होंने सिख धर्म की स्थापना की. 

और अपनी तकरीबन पूरी जिंदगी उन्हो ने मुगल सेनाओं से लड़ते हुए बिता दी.लेकिन जब दक्खन में औरंगजेब का निधन हुआ तो उनके बेटे मुअज्जम ने गुरु गोविंद सिंह को दिल्ली आमंत्रित किया. 

इस निमंत्रण को मिलने के बाद गुरु गोबिंद सिंह की पहली प्रतिक्रिया क्या रही होगी हम यह नहीं जानते. उन्हें एक ऐसा शख्स निमंत्रण दे रहा था जिसका  पिता उनके खुद के पिता ही नहीं उनके चार बेटों  तक की हत्या का जिम्मेदार था.

इतिहास हमें सिर्फ इतना ही बताता है कि निमंत्रण मिलने के बाद वे दिल्ली आए. शायद इस सोच के साथ कि पिछली पीढ़ी के अत्याचारों और अपराधों को भूल कर नई शुरुआत करने का वक्त आ गया है.

मुअज्जम ने उनका शाही स्वागत किया. उनके पूरे लशकर को यमुना नदी के किनाने हुमायूं के मकबरे के पास ठहराया गया. वहां हाथियों की लड़ाई जैसे आयोजन भी हुए. इस जगह बाद में गुरुद्वारा दमदमा साहिब बनाया गया.

मुअज्जम ने तब तक खुद को बादशाह घोषित कर दिया था. हालांकि सत्ता संघर्ष तब भी खत्म नहीं हुआ था. कुछ इतिहासकारों ने यह भी लिखा है कि मुअज्जम ने  गुरु गोविंद सिंह से बादशाहत हासिल करने में सहयोग करने को भी कहा. 

हालांकि उनमें क्या बातचीत हुई इसका कोई लिखित या और किसी तरह का प्रमाण मौजूद नहीं है. हम बस इतना ही जानते हैं कि उत्तर भारत की दो बड़ी ताकतें मिलीं और उन्होंने अपनी पुरानी खानदानी रंजिशों को भुला दिया.

इस मुलाकात के कुछ ही सप्ताह बाद राजकुमार मुअज्जम ने सत्ता संघर्ष को जीत लिया और जून के महीने में उनकी ताजपोशी भी हो गई. इस ताजपोशी के बाद उन्हें नाम मिला बहादुर शाह. इतिहास में उनका जिक्र बहादुर शाह प्रथम के रूप में भी होता है.

गुरु गोविंद सिंह ने अतीत की उन बहुत सारी रक्तरंजित यादों को एक नई शुरूआत की उम्मीद में बहुत सहजता से भुला दिया जिन्हें आज बहुत से लोग तीन सौ साल बाद भी भुलाने के लिए तैयार नहीं हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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