ग़ज़वा-ए-हिन्द एक मिथक

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 04-08-2023
ग़ज़वा-ए-हिन्द एक मिथक
ग़ज़वा-ए-हिन्द एक मिथक

 

मुबीन अहमद जामई
 
भारतीय राजनीति में अक्सर मुसलमानों के संदर्भ में गज़वा-ए-हिन्द की चर्चा होने लगती है. कुछ लोग यह दावा करते हैं कि मुस्लिम ग़ज़वा-ए-हिन्द की तैयारी कर रहे हैं. वह चाहते हैं कि भारत में ग़ज़वा-ए-हिन्द के ज़रिए इस्लामिक राज्य की स्थापना की जाए. आम तौर पर यह चर्चा कुछ खास तबके द्वारा की जाती है. ऐसा नहीं है कि यह चर्चा सिर्फ कुछ खास तबके के बीच होती है, इस बात की चर्चा मुस्लिम दक्षिणपंथी समूह भी करते हैं.सबसे पहले आइए, जानते हैं कि ‘ग़ज़वा’ किसे कहते हैं?

हदीस और सीरत (पैग़म्बर की बॉयोग्राफ़ी) के स्कॉलर के अनुसार ग़ज़वा, वह युद्ध है जिसमें पैग़म्बर -ए-इस्लाम ख़ुद शामिल हों और अगर ख़ुद शामिल ना हों और अपने साथियों में से किसी को दुश्मन का मुक़ाबला करने के लिए भेजें तो वह सरिय्या (सराया) कहलाता है.ज्ञातव्य हो कि ग़ज़वे की संख्या 27 है. [सीरत-ए-रसूल-ए-अरबी- मुहम्मद नूर बख़्श तवक्कली]
 
इस हिसाब से देखें तो कोई ग़ज़वा-ए-हिंद ना हुआ है और ना ही भविष्य में हो सकता है. ये शब्दावली ही गढ़ी हुई लगती है जिसमे पाकिस्तानी उलेमा का अहम रोल दिखता है, जिन्होंने आईएसआई के इशारे पर इस को उभारना और गढ़ना शुरू किया.हदीस, इस्लामिक पैग़म्बर के कथनों, कार्यों या आदतों का वर्णन करने वाले विवरण को कहते हैं.
 
हदीस को मानने की क़िस्में व दर्जे सबसे पहले यह स्पष्ट कर लें कि हदीस-ए-सहीह और हदीस-ए-हसन किसे कहते हैं. सह़ीह़ हदीस वो है जिसके तमाम रावी (Narrater) आदिल (Just), सिक़ा, मोअ़तबर (Authentic), मुत्तक़ी (Pious), कामिल-उल-ज़ब्त (patience) और क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा (Memory) के मज़बूत हों. इस हदीस की सनद मुत्तसिल (Chain By Chain) हो, इस प्रकार को हदीस को ‘सह़ीह़ हदीस’ उच्चतम श्रेणी का माना गया है.
 
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हदीस-ए-हसन उसे कहते हैं, कि सहीह़ हदीस की कुल शर्तें पाई जाएं, लेकिन ज़ब्त (याद दाश्त) और आगाही की कमी हो.मक़बूल (क़ुबूल की जाने वाली) हदीस चार प्रकार की होती हैं. 

1) सहीह़ लिज़ातिही : वह हदीस जिसके कुछ रावी सहीह हदीस के रावियों के मुक़ाबले में ‘ख़फ़ीफ़-उल-ज़ब्त’ (याद दाश्त में हलके) हों, बाक़ी शर्तें वही हों.
 
2) सहीह़ लिग़ैरिही : जब हसन हदीस की एक से ज़्यादा सनदें हों तो वह हसन के दर्जे से तरक़्क़ी कर के सहीह के दर्जे तक पहुंच जाती है. उसे ‘सहीह लिग़ैरिही’ कहते हैं, क्योंकि वो अपने ग़ैर (दूसरी सनदों) की वजह से सहीह के दर्जे को पहुंचती है. इस हदीस की हर सनद में ज़ोअ़फ़ (कमज़ोरी) होता है. मगर कई सनदों के कारण, ज़ोअ़फ़ की कमी पूरी हो जाती है. 
 
3) हसन लिज़ातिही : वह हदीस जिसके कुछ रावी सहीह हदीस के रावियों के मुक़ाबले में ‘ख़फ़ीफ़-उल-ज़ब्त’ (याद दाश्त में हलके) हों, बाक़ी शर्तें वही हों.
 
4) हसन लिग़ैरिही : वो हदीस, जिसकी कई सनदें हों. हर सनद में मामूली ज़ोअ़फ़ (कमज़ोरी) हो, मगर कई सनदों के के कारण उस कमज़ोरी की भरपाई हो जाए तो वो ‘हसन लिग़ैरिही’ के दर्जे को पहुंच जाती है.ज्ञातव्य हो कि वो हदीस जो किताब सहीह बुखारी और किताब सहीह मुस्लिम दोनों में पाई जाती है, उसे ‘मुत्तफ़क़ अलैहि’ कहा जाता है. यह हदीस की उच्चतम श्रेणी है. 
 
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अब ग़जवा ए हिन्द की हदीस पर रोशनी डालते है

अबूहुरैरा पैग़म्बर के हवाले बयान करते हैं कि,“पैग़म्बर ने हमसे वादा किया था कि मुस्लिम हिन्दुस्तान में जिहाद (पवित्र युद्ध) करेंगे. अगर वो जिहाद मेरी मौजूदगी में हुआ तो मैं अपनी जान और माल अल्लाह की राह में क़ुर्बान करूँगा।. अगर मैं शहीद हो जाऊं तो मैं सबसे अफ़ज़ल तरीन शहीदों में से हूँगा. अगर मैं ज़िंदा रहा तो मैं वो अबूहुरैरा हूँगा जो अज़ाब-ए-जहन्नम से आज़ाद कर दिया गया है.”
 
[नेसई, अल-सुनन 3:28, नंबर 4382, दारु-अल-कुतुब-उल-इलमिय्या, बैरूत / बैहिक़ी, अल-सुनन-उल-कुबरा, 9: 176, नंबर, 18310, मकतबा दारु-उल-बाज़, मक्का]
 
अन्य हदीस की किताबों में अबूहुरैरा के हवाले से इस तरह हदीस दर्ज है कि पैग़म्बर ने हिन्द का ज़िक्र करते हुए कहा कि ज़रूर तुम्हारा एक लश्कर हिन्द से जंग करेगा, अल्लाह उन मुजाहिदीन को फ़तह देगा, यहां तक कि वो (दूसरी रिवायत के अनुसार) वहां के बादशाहों को बेड़ियों में जकड़ कर लाएँगे और अल्लाह उनकी मग़फ़िरत कर देगा.
 
फिर जब वो मुस्लमान वापस पलटेंगे तो शाम में ईसा इब्न-ए-मरियम को पाएँगे. हज़रत अबूहुरैरा ने अर्ज़ किया “अगर मैंने वो ग़ज़वा पाया तो अपना नया और पुराना सब माल बेच दूँगा. इस में शिरकत करूँगा और जब अल्लाह हमें फ़तह अता कर देगा और हम वापस लौट आएँगे तो मैं एक आज़ाद अबूहुरैरा हूँगा.
 
जब यह लश्कर मुल्क-ए-शाम (सीरिया) में आएगा तो वहां ईसा इबन-ए-मरियम को पाएगा. या रसूल अल्लाह! उस वक़्त मेरी शदीद ख़ाहिश होगी कि मैं उनके पास पहुंच कर उन्हें बताऊं कि मैं आप का सहाबी हूँ. हज़रत अबूहुरैरा ने कहा कि पैग़म्बर मुस्कुराए और कहा कि आख़िरत (मौत के बाद) की जन्नत, दुनिया की जन्नत की तरह नहीं होगी.
 
आदमी उनसे (हज़रत-ए-ईसा से) ख़ौफ़ की हालत में मिलेगा. जैसा कि मौत का ख़ौफ़. वो मर्दों के चेहरों पर हाथ फेरेंगे और उनको जन्नत की श्रेणियों की ख़ुशखबरी देंगे.[मुसनद इसह़ाक़ बिन राहवैह, 1/462, नंबर 537- मकतबतुल ईमान, अल-मदीना]
 
अबूहुरैरा की रिवायत, जो तीन तरीके़ से है. तीनों तरीकों से ज़ईफ़ (कमज़ोर) है, यानि हदीस की मुस्तनद (Authentic) किताबों “बुखारी” और “मुस्लिम” मे नहीं है. इसके रावी (Narrater) भी ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं और ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीस से कोई हुक्म या फैसला नहीं लिया जा सकता, इसलिए ग़जवा ए हिन्द की इस हदीस से कोई आदेश या फैसला नहीं किया जा सकता. 
 
हालांकि इस हदीस की रिवायत एक से ज़्यादा तरीक़ों से होने के बावजूद  “हसन” के दर्जे को नहीं पहुँचेगी, क्योंकि इस रिवायत को कहीं से कोई मज़बूती नहीं मिल रही, क्योंकि उनमें से हर एक की सनद में अप्रचित बयान करने वाला (मुबहम रावी) मौजूद है.
 
अबूहुरैरा  की रिवायत के चौथे रावी वो हैं जिनसे सफ़वान बिन अमर ने रिवायत ली है, मगर सफ़वान बिन अमर ने उनका नाम ज़िक्र नहीं किया, बल्कि लफ़्ज़ ‘शैख़’ कह कर रिवायत बयान की है,जबकि इस शैख़ की अदालत व सक़ाहत और ज़ब्त (किरदार और याद रखने की शक्ति) के बारे में कुछ मालूम नहीं, इसलिए इस शैख़ के मुबहम (ना मालूम) होने की वजह से ये रिवायत ज़ईफ़ है.
 
जैसा कि इब्न-ए-हजर ने खुले रूप से लिखा है कि जब तक रिवायत की सनद में रावी का नाम ना ज़िक्र हो, उस वक़्त तक उसकी रिवायत क़बूल नहीं की जाएगी.[नुज़हत-उन-नज़र फ़ी तौज़ीह-ए-नुख़बत-इल-फ़िक्र, पेज:231, मतबअ़ा सफ़ीर बिर्रियाज़]
 
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हिन्द का मतलब और उसका क्षेत्रफल ? 

प्राचीन मिस्र के भूगोलवेत्ताओं ने सिंध के पूर्वी क्षेत्रों के लिए हिंद शब्द का प्रयोग किया था, भारत का अर्थ दक्षिण पूर्व एशिया के देश का भी था, इसलिए जब भारत के राजा या भारत के क्षेत्रों के बारे में कहा जाता था, तो इसका अर्थ केवल भारत ही नहीं होता था, बल्कि इसमें इंडोनेशिया, मलाया आदि को शामिल माना जाता था.
 
जब इसे सिंध कहा जाता था, तो इसमें सिंध, मकरान, बलूचिस्तान, पंजाब का एक हिस्सा और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत शामिल माना जाता था, ऐसा कोई नाम नहीं था, जिससे संपूर्ण भारत, भारत और सिंध को मिलाकर जाना जाता हो.
 
जब भारत की भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन अरबी और फारसी में किया गया तो भारत और सिंध दोनों उत्तर में थीं, यह कथन भी भारत में मुसलमानों के आगमन से पहले का कहा जाता है . ऐसा कोई नाम नहीं था जो पूरे देश पर लागू होता हो.
 
प्रत्येक प्रांत का अपना नाम था. सिंध के नाम पर, जैसा कि अब इसे हिंदू कहा जाता है, क्योंकि ईरान की प्राचीन भाषा पहलवी और संस्कृत में, ‘स’और ‘ह’ आपस में बदल गए थे , इसलिए फारसियों ने सिंध को हिंदू कहा, जबकि अरबों ने सिंध को सिंध कहा. लेकिन इसके अलावा भारत के अन्य क्षेत्रों को हिंद कहा जाने लगा और अंततः यही नाम पूरी दुनिया में फैल गया.
 
पहली शताब्दी हिजरी/8वीं शताब्दी ईस्वी में, सिंध आज की तुलना में बहुत बड़ा देश था. इसमें वर्तमान बलूचिस्तान के अलावा मकरान के पूर्वी जिले भी शामिल थे, इसकी सीमा उत्तर में झेलम और चिनाब के संगम तक थी. दक्षिण में जैसलमेर और मारवाड़ के कुछ क्षेत्र भी इसमें सम्मिलित थे.[सुलेमान नदवी की किताब अरब व हिन्द के ताअ़ल्लुक़ात, पेज: 10]
 
पवित्र हदीस में वर्णित हिन्द शब्द के उदाहरण में अरबों और फारसियों के लिए सिंधु नदी का पूर्वी क्षेत्र शामिल है, जिसमें वर्तमान भौगोलिक विभाजन के संदर्भ में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल हैं.  दूसरे, हदीसों में 'हिंद' शब्द उपयोग किया गया है वह विशेष रूप से भारत के लिए नहीं है, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप या आसपास के क्षेत्र के लिए है.
 
विशेष रूप से बसरा (इराक़ का शहर) और उसके परिवेश के लिए. यह इस तथ्य से और मजबूत होता है कि पैग़म्बर के सहाबा के अनुसार, ‘हम बसरा को हिंद कहा करते थे.’[फ़तावा दारुल उलूम देवबंद 047- 000/37=20/1438]
 
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निष्कर्ष:
 
ग़ज़वा, वह लश्कर (फ़ौज) है जिसमें पैग़म्बर -ए-इस्लाम  ख़ुद शामिल हों. इस लिहाज़ से कोई ग़ज़वा-ए-हिंद ना हुआ है और ना ही भविष्य में हो सकता है, बल्कि ये शब्दावली ही गढ़ी हुई है.ग़ज़वा-ए-हिंद को लेकर, दलील जिस हदीस को पेश किया जाता है, वो ज़ईफ़ है यानी ग़ज़वा-ए-हिंद सुबूत पर यक़ीन नहीं किया जा सकता. 
 
हिन्द का शब्द पैग़म्बर के ज़माने में बसरा (इराक़ का शहर) को भी कहा जाता था. प्राचीन इतिहास के अनुसार अरब और फ़ारस, सिंध नदी के पूर्वी इलाक़े, जिनमें इंडोनेशिया, मलाया, म्यांमार, बंग्लादेश, पाकिस्तान और भारत शामिल हैं, को हिन्द कहते थे. 
 
हिन्द को अगर बसरा मान लिया जाए, ता ग़ज़वा-ए-हिन्द हो चुका है. अगर सिंध को मान लिया जाए, जैसा कि अधिकांश मुस्लिस स्कॉलर की राय भी यही है, तो भी मोहम्मद बिन क़ासिम के नेतृत्व में ग़ज़वा-ए-हिन्द हो चुका है. 
 
अत: ग़ज़वा-ए-हिन्द की थ्योरी पूर्णरूप से एक मिथ्य है. भविष्य में किसी संभवत: जंग को ग़ज़वा-ए-हिन्द की संज्ञा देना, ‘अपना उल्लू सीधा करना’ और स्पष्टरूप से द्वेषपूर्ण घृणात्मक कृत्य है.
 
(नोट: यह लेखक के अपने विचार हैं )