तुर्की में एर्दोगान का रसूख बरकरार

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 17-05-2023
तुर्की में एर्दोगान का रसूख बरकरार
तुर्की में एर्दोगान का रसूख बरकरार

 

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एक तरफ भारत के कर्नाटक राज्य के चुनाव परिणाम आ रहे थे, दूसरी तरफ तुर्की और थाईलैंड के परिणाम भी सामने आ रहे हैं, जिनका वैश्विक मंच पर महत्व है. तुर्की के राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों के अनुमान सही साबित नहीं हुए हैं. अब सबसे ज्यादा संभावना इस बात की है कि रजब तैयब एर्दोगान एकबार फिर से राष्ट्रपति बनेंगे और अगले पाँच साल उनके ब्रांड की राजनीति को पल्लवित-पुष्पित होने का मौका मिलेगा.

थाईलैंड के चुनाव परिणामों पर भारत के मीडिया ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया है, पर लोकतांत्रिक-प्रक्रिया की दृष्टि से वे महत्वपूर्ण परिणाम है. वहाँ सेना समर्थक मोर्चे की पराजय महत्वपूर्ण परिघटना है. खासतौर से यह देखते हुए कि थाईलैंड के पड़ोस में म्यांमार की जनता सैनिक शासन से लड़ रही है. पहले तुर्की के घटनाक्रम पर नज़र डालते हैं.

एर्दोगान की सफलता

तुर्की में हालांकि एर्दोगान को स्पष्ट विजय नहीं मिली है, पर पहले दौर में उनकी बढ़त बता रही है कि उनके खिलाफ माहौल इतना खराब नहीं है, जितना समझा जा रहा था. हालांकि 88प्रतिशत के रिकॉर्ड मतदान से यह भी ज़ाहिर हुआ है कि तुर्की के वोटर की दिलचस्पी अपनी राजनीति में बढ़ी है.

अब 28 मई को दूसरे दौर का मतदान होगा. पहले दौर एर्दोगान और उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी कमाल किलिचदारोग्लू दोनों में से किसी एक को पचास फ़ीसदी से ज्यादा वोट नहीं मिले हैं. एर्दोगान को 49.49 फ़ीसदी और किलिचदारोग्लू को 44.79 फ़ीसदी वोट मिले हैं. अगले दौर में शेष प्रत्याशी हट जाएंगे और मुकाबला इन दोनों के बीच ही होगा.

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तीसरे प्रत्याशी राष्ट्रवादी सिनान ओगान को 5.2 फ़ीसदी के आसपास वोट मिले हैं. अब वे चुनाव से हट जाएंगे. देखना होगा कि वे दोनों में से किसका समर्थन करते हैं. हाल में उन्होंने कहा था कि वे सरकार में मंत्रियों के पदों को पाने में दिलचस्पी रखते हैं.

वहाँ की संसद ही प्रधानमंत्री और सरकार का चयन करती है. संभव है कि एर्दोगान के साथ उनकी सौदेबाजी हो. 2018के चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे मुहर्रम इंचे ने मतदान के तीन दिन पहले ख़ुद को दौड़ से बाहर कर लिया था.

देश की नई दिशा

अब उस चुनाव में केवल इतना ही तय नहीं होगा कि तुर्की का राष्ट्राध्यक्ष कौन बनेगा, बल्कि कुछ सिद्धांत भी तय होंगे. मसलन तुर्की आंतरिक और वैश्विक राजनीति की दिशा साफ होगी. राष्ट्रपति एर्दोगान की पार्टी का नाम एकेपी (जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी) है.

उनके मुकाबले छह विरोधी दलों ने संयुक्त रूप से चुनाव लड़ने का फैसला किया है और पीपुल्स रिपब्लिकन पार्टी (सीएचपी) के कमाल किलिचदारोग्लू को अपना प्रत्याशी बनाया है. उन्हें कुर्द-पार्टी एचडीपी का भी समर्थन हासिल है.

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देश में 600 संसदीय सीटों के लिए भी मतदान हुआ है. सरकारी समाचार एजेंसी एए के अनुसार, 95 फ़ीसदी से अधिक वोटों की गिनती होने तक एकेपी को 35 फ़ीसदी वोट मिले हैं. इसके पहले पार्टी को 40 फ़ीसदी से ज्यादा वोट मिलते रहे हैं.

तुर्की में आनुपातिक प्रतिनिधित्व है. यानी कि प्रत्याशी सीधे जीतकर नहीं आते हैं, बल्कि जिस पार्टी को जितने प्रतिशत वोट मिलते हैं, उतने प्रतिशत सीटें मिलती हैं.

इसबार 600 की संसद में एकेपी को 300

से कम सीटें मिलेंगी. नतीजों का संकेत है कि एकेपी के पास 366सांसद होंगे. अलबत्ता उसका जिन तीन पार्टियों के साथ गठबंधन है, उन्हें 55सीटें मिलने की संभावना है. इससे एर्दोगान के गठबंधन को 321 सीटों के साथ संसद में बहुमत मिल जाएगा.

दूसरी तरफ छह दलों के विरोधी गठबंधन को 213सीटें मिलने की संभावना है. कुर्दों की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के गठबंधन को 66सीटें मिलने की संभावना है.

महंगाई या प्रतिष्ठा ?

बहरहाल चुनाव परिणामों से कुछ बातें स्पष्ट हो रही हैं. राष्ट्रपति एर्दोगान अपने मतदाताओं को यह समझाने में कामयाब हुए हैं कि इस चुनाव का वास्ता 43फीसदी की मुद्रास्फीति, महंगाई वगैरह से नहीं था, बल्कि राष्ट्रीय पहचान, गौरव और अस्मिता से जुड़ा था.

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एर्दोगान ने अब तक के विशालतम युद्धपोत, पाँचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान, पहली इलेक्ट्रिक कार और रूस की सहायता से बने नाभिकीय संयंत्र को प्रतीक रूप में पेश किया है. उन्होंने अपने भाषणों में यह भी कहा कि विरोधी गठबंधन को कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) का समर्थन प्राप्त है, जो अलगाववादी प्रतिबंधित संगठन है.

इतना ही नहीं विरोधियों को गुलेन संप्रदाय का समर्थन भी प्राप्त है, जिसपर 2016में हुए तख्ता-पलट के प्रयासों का आरोप है. अब देखना यह है कि कमाल किलिचदारोग्लू जनता का ध्यान महंगाई और आर्थिक-संकट की ओर खींच पाते हैं या नहीं.

थाईलैंड में लोकतंत्र

थाईलैंड की प्रोग्रेसिव मूव फॉरवर्ड पार्टी ने 15मई को हुए चुनाव में एक दशक से देश पर काबिज फौज-समर्थक पार्टियों का सफाया कर दिया है। जनता ने सेना के समर्थन से चल रही सरकार के खिलाफ वोट देकर एक तरह से सेना को तगड़ा झटका दिया है.

थाईलैंड में राजशाही अपमान कानून में सुधार, साफ-सफाई जैसे मुद्दों पर वोट मांगे गए थे। साथ ही संस्थागत सुधार के वायदे किए गए थे। पूरे परिणाम आने में कुछ समय लगेगा, अलबत्ता मूव फॉरवर्ड पार्टी और फियू थाई पार्टी को बहुमत मिलने जा रहा है.

इन पार्टियों ने जीत भले ही हासिल कर ली है, पर देश की व्यवस्था में सेना की भूमिका बनी रहेगी। सेना ने ऐसी व्यवस्था बनाई गई है कि वहां चुनाव के बाद 250सदस्यों वाले सीनेट का भी समर्थन पाना होगा. सीनेट ही प्रधानमंत्री और सरकार का चुनाव करती है. सीनेट के सदस्यों का चुनाव नहीं होता है. वे सेना द्वारा नियुक्त किए जाते हैं.

प्रधानमंत्री प्रयुत चान-ओचा की पार्टी के खिलाफ दो विरोधी दल मूव फॉरवर्ड पार्टी (एमएफपी) और फियू थाई, चुनावी मैदान में थे. थाई मीडिया के अनुसार इन दोनों का गठबंधन हो सकता है. एमएफपी नेता पिता लिमजारोनरात ने कहा कि हम फियू थाई सहित छह-पार्टियों के गठबंधन की कोशिश कर रहे हैं.

एमएफपी और फू थाई को संसद की 500 में से 292 सीटों पर जीत मिली है. प्रधानमंत्री प्रयुत चान-ओचा के सेना-समर्थक दो दलों को 76 सीटें प्राप्त हुई हैं.थाईलैंड में हाल के कुछ वर्षों में देश में सैन्य तख्ता-पलट देखने को मिले हैं.

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वर्तमान पीएम प्रयुत चान-ओचा ने 2014 में सैन्य तख्ता-पलट के सहारे सत्ता हासिल की थी. उस दौरान वे थाईलैंड की सेना के कमांडर-इन-चीफ थे. तख्ता-पलट के बाद वह देश के प्रधानमंत्री बन गए.

देश में लोकतंत्र की स्थापना आसान नहीं है, क्योंकि सेना ने संविधान में कुछ ऐसी व्यवस्थाएं कर दी हैं, जिन्हें ठीक करने के लिए संसद में बड़े बहुमत की जरूरत है. करीब-करीब ऐसा ही म्यांमार में है. बहरहाल वोटर ने अपना फैसला सुना दिया है. व्यवस्था कायम करने की जिम्मेदारी राजनीति पर है.

थाईलैंड की राजनीति में राजशाही समर्थकों ‘यलो शर्ट्स’ और थाकशिन शिनवात्रा के समर्थकों (रेड शर्ट्स) की प्रतिस्पर्धा रही है. अब वहाँ नई लिबरल युवा-शक्ति का उदय हुआ है, जो राजशाही और सेना की राजनीतिक भूमिका में बदलाव लाना चाहती है.

इसका नाम है मूव फॉरवर्ड पार्टी, जिसका नेतृत्व टेक्नोलॉजी सेक्टर के बड़े अधिकारी रह चुके 42 वर्षीय पिता लिमजारोनरात कर रहे है। वे हारवर्ड के ग्रेजुएट हैं. वहीं, फिऊ थाई का नेतृत्व पेतोंगतार्न शिनवात्रा कर रही हैं, जो पूर्व प्रधानमंत्री थाकशिन शिनवात्रा की बेटी हैं.

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )

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