प्रमोद जोशी
गज़ा, लाल सागर, लेबनान, यमन, सीरिया और इराक में आए दिन मिसाइलों और ड्रोनों से हमले हो रहे हैं. अब पाकिस्तान और ईरान के बीच हाल में हुई सैनिक-कार्रवाइयों के तार भी इस बमबारी के साथ जुड़ गए हैं. हालांकि ईरान-पाकिस्तान तनातनी, जितनी तेजी से उभरी, उतनी ही तेजी से दूर भी हो गई है, पर कुछ सवाल अपने पीछे छोड़ गई है.
यह सहज प्रश्न है कि जिस वक्त गज़ा में इसराइली हमले चल रहे हैं, लेबनान में हिज़्बुल्ला और यमन में हूती बागियों पर हमले हो रहे हैं, ईरान ने पाकिस्तान के भीतर जाकर हमला क्यों किया? कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि शायद अपने कुछ सैनिक कमांडरों की हत्या और समर्थक समूहों पर पड़ रही मार के कारण पैदा हो रही निराशा से ध्यान हटाने के लिए ऐसा किया गया होगा.
पश्चिम एशिया की लड़ाई धीरे-धीरे ईरान और अमेरिका की लड़ाई में तब्दील होती जा रही है. ईरान के साथ गज़ा के हमास, लेबनान के हिज़्बुल्ला और यमन के अंसार अल्लाह या हूती समूह हैं. कमोबेश इराक़ और सीरिया की सरकारें ईरान के साथ हैं. निशाने पर अरब देश भी हैं, जो इसराइल से रिश्ते सुधारने की कोशिश कर रहे हैं.
अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस इलाके से हटने की घोषणा की थी, जिसे काफी हद तक बाइडेन प्रशासन ने भी जारी रखा और अफगानिस्तान से वह हट भी गया. अब वह अधबीच स्थिति में है. न हट सकता है और न लड़ाई को बढ़ाना चाहता है. समझना यह है कि ईरान क्या चाहता है.
प्रशासन का रसूख
यह पूरा इलाका सामाजिक बदलाव से भी गुज़र रहा है. ईरान ने पाकिस्तान पर हमला करने के एक दिन पहले इराक के कुर्द इलाके में भी ऐसा ही एक हमला किया है. अगले महीने देश की संसद मजलिस-ए-शौरा-ए-इस्लामी के चुनाव भी होने वाले हैं. वहाँ चुनावों में जनता की दिलचस्पी कम होती जा रही है, जिसका प्रमाण है घटता वोट-प्रतिशत.
संभव है ईरान सरकार अपने रसूख को बनाए रखने के लिए सैन्य बल के सहारे यह संदेश देना चाहती हो कि वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किसी भी स्तर की कार्रवाई करने को वह तैयार है. सितंबर 2022से चल रहे स्त्रियों के आंदोलन के कारण ईरानी प्रशासन पर दबाव भी है.
आपसी अविश्वास
पाकिस्तान और ईरान दोनों एक-दूसरे के लिए दोस्त और भाई जैसे शब्दों का इस्तेमाल जरूर करते हैं, पर अतीत में एक-दूसरे के इरादों पर शक भी ज़ाहिर करते रहे हैं. दोनों के बीच भरोसे का संकट है. लगता है कि दोनों देशों के बीच सैनिक और शासन-स्तर पर जरूरी संवाद नहीं है. दोनों ने ही गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव किया है.
यह भी देखना होगा कि दोनों देशों के बीच टकराव के ऐसे कौन से बिंदु हैं, जिन्हें सुलझाने के लिए सैनिक कार्रवाई का सहारा लेना पड़ा? एक और सवाल है कि ऊपर बताई सभी झगड़ों में अमेरिका की भी भूमिका है, तो क्या ईरान-पाकिस्तान झगड़े में भी अमेरिका का हाथ है?
बिगड़ता माहौल
ईरान-पाकिस्तान के बीच बलोचिस्तान की सीमा पर चलने वाले टकराव को अमेरिका एक जटिल समस्या के रूप में देखता है, पर उसकी दिलचस्पी दोनों देशों को इस समय लड़ाने में क्यों होगी? उसे क्या हासिल होगा?
यूक्रेन और रूस की लड़ाई काला सागर से होती हुई भूमध्य सागर के रास्ते पश्चिम एशिया में प्रवेश करने के बाद अब लाल सागर के रास्ते अरब सागर में प्रवेश करने जा रही है. यह अच्छी खबर नहीं है. अच्छा होता कि यह प्रतिस्पर्धा आर्थिक और सामाजिक सुधार की होती.
कहा यह भी जा रहा है कि इस विवाद को निपटाने में चीन की भूमिका है. यह संभव है, क्योंकि चीन की दिलचस्पी इस इलाके में अपना प्रभाव बढ़ाने में है और दोनों ही देश उसपर भरोसा करते हैं. दोनों के मित्र चीन ने मध्यस्थता की पेशकश की.
वैश्विक चिंता
कुछ विशेषज्ञ तो यह भी कह रहे हैं कि यह ईरान और पाकिस्तान की नूरा कुश्ती है. दोनों देश एक-दूसरे की कार्रवाई के बारे में जानते थे. बहरहाल ऐसे मौके पर जब गज़ा में टकराव चल रहा है, दो मुस्लिम देशों के बीच सैनिक-टकराव से असमंजस की स्थिति पैदा हो गई. इस स्थिति को जल्द से जल्द ठीक करने का दबाव दोनों देशों पर था. संरा संघ समेत दुनिया के तमाम देशों ने दोनों मुस्लिम देशों से संयम बरतने का आग्रह किया.
गत 3जनवरी को ईरान में हुए जबर्दस्त आत्मघाती हमले को ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, जिसमें सौ से ज्यादा लोगों की मौत हुई. उसकी जिम्मेदारी खुरासान प्रांत के एक ताजिक समूह ने ली थी, जिसके संबंध दाएश से जोड़े जाते हैं. इक्कीसवीं सदी में ये संगठन किस विचारधारा से प्रेरित होकर यह सब कर रहे हैं?
अराजकता की स्थिति
ईरान और पाकिस्तान की सीमा पर दोनों तरफ अराजकता है. इस इलाके के कबीलों के बीच कई तरह के अलगाववादी संगठन और विद्रोही गुट शरण पाते हैं. इस वक्त भी कहा जा रहा है कि ईरान और पाकिस्तान दोनों ने ही एक दूसरे की सहमति से सीमा के पार विद्रोहियों के ठिकानों को निशाना बनाया है.
यह साबित करना काफी मुश्किल है कि दोनों की सहमति थी या नहीं, पर सच यह भी है कि दोनों देशों के बीच असहमतियाँ हैं और वे जारी रहेंगी. ईरानी हमले की प्रतिक्रिया में पाकिस्तान ने तेहरान स्थित अपने राजदूत को वापस बुला लिया था, पर अब लगता है कि राजदूत की वापसी हो जाएगी.
टकराव की शुरुआत
विवाद की शुरुआत मंगलवार 16जनवरी को तब हुई, जब ईरान के लड़ाकू विमानों और ड्रोनों ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान सूबे के कुछ इलाकों पर बमबारी की. ईरान का कहना है कि उसने जैश अल-अद्ल नामक एक गिरोह पर हमला किया है, जो ईरान के भीतर जाकर हिंसक कार्रवाइयाँ करता है.
इस हमले के बाद गुरुवार 18जनवरी की सुबह पाकिस्तान ने कहा कि हमने भी ईरान के दक्षिण में सिस्तान-बलोचिस्तान इलाक़े के एक गाँव में आतंकवादियों के ठिकानों पर हमला किया. दोनों देशों की सीमा काफी हद तक खुली होने के कारण पाकिस्तान के बलोच अलगाववादी सैनिक कार्रवाइयों से बचने के लिए ईरानी इलाकों में शरण लेते हैं.
आतंकवादियों पर हमला
दोनों देश मानते हैं कि उनकी लड़ाई आतंकवादियों से है. पाकिस्तानी सेना ने कहा है कि ख़ुफ़िया जानकारी के आधार पर हमने ईरान में बलोचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) और बलोचिस्तान लिबरेशन फ्रंट (बीएलएफ़) के ठिकानों को निशाना बनाया. इन दोनों संगठनों पर पाकिस्तान में पाबंदी लगी है.
बीएलएफ़ मकरान और इसके आसपास के इलाक़ों में सक्रिय है. इस संगठन ने हाल में पाकिस्तानी सुरक्षाबलों पर कई जगह हमले किए हैं. यह संगठन चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर का भी विरोध करता रहा है. इसके लड़ाकों ने पाकिस्तान में स्थित चीनी ठिकानों को निशाना बनाया है.
जैश अल-अद्ल
पाकिस्तान में सक्रिय जैश अल-अद्ल भी सशस्त्र विद्रोही गुट है जो ईरान सरकार के ख़िलाफ़ है. ईरान के सिस्तान-बलोचिस्तान में सक्रिय यह संगठन ख़ुद को ‘सुन्नी मुसलमानों के हक़ों का रक्षक’ बताता है. ईरान का कहना है कि इस संगठन के पीछे अमेरिका और इसराइल का हाथ है.
दूसरी तरफ अमेरिका ने इस संगठन का नाम अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठनों की सूची में डाल रखा है. यह भी कहा जाता है कि पाकिस्तान का खुफिया संगठन आईएसआई इसका मददगार है. बताया जाता है कि इसी संगठन ने कुलभूषण जाधव का अपहरण करके उसे आईएसआई को सौंपा था.
अमेरिकी ख़ुफ़िया विभाग के अनुसार 2005 में ईरान के पूर्व राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद पर हुए हमले के पीछे इसी संगठन का हाथ था. 2009 में ईरान ने इस संगठन के प्रमुख अब्दुल मलिक रेगी को गिरफ्तार किया था, जिसे बाद में मौत की सज़ा दी गई.
इस संगठन का नाम जुनदल्लाह हुआ करता था, लेकिन बाद में इसका नाम बदल गया. ईरान का आरोप है कि यह संगठन पाकिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल ट्रेनिंग वगैरह के लिए करता है. इसके अलावा यह ईरानी सुरक्षा गार्डों पर हमले भी करता रहता है.
पाकिस्तान की दशा
इस टकराव की खबर सुनते ही पाकिस्तान के कार्यवाहक प्रधानमंत्री अनार-उल-हक़ काकड़ ने दावोस में विश्व आर्थिक मंच के कार्यक्रम को अधूरा छोड़कर फौरन वापस आए. शुक्रवार को उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की बैठक की अध्यक्षता करते हुए परिस्थिति पर विचार किया.
शुक्रवार 19जनवरी को पाकिस्तान के कार्यवाहक विदेशमंत्री जलील अब्बास जिलानी ने ईरानी विदेशमंत्री हुसैन अमीर अब्दुल्लाहियान से बात की. दोनों ने तनाव कम करने को अलावा इस बात पर सहमति व्यक्त की कि आतंकवाद-विरोधी कार्रवाइयों के लिए दोनों देशों के बीच समन्वय होना चाहिए.
नसीहतें
दोनों देशों के बयानों को पढ़ने से लगता है कि दोनों तरफ समझदारी है और मसले को ज्यादा बढ़ाने की मनोकामना नहीं है, फिर भी दोनों की असहमति के सैद्धांतिक सवाल अपनी जगह कायम हैं. यह बात दोनों के बयानों में देखी जा सकती है.
ईरान के बयान में उम्मीद ज़ाहिर की गई है कि ‘पाकिस्तान अपने देश में हथियारबंद आतंकवादियों के समूहों के अड्डे बनाने पर रोक लगाने के दायित्व का पालन करेगा.’ दूसरी तरफ पाकिस्तान के बयान में कहा गया कि उसने ‘अपने देश की सुरक्षा और राष्ट्रीय हितों को देखते हुए कार्रवाई की है.’
दोनों ही देश इस समय सैनिक टकराव को आगे बढ़ाने की स्थिति में नहीं हैं. जाने-अनजाने ईरान ने पश्चिम एशिया की लड़ाई में कई तरह के प्रॉक्सी संगठनों के मार्फत अपने आप को शामिल कर लिया है. वह भी ऐसे समय में जब अरब देशों ने इसराइल के साथ रिश्ते सुधारने का मन बना लिया था.
धीरज की कमी
ईरान को इस बात का इंतजार करना चाहिए था कि इसराइल और सऊदी अरब के बीच किस प्रकार का समझौता होने जा रहा है. उस समझौते में फलस्तीनियों के लिए क्या व्यवस्था है वगैरह. फिलहाल फलस्तीन का समाधान कुछ समय के लिए टल गया है.
दूसरी तरफ पाकिस्तान में अगले महीने चुनाव होने वाले हैं. वहाँ की कार्यवाहक सरकार बहुत दूर की बातें सोचने की स्थिति में नहीं है. यों भी देश अपनी अर्थव्यवस्था को लेकर चिंतित है. टकराव से दोनों देशों का नुकसान था. इसलिए दोनों ने अपने कदम खींच लिए हैं, पर तीन दिन में दोनों के रिश्तों की जटिलता भी ज़ाहिर हो गई है.
जिस तरह अरब देशों ने अपनी वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के बारे में सोचना शुरू किया है, उसी तरह ईरान को भी वैकल्पिक-व्यवस्था पर विचार करना चाहिए. पश्चिम एशिया को भट्ठी की तरह तपाकर आग का गोला बनाने से किसी को कुछ हासिल नहीं होगा.
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )
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