प्रमोद जोशी
दमिश्क में ईरानी दूतावास पर इसराइली हमले और फिर इसराइल पर ईरानी हमले के बाद अंदेशा था कि पश्चिम एशिया में बड़ी लड़ाई की शुरुआत हो गई है. हालांकि अंदेशा खत्म नहीं हुआ है, फिर भी लगता है कि दोनों पक्ष मामले को ज्यादा बढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं. यों तो भरोसे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता, पर लगता है कि शुक्रवार 19 अप्रेल को ईरान के इस्फ़हान शहर पर इसराइल के एक सांकेतिक हमले के बाद फिलहाल मामला रफा-दफा हो गया है.
अमेरिकी मीडिया ने शुक्रवार की सुबह खबर दी कि इसराइल ने ईरान के इस्फ़हान शहर पर जवाबी हमला बोला है. सबसे पहले अमेरिका के दो अधिकारियों ने कहा कि इसराइल ने ईरान पर मिसाइल से हमला किया. अमेरिकी अधिकारियों ने यह जानकारी सीबीएस न्यूज़ को दी.
इस्फ़हान में ईरान की सेना का बड़ा एयर बेस है और इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों से जुड़े कई अहम ठिकाने भी हैं. ईरानी स्रोतों ने पहले कहा कि कोई हमला नहीं हुआ है, पर बाद में माना कि उधर कुछ विस्फोट हुए हैं. साथ ही विश्वस्त सरकारी सूत्रों के हवाले से कहा गया कि देश के कई हिस्सों में जो धमाके सुनाई पड़े थे, वे एयर डिफेंस सिस्टम के अज्ञात मिनी ड्रोन्स को निशाना बनाने के कारण हुए थे.
सुरक्षा परिषद में वीटो
शुक्रवार की शाम तक, ईरान के सरकारी मीडिया ने कहा कि इसराइल के इस हमले से ईरान को कोई ख़ास नुक़सान नहीं पहुँचा और ईरान जवाबी कार्रवाई नहीं करेगा. दोनों देशों की इस समझदारी से क्या फलस्तीन-समस्या के बाबत कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है? क्या किसी दूरगामी समझौते के आसार निकट भविष्य में बनेंगे? उससे पहले सवाल यह भी है कि फलस्तीन मसले में ईरान की क्या कोई भूमिका है?
इन सवालों पर बात करने के पहले पिछले गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र की पूर्ण सदस्यता देने के एक प्रस्ताव पर भी नज़र डालें, जो अमेरिकी वीटो के बाद फिलहाल टल गया है. इस टलने का मतलब क्या है और इसका फलस्तीन-इसराइल समस्या के स्थायी समाधान से क्या कोई संबंध है?
प्रति-प्रश्न यह भी है कि प्रस्ताव पास हो जाता, तो क्या समस्या का समाधान हो जाता और अमेरिकी वीटो का मतलब क्या यह माना जाए कि वह फलस्तीन के गठन का विरोधी है? सबसे बड़ी रुकावट इसराइल को माना जाता है, जिसकी उग्र-नीतियाँ फलस्तीन को बनने से रोक रही हैं. माना यह भी जाता है कि फलस्तीनियों और उनके समर्थक मुस्लिम-देशों की सहमति बन जाए, तो इसराइल पर भी दबाव डाला जा सकता है.
फलस्तीन की समस्या
सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव पास हो जाता, तो फलस्तीन को संरा महासभा के विचार-विमर्श में और संरा से जुड़े दूसरे कार्यक्रमों में शामिल होने का मौका जरूर मिलता, पर समस्या का समाधान फिर भी नहीं होता. फलस्तीन बनने में रुकावट केवल इसराइल नहीं है, बल्कि फलस्तीनियों की आंतरिक-राजनीति भी है, जो किसी एक राय पर नहीं पहुँच पा रही है. एक राष्ट्र के रूप में फलस्तीन अभी खुद भी खड़ा नहीं है.
संरा में फलस्तीन के रूप में अभी फलस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के उत्तराधिकारी महमूद अब्बास के अल-फतह गुट का प्रतिनिधित्व है, जबकि गज़ा में हमास का दबदबा है. जब तक फलस्तीन के सभी समूह मिलकर किसी बातचीत में शामिल नहीं होंगे, परिणाम नहीं मिलेंगे. इस एकता को बनाने में मिस्र, सऊदी अरब, क़तर, तुर्की और ईरान की भूमिका भी है. इन देशों के बीच भी आपसी प्रतिस्पर्धा है. पहली एकता तो इनके बीच ही होनी चाहिए.
हालांकि महमूद अब्बास के नेतृत्व वाले फलस्तीन को 140 से ज्यादा देशों ने मान्यता दे रखी है, पर उसे संयुक्त राष्ट्र में पूर्ण सदस्यता नहीं मिली है, जबकि इसराइल को 1947 में ही मिल गई थी. फलस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) को 1974 में गैर-सदस्य देश का दर्जा मिला था और 15 दिसंबर, 1988 से संरा महासभा ने उसे फलस्तीन नाम से मान्यता दी.
इसके बाद 29 नवंबर, 2012 को महासभा ने इसे गैर-सदस्य पर्यवेक्षक-देश का दर्जा भी दे दिया. इसका मतलब है कि संरा के विमर्श में वह शामिल हो सकता है, पर मतदान नहीं कर सकता. फलस्तीन के अलावा वैटिकन सिटी भी संरा में पर्यवेक्षक-देश है.
अल्जीरिया का प्रस्ताव
फलस्तीन को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए सुरक्षा परिषद में अल्जीरिया ने यह प्रस्ताव पेश रखा था, जिस पर गुरुवार को वोटिंग हुई थी. सुरक्षा परिषद में किसी प्रस्ताव को पास कराने के लिए कम से कम नौ सदस्यों के समर्थन की जरूरत होती है. इसकी दूसरी बड़ी शर्त यह होती है कि पाँच स्थायी सदस्यों में से कोई उस प्रस्ताव का विरोध (वीटो) न करे.
यह प्रस्ताव यहाँ से पास हो जाता, तो उसे 193 सदस्यों वाली महासभा के सामने रखा जाता, जहाँ से इस प्रस्ताव के आसानी से पास होने की संभावना थी. इस प्रस्ताव के पक्ष में 15 सदस्यों वाली सुरक्षा परिषद में 12 वोट पड़े. ब्रिटेन और स्विट्जरलैंड वोटिंग से दूर रहे और अमेरिका ने इसे वीटो कर दिया. फलस्तीन को सदस्यता देने का अमेरिका विरोधी नहीं है, पर वह मानता है कि एक सही फैसला करने के लिए यह मंच सही जगह नहीं है.
‘टू-स्टेट’ समाधान
संरा में अमेरिका के उप-राजदूत रॉबर्ट वुड ने कहा कि अमेरिका इस समस्या के ‘टू-स्टेट’ समाधान का शिद्दत से समर्थन करता है. हमारे इस वोट का मतलब यह नहीं है कि हम फलस्तीन को पूर्ण-राज्य मानने के विरोधी हैं. हम मानते हैं कि ऐसा संबद्ध पक्षों
की सीधी बातचीत के माध्यम से होना चाहिए. फलस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने अमेरिका के वीटो को अन्यायपूर्ण, अनुचित और अनैतिक बताया.
सवाल यह नहीं है कि फलस्तीन को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए या नहीं. सवाल फलस्तीन और इसराइल नाम के दो देशों के रूप में स्वीकार करने का और इस समस्या के स्थायी समाधान का है. इसके लिए दोनों पक्षों को भी एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार भी करना होगा. उसके पहले समझना यह भी होगा कि रुकावट या रुकावटें कहाँ हैं.
पिछले तीस वर्षों में स्थितियाँ बिगड़ती चली गई. इसके पीछे एक तरफ इसराइली उग्र-राष्ट्रवाद और दूसरी तरफ फलस्तीनियों के बीच पनपे सशस्त्र-संगठन हमास की भूमिका है, जबकि समझौतों के लिए मध्यमार्गी विचारों की जरूरत होती है.
ताज़ा पहल
पिछले साल 7 अक्तूबर को गज़ा में हमास के हमले के ठीक पहले खबरें थीं कि अमेरिकी-पहल पर अरब देशों और इसराइल के बीच समझौते की बातें हो रही हैं. अभी यह स्पष्ट नहीं है कि उन बातों में फलस्तीन के समाधान की भी कोई बात थी या नहीं. मूलतः वह इसराइल-अरब रिश्तों में सुधार की पहल थी, पर मानकर चलिए कि अरब देश भी फलस्तीन से यों ही पल्ला नहीं झाड़ लेंगे.
अब अगला सवाल है कि समाधान से हमारा आशय क्या है? समाधान तभी संभव है, जब इस इलाके का जनमत इसके पक्ष में हो और वैश्विक-शक्तियाँ उससे सहमत हों. यानी कि आमराय बने. अन्यथा एक पक्ष समझौते का प्रयास करेगा, तो दूसरा उसमें अड़ंगा लगा देगा, जैसाकि अबतक होता आया है.
समाधान के मायने क्या?
इस समस्या के दो तरह के समाधान संभव हैं. पहला, गज़ा, इसराइल और पश्चिमी किनारे को मिलाकर एक ऐसा देश (वन स्टेट सॉल्यूशन) बने जिसमें फलस्तीनी और यहूदी दोनों मिलकर रहें और दोनों की मिली-जुली सरकार हो. सिद्धांततः यह आदर्श स्थिति है, पर व्यावहारिक नहीं. पहली अड़चन तो तभी खड़ी हो जाएगी, जब सवाल होगा कि शासन किसका होगा, क्या अलग-अलग स्वायत्त इलाके होंगे, यरुसलम का क्या होगा वगैरह.
दूसरा है ‘टू स्टेट’ समाधान यानी एक देश इसराइल और दूसरा फलस्तीन बने. यह कमोबेश 1947 के संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव जैसा ही है. उस व्यवस्था में यरुसलम को स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय नगर बनना था. अब क्या यह संभव होगा? इसराइल ने 1948 में हुए पहले युद्ध में यरुसलम शहर के पश्चिमी हिस्से पर कब्जा कर लिया और पूर्वी हिस्सा जॉर्डन के अधीन रहा.
1967 की लड़ाई में इसराइल ने पूर्वी यरुसलम पर भी कब्जा कर लिया. इसके बाद उसने अपनी बस्तियाँ पूर्वी वहाँ बसा दीं. इसी हिस्से में हरम-अस-शरीफ स्थित है, जिसमें अल-अक़्सा मस्जिद भी है. यहीं पर डोम ऑफ द रॉक (कुब्बत अल-सख़रा) है. इसी परिसर में यहूदियों का टेंपल माउंट स्थित है.
संरा की स्कीम
1947 में फलस्तीन में इसराइल की स्थापना से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के फैसले की पूर्व संध्या पर, इस इलाके में करीब साढ़े 13 लाख फलस्तीनी अरब और लगभग साढ़े छह लाख यहूदी निवास कर रहे थे. यहूदियों के पास फलस्तीन की करीब छह फीसदी ज़मीन थी.
संरा महासभा ने जो नक्शा जारी किया था, उसमें यहूदी राज्य को करीब 56 फीसदी ज़मीन दी गई थी. 14 मई 1948 को इसराइल ने इस प्रस्ताव को मानते हुए अपनी स्थापना की घोषणा कर दी. पर फलस्तीनियों और पड़ोसी अरब देशों ने इस प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया. उन्होंने इसराइल के इस नए राज्य पर हमला कर दिया, पर वे हार गए.
इसके बाद से इसराइल का नक्शा बदलता ही गया है. 1948 की हार के बाद आधे फ़लस्तीनी (लगभग साढ़े सात लाख) अपने ही देश के अंदर और बाहर शरणार्थी बन गए. आज उनकी संख्या तीस लाख से अधिक है. उन्हें अपने पुराने घरों में लौटने की कोई उम्मीद नहीं है. ऐसा भी नहीं कि पड़ोसी अरब देश उन्हें अपने नागरिक बना लें. वे इन देशों में शरणार्थी के रूप में रहते हैं.
निरंतर लड़ाई
1948 में अपनी हार के बाद, अरब देशों ने इसराइल के खिलाफ युद्ध जारी रखा और वे लगातार हारते रहे. इसराइल अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाता रहा. अंततः, समझौते की संभावना बनी 1978 में, जब मिस्र के साथ कैंप डेविड समझौता हुआ. इसकी परिणति 1993-95 के इसराइल और फलस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के ओस्लो समझौते के रूप में हुई.
उम्मीद थी कि ओस्लो समझौते की बिना पर जो फलस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण (अथॉरिटी) बनेगा वही फलस्तीनी राष्ट्र बन जाएगा. पर ऐसा हुआ नहीं. एक तरफ इसराइल ने नए इलाकों में बस्तियाँ बनाना जारी रखा, वहीं फलस्तीनी अथॉरिटी सफल साबित नहीं हुई.
इसराइल के साथ हुए समझौते के कारण जॉर्डन या यर्दन नदी के पश्चिमी किनारे पर फलस्तीनी प्राधिकरण (अथॉरिटी) का नियंत्रण महमूद अब्बास के फतह समूह के हाथ में आ गया. उधर फलस्तीनियों का आंदोलन (इंतिफादा) चलता रहा. पहला इंतिफादा 1987 में शुरू हुआ और 1993 में खत्म. इसके बाद 2000 में शुरू हुआ इंतिफादा पहले से कहीं ज्यादा खूनी था और चार साल तक चला.
इंतिफादा के दबाव में 2005 में इसराइल ने गज़ा पट्टी को भी छोड़ दिया. इस प्रकार गज़ा का प्रशासन भी अथॉरिटी के नियंत्रण में आ गया. अथॉरिटी का नियंत्रण गज़ा पर बना रहता, तब भी कोई बात थी, पर ऐसा हुआ नहीं. इस दौरान फतह ग्रुप के मुकाबिल हमास खड़ा हो गया, जो हथियारबंद है. अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और इसराइल इस समूह को आतंकवादी संगठन मानते हैं.
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )
कल पढ़ें: फलस्तीनी एकता के प्रयास और उसमें रुकावटें