अबु अशरफ
जीशान जब भी इजरायल और फिलिसतीन विवाद होता है तब अक्सर ये सुनने को मिलता है कि हमास ने गाजा पट्टी से रॉकेट छोड़े. उसके फलस्वरूप इस्राइल ने भयानक बमबारी कर दी. इस बार भी ऐसा हीकुछ हुआ. इस बार दोनों पक्षों ने युद्ध मानकों और नागरिक सुरक्षा के सारे मानक ताक़ पर रख दिए. इंसानियत को शर्मसार कर देने वाले दृश्य देखने को मिले.
हमास है क्या ?
मुस्लिम राजनीतिक एकता के ढोंगी नाम पर वहाबी राजशाहों के पैसों से खड़े किए गए ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’की फ़िलिस्तीनी शाखा का नाम ही हमास है. इज़राइल का तर्क है और काफ़ी हद तक यह सच भी है कि ‘इस्लामी प्रतिरोधी आन्दोलन’ यानी ‘हमास’ के लड़के उसकी सीमा पर असैनिक मिसाइलें दाग़ते हैं जिससे उनकी सुरक्षा पर ख़तरा है.
जिस हमास के भगोड़े आक़ा ख़ालिद मशाल को सीरिया ने इज़राइल के विरोधी के नाम पर पनाह दी, उसी ख़ालिद ने सीरिया में प्रायोजित गृह युद्धऔर आतंकवाद शुरू होते ही विपक्षी आतंकवादी संगठनों का साथ देना शुरू कर दिया. जॉर्डन समेत कई देशों को हमास का खेल समझ में आने के बादइस पर प्रतिबंध लगाया तो हमास अपने आक़ा क़तर की शरण में आ गया.
दरअसल, यासिर अराफ़ात के गांधीवादी, धर्मनिरपेक्ष,अहिंसक और अंतरराष्ट्रीय समर्थन से तैयार की गई फ़िलिस्तीन राष्ट्र की आज़ादी के आन्दोलन को हिंसा के रास्ते आज़ादी का सपनादिखाने वाला हमास ही पटरी से उतार सकता था.
जब से हमास काजन्म हुआ है फ़िलिस्तीन भी वैचारिक मतभेद में बँट गया. हमासी कट्टर तत्वों को ग़ज़ा और अराफ़ाती उदारपंथ को वेस्ट बैंक में जगह मिली. यह बँटवारा व्यापक है. मशहूर पुस्तक ‘डेविल्सगेम: हाउ द यूनाइटेड स्टेट्स हैप्ल्ड अनलीश फंडामेंटलिस्ट इस्लाम’ के लेखक और अमेरिका-इजरायल और सऊदी अरब की तिकड़ी की ‘कॉन्सपिरेसी थ्योरी’ के माहिर रॉबर्टड्रायफ़स ने एक्यूरेसी डॉट ऑर्ग से कहा कि हमास के जन्मके साथ ही ग़ज़ा पट्टी में 200 मस्जिदों कीतादाद 600 हो गई.
ज़ाहिर है इसका पैसा बाहर से आया था. इज़राइल के ख़िलाफ़ अगर हमास साज़िश मे शामिल था तो ग़ज़ामें उसे पाँव क्यों जमाने दिए गए ? इन तीस सालों मेंहमास ने हमेशा यासिर अराफ़ात के मुक्ति आन्दोलन की आलोचना की.
हमास की शक्ल में मुस्लिम ब्रदरहुड ने यासिर के अलावा फ़िलिस्तीन मुक्ति आन्दोलन में साथ दे रहे नासिरवादियों, वामपंथियों और बाथ पार्टी का भरपूर विरोध किया. हमास के यह सारे रास्ते इज़राइल को फ़ायदा पहुँचाने वालेथे, बल्कि हमास ने अपनी हिंसक वारदातों से विरोधी राष्ट्रों और बेईमान मीडिया को फ़िलिस्तीन के आंदोलन की भारी बदनाम करने का मौक़ादिया.
यह क्रम अब भी जारी है. आज हमास की कमान सन् 1967 वाले हाथों में नहीं है. अब ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ नाम का संगठन क़तर के शासक अलसानीके पैसों और तुर्की के राष्ट्रपति रजब एर्दोगान की एकेपी पार्टी से चलता है.
वही मुस्लिम ब्रदरहुड जिसने मिस्र में चुनाव जीतकर मुहम्मद मुर्सी की सरकार बनाई थी, लेकिन एक ही सालमें अपने घोर वहाबी सलफ़ी एजेंडे के कारण गिर भी गई. मिस्र की उदारसुन्नी जनता के ग़ुस्से के बहाने से उपजे राजनीतिक गतिरोध का सऊदी अरब ने फ़ायदा उठाया.
मिस्री सेना का साथ देकर मुस्लिम ब्रदरहुड कोउखाड़ फिँकवाया. मगर सऊदी अरब ने उदारसुन्नी राजनीतिक शक्तियों की मदद क्यों की ? इसलिए कि वहाबी और मुस्लिम नेतृत्व पर सऊदी अरब अपना एकाधिकार चाहता है.
यानी क़तर अगर अपना समानान्तर साम्राज्य खड़ा करेगा तोसऊदी अरब उसे नष्ट करेगा. जो इज़राइल हमासके गठन के दौरान इसे इस्लामी एकता में दरार की साज़िश समझकर चुप बैठा था, क्या उसकी राजनीतिक समझ इतनी ही थी कि वही हमासउसके लिए नासूर बन जाए ?
आज हमास की पहचानफ़िलिस्तीन राष्ट्र की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले आन्दोलन की बजाय आतंकवादीसंगठन की है. इज़राइल 70 सालों से हमलावर तरीक़े से निपटने में साढ़ेइक्कीस हज़ार जानों का गुनहगार बन चुका है.
फ़िलिस्तीन औरइज़राइल की मुक्ति यासिर अराफ़ात के पास थी. वही यासिर जोबहुत बड़े गाँधीवादी नेता थे. गाँधी से भटक करआज पाकिस्तान जिस कगार पर पहुँच गया है, यासिर से भटककर इज़राइल और हमास भी वहीं पहुँच जाएँ तो आश्चर्य मत कीजिएगा.
(लेखक, MSO के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और खानकाह ए गुलज़ारियाकिशनी अमेठी के नायब सज्जादानशीन हैं . यह लेखक के अपने विचार हैं.)