अमेरिकी सेना की वापसी के बाद खौफ का गुबार गहराने की आशंका

Story by  क़ुरबान अली | Published by  [email protected] | Date 31-08-2021
अमेरिकी सेना की वापसी के बाद खौफ का गुबार गहराने की आशंका
अमेरिकी सेना की वापसी के बाद खौफ का गुबार गहराने की आशंका

 

आज यानी 31 अगस्त, अफगानिस्तान से अमेरिकी और नैटो देशों के सैनिकों की वापसी का आखिरी दिन है. ऐसे में सवाल उठता है कि आने वाले दिनों में वहां हालात कैसे होंगे ? और उन हालात के लिए कौन जिम्मेदार होगा ? 

 
 
qurbanकुरबान अली  
 
 
अफगानिस्तान में तालिबान ने अमेरिका समर्थित सरकार को हटाकर भले ही वहां अपना कब्जा जमा लिया हो, लेकिन माना जा रहा है कि यह युद्ध से लहूलुहान देश में अशांति का अंत नहीं है. दोहा में हुए अमेरिका-तालिबान समझौते के बाद कुछ उम्मीदें जगी थीं कि शायद वहां लंबे समय से चल रहा युद्ध समाप्त होगा.
 
शांति की आस दिखने लगी थी, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि  अफगानिस्तान एक बार फिर से आतंकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह बनने जा रहा है. वहां गृहयुद्ध की सम्भावनाएं बढ़ गई हैं. लगता है कि बिना शर्त अमेरिकी सेना की वापसी के बाद शांति प्रयासों ने अपनी गति खो दी है.
 
अब अस्थिरता, उपद्रव और गृहयुद्ध जैसे हालात में इजाफा हुआ है. काबुल एयरपोर्ट पर आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट-खुरासान की ओर से किए गए आत्मघाती धमाकों से यह आशंका और बढ़ गई है कि अमेरिकी और नैटो देशों के सैनिकों की वहां से वापसी के बाद ये घटनाएं  और बढ़ेंगी. 
 
इस बीच अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा होने के बाद विदेशी सेनाओं के देश छोड़ने का सिलसिला जारी है. वहां से बड़ी तादाद में लोग अपने-अपने देश लौट रहे हैं. अमेरिका और नैटो सैनिकों ने अफगानिस्तान को लगभग छोड़ दिया है, लेकिन अभी भी तालिबान हुकूमत के कारण वहां के लोगों को निकालने के लिए बड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिक काबुल एयरपोर्ट पर मौजूद हैं.
 
इस बीच तालिबान ने अमेरिका को खुली धमकी दी है कि अगर अमेरिका अपने सैनिकों की वापसी में देरी करता है, तो उसको इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. तालिबान ने कहा है कि अमेरिकी सेना 31 अगस्त तक यहां से वापस चली जाए, नहीं तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. 
 
समय सीमा तक कितने लोगों को निकाला जा सकता है ?
 
अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पिछले सप्ताह कहा था  कि 14 अगस्त के बाद से अमेरिकी नागरिकों, नैटो कर्मियों और जोखिम में पड़े अफगानों सहित एक लाख दस हजार से अधिक लोगों को काबुल से निकाला गया है, जबकि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा है कि अफगानिस्तान से ब्रिटेन की सेना पूरी तरह से बाहर निकल गई है.
 
जो बाइडेन का कहना है कि अमेरिका अपने हर नागरिक को वहां से निकालना चाहता है. इसके अलावा जितना संभव होगा वह अफगान समेत उन सभी नागरिकों को वहां से निकालने की कोशिश करेगा जिनकी जान को वहां खतरा है. 
 
एक शरणार्थी पुनर्वास समूह, ‘रिफ्यूजी सेटलमेंट ग्रुप एसोसिएशन ऑफ वाॅरटाइम एलइज‘ का अनुमान है कि 250,000 अफगानों, जिनमें दुभाषिए और ड्राइवर और अन्य कार्यकर्ता शामिल हैं, जिन्होंने अमेरिकी प्रयासों में मदद की थी, को निकालने की जरूरत है.
 
इनमें से सिर्फ 62 हजार लोगों को निकाला जा सका है.तालिबान कह रहा है कि वह अफगानों पर बदले की कार्रवाई नहीं करेगा. बावजूद इसके अमेरिका के समर्थन वाली सरकार की मदद करने वालों पर हमले होने की आशंका है. उनकी जान को खतरा बताया जा रहा है. 
 
मानवीय संकट के संदर्भ में क्या है नीति ?

अमेरिका, उसके सहयोगियों और संयुक्त राष्ट्र को यह तय करना होगा कि अफगानिस्तान में एक आसन्न मानवीय आपदा से कैसे निपटा जाए ? संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 18 मिलियन से अधिक लोगों को यानि अफगानिस्तान की आधी से अधिक आबादी को सहायता की जरूरत है. वहां पांच साल से कम उम्र के सभी अफगान बच्चे गंभीर कुपोषण से पीड़ित हैं.
 
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि काबुल हवाई अड्डे पर तालिबान द्वारा सहायता को अवरुद्ध किए जाने के बाद अफगानिस्तान में उसके पास केवल एक सप्ताह तक चलने के लिए सप्लाई है. यह चिंता का विषय है.
 
अफगानिस्तान में हुए व्यापक उथल-पुथल से कोरोनो वायरस संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाएगा.तालिबान ने संयुक्त राष्ट्र को आश्वासन दिया है कि वह मानवीय कार्यों को आगे बढ़ा सकता है, लेकिन विश्व समुदाय वहां महिलाओं के अधिकारों और सभी नागरिकों तक पहुंच पर जोर देगा.
 
जब महिलाओं के अधिकारों, प्रेस की स्वतंत्रता, चुनाव सुधार और 2004 के संविधान की गारंटी और  अन्य स्वतंत्रताओं की बात आती है, तो तालिबान ने अक्सर कहा है कि वह एक ‘‘वास्तविक इस्लामी प्रणाली’’ चाहता है, जो अफगान परंपरा के अनुरूप  हो, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इसका वास्तव में क्या अर्थ है. यह उनके पिछले नियम (1996-2001) से कितना भिन्न होगा.
 
तालिबान द्वारा सत्ता का सैन्य अधिग्रहण भी अफगानिस्तान में युद्ध के अंत को चिह्नित नहीं कर सकता है. बहु-जातीय और विविध समाजों में शांति और स्थिरता केवल सह-अस्तित्व, सर्वसम्मति और समावेश के माध्यम से सुनिश्चित की जा सकती है - प्रभुत्व और शून्य-सम राजनीति से नहीं.
 
इस क्षेत्र के देशों के अलग-अलग हित तालिबान के खिलाफ बढ़ते स्थानीय असंतोष को बढ़ावा दे सकते हैं. जैसा 1990 के दशक के अंत में अनुभव किया गया था और जो बदले में, खूनी और विनाशकारी युद्ध को  बढ़ावा  दे सकता है.
 
नॉर्दर्न अलायंस भी तालिबान को शांति से नहीं बैठने देगा

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि तालिबान ने भले ही अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया है, लेकिन अब भी पंजशीर घाटी से वह दूर है.यहां नॉर्दर्न अलायंस का कब्जा है. इस संगठन ने ही 1996 से 2001 के दौरान तालिबान से मोर्चा लिया था.
 
यहां मुख्य तौर पर उज्बेक और ताजिक मूल के लोगों की आबादी है. इसका नेतृत्व फिलहाल अहमद मसूद के हाथों में है. इसके अलावा देश के पूर्व  उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह का भी इसे समर्थन प्राप्त है. यह अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से ऐसा इकलौता राज्य है, जहां तालिबान कब्जा नहीं कर सका है.
 
आईएसआईएस (के) भी  तालिबान का कट्टर दुश्मन

पिछले सप्ताह काबुल एयरपोर्ट पर हुए भीषण हमले की जिम्मेदारी लेने वाला खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट खुरासान (आईएसआईएस-के) भी अफगानिस्तान में अशांति की बड़ी वजह बन सकता है. यह संगठन तालिबान की तरह ही कट्टर सुन्नी इस्लामिक है.
 
लेकिन कई मुद्दों पर इसके तालिबान से मतभेद हैं. यह आतंकी संगठन आईएस के सरगना रहे अबू बकर अल-बगदादी को अपना नेता मानता रहा है जिसने बीते सालों में कई खूंखार हमले कराए थे. अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी को लेकर अमेरिका और तालिबान के बीच हुई डील का भी यह विरोध करता रहा है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसके लड़ाकों की संख्या 500 से 10,000 के करीब है.
 
अलकायदा के फिर से उभरने का खतरा

भले ही तालिबान ने अपने राज में आतंकी संगठनों को न उभरने देने और अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी और देश के खिलाफ न होने देने की बात कही है, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक तालिबान के हक्कानी ग्रुप का अलकायदा से करीबी रिश्ता है.
 
तालिबान के दोबारा अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के बाद अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को आशंका है कि चूंकि तालिबान अपनी धार्मिक विचारधारा पर सख्ती के साथ अमल करते हैं और किसी भी अन्य धर्म, विचारधारा या संस्था के साथ किसी तरह का संबंध नहीं रख सकते,इसलिए वे दोबारा जिहाद और आतंकवाद को बढ़ावा देंगे जिससे विश्व शांति और सुरक्षा को खतरा पैदा होगा.
 
उनके सत्ता में रहते हुए अल कायदा और अन्य आतंकवादी संगठन मजबूत होंगे जिससे क्षेत्र में असुरक्षा, अस्थिरता और अशांति का माहौल बनेगा. पिछले सप्ताह तालिबान बिन लादेन को अमेरिकी हमला मामले में क्लीनचिट भी दे चुके हैं. 
 
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और बीबीसी में रहते हुए अफगान और इराक युद्ध कवर कर चुके हैं)