'ईद-ए-अलीग' और सर सैयद अहमद खान

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 17-10-2024
'Eid-e-Alig' and Sir Syed Ahmed Khan
'Eid-e-Alig' and Sir Syed Ahmed Khan

 

jasim प्रो. (डॉ.) जसीम मोहम्मद

“ सदमे  उठाए  रंज  सहे  गालियाँ  सुनीं
लेकिन न छोड़ा क़ौम के ख़ादिम ने अपना काम
दिखला दिया ज़माने को ज़ोरे- दिलो-ओ दिमाग़
बतला  दिया  कि  करते हैं यूँ करनेवाले काम ”

(अकबर इलाहाबादी, सर सैयद की मृत्यु पर)

सर सैयद अहमद खान का अक़ीदा था कि हिंदुस्तान में हिंदू-मुसलमान दो बड़ी क़ौमें रहती हैं, जिनके बीच आपसी सौहार्द, समन्वय, प्रेम और भाईचारा बने रहना चाहिए. हिंदुस्तान की तरक़्क़ी के लिए यह ज़रूरी भी है. जनवरी 1883 को पटना में दिए गए भाषण में सर सैयद अहमद खान ने कहा, "भारत एक दुल्हन की तरह है, जिसकी दो खूबसूरत और चमकदार आंखें हैं - हिंदू और मुसलमान. अगर वे एक-दूसरे से झगड़ते हैं,

तो वह खूबसूरत दुल्हन बदसूरत हो जाएगी और अगर कोई दूसरे को नष्ट कर दे, तो वह अपनी एक आंख खो देगी." यकीनन सर सैयद अहमद खान लोगों को एक साथ लाने में विश्वास करते थे. चाहे उनका धर्म कोई भी हो. 27 जनवरी, 1884 को गुरदासपुर में दिए गए भाषण में उन्होंने सभी से भारत में अपने साझा घर को याद रखने को कहा.
 

उन्होंने कहा: "हे हिंदुओं और मुसलमानों, क्या तुम भारत के अलावा किसी और देश में रहते हो? क्या तुम दोनों एक ही भूमि पर नहीं रहते हो और क्या तुम इस भूमि पर दफन नहीं होते या इस भूमि के घाटों पर दाह संस्कार नहीं करते? तुम यहीं जीते हो और यहीं मरते हो. इसलिए याद रखो कि हिंदू और मुसलमान धार्मिक महत्व के शब्द हैं. अन्यथा इस देश में रहने वाले हिंदू, मुसलमान और ईसाई एक राष्ट्र हैं." 

अलीग बिरादरी हर साल 17 अक्टूबर को दुनिया भर में सर सैयद दिवस मनाती है. यह दिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खान की जयंती का प्रतीक है . इसे 'ईद-ए-अलीग' के नाम से भी जाना जाता है.

हर वर्ष के होनेवाले समारोह भव्यता और उत्साह से भरे होते हैं. हालाँकि, लोग अक्सर सर सैयद के समाज में अन्य योगदानों को अनदेखा करते हैं. केवल अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना में उनकी भूमिका पर ध्यान केंद्रित करते हैं.

17 अक्टूबर, 1817 को जन्मे सर सैयद अहमद खान को मुस्लिम शिक्षा का उद्धारकर्ता माना जाता है. वह ऐसे समय में रहते थे, जब पारंपरिक और आधुनिक शिक्षा प्रणाली मिश्रित थी, जो अक्सर धार्मिक शिक्षा में बदल जाती थी.

लोगों को नई शिक्षा प्रणाली को स्वीकार करने के लिए राजी करना, धार्मिक मान्यताओं में गहराई से निहित समाज में एक नए विश्वास को पेश करने जैसा था. 1835 में, अधिकांश मुस्लिम समुदाय ने नई ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के खिलाफ एक याचिका दायर की, जिसमें उन्हें डर था कि इससे पूरे देश का ईसाई धर्म में धर्मांतरण हो जाएगा.

इसके बावजूद, सर सैयद भारतीयों के लिए अंग्रेजी शिक्षा के लाभों को देखनेवाले पहले व्यक्ति थे. हालाँकि वे ब्रिटिश शासन का विरोध करने में विश्वास करते थे, लेकिन आधुनिकीकरण का सम्मान करते हुए उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का विरोध नहीं किया.

सर सैयद अहमद खान ने 1859 में मुरादाबाद में एक मदरसा स्थापित किया, जिसमें धार्मिक शिक्षा के साथ आधुनिक शिक्षा को भी शामिल किया गया. बाद में, 1863 में, उन्होंने गाजीपुर में एक और मदरसा स्थापित किया, जिसे अंततः विक्टोरिया हाई स्कूल के रूप में जाना जाता है.

शैक्षिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए, उन्होंने 'साइंटिफिक सोसाइटी' भी बनाई. हालाँकि, जब वे 1865 में अलीगढ़ चले गए, तो उन्होंने साइंटिफिक सोसाइटी को स्थानांतरित कर दिया और इसका नाम बदलकर 'साइंटिफिक सोसाइटी अलीगढ़' रख दिया.

मुस्लिम समुदाय के शैक्षिक पिछड़ेपन को पहचानने के बाद, सर सैयद ने अपने समुदाय को पश्चिमी शिक्षा से जोड़ने का लक्ष्य रखा। उन्होंने शोध किया कि वे सरकारी स्कूलों से क्यों बच रहे थे और पाया कि इसका मुख्य कारण अंग्रेजी शिक्षा का गहरा डर था.

उनकी प्रगति में मदद करने के लिए दृढ़ संकल्पित, उन्होंने उन्हें आधुनिक शिक्षा प्रणाली में एकीकृत करने के लिए काम किया. सर सैयद अहमद खान समझते थे कि भारतीय कला और विज्ञान में पश्चिमी ज्ञान की मदद से अधिक ऊंचाइयों तक पहुँच सकते हैं.

हालाँकि, उनका रास्ता कठिन था. उन्हें आलोचना, कठोर फटकार और निंदा का सामना करना पड़ा. धार्मिक नेताओं और समुदाय के अन्य रूढ़िवादी सदस्यों ने उन पर लोगों को गुमराह करने का आरोप लगाया. उनका मानना था कि अंग्रेजी शिक्षा मुसलमानों को उनके धर्म से दूर कर देगी और उनके दिमाग को भ्रष्ट कर देगी. कुछ लोग तो उन्हें नास्तिक तक कहने लगे. इसके बावजूद, सर सैयद अपने दृढ़ निश्चय और ध्यान के साथ अपने मिशन में दृढ़ रहे.

 उन्होंने आगे बढ़ना जारी रखा. इसमें दृढ़ रहे. उन्होंने आम जनता के लिए शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक समिति बनाई. हालांकि समूह को कड़े विरोध का सामना करना पड़ा. आलोचकों ने दावा किया कि अंग्रेजी शिक्षा एक ऐसी पीढ़ी तैयार करेगी, जिसमें विश्वास और नैतिक मूल्यों की कमी होगी.

फिर भी, सर सैयद और उनके समर्थकों ने कभी उम्मीद नहीं छोड़ी. उनके लगातार प्रयासों से अंततः 1875 में 'मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज' (एमएओ कॉलेज) की स्थापना हुई, जो बाद में 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बन गया.

सर सैयद ने वहाँ की शिक्षा प्रणाली का बारीकी से अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड की यात्रा की थी. एक प्रसिद्ध वास्तुकार के ख़र्चों को वहन करने में असमर्थ होने के कारण, उन्होंने खुद कॉलेज की इमारतों के लिए डिज़ाइन तैयार की. 

उनका विज़न ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज की तर्ज पर एक संस्थान बनाना था. उन्होंने 1872 में एक लेख में इस दृष्टिकोण को साझा किया, जिसे 1911 में अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट (एक प्रकाशन जिसे वे 1866 से चला रहे थे) में पुनः प्रकाशित किया गया था.

एमएओ कॉलेज की स्थापना के बाद, सर सैयद ने संस्थान को बनाए रखने के लिए वित्तीय सहायता की तत्काल आवश्यकता को पहचाना. उन्होंने कई प्रमुख व्यक्तियों को पत्र लिखे और घर-घर जाकर दान मांगा. उनका दृढ़ संकल्प इससे भी आगे बढ़ गया.

वे नौटंकी के प्रदर्शन के दौरान मंच पर भी गए, और लोगों से बच्चों की शिक्षा के लिए सिर्फ एक रुपया दान करने का आग्रह किया.एक अवसर पर, जब उन्होंने दान माँगा, तो एक महिला ने गुस्से में उन पर एक घिसी हुई चप्पल फेंक दी. सर सैयद ने शांति से इसे स्वीकार किया. चप्पल की मरम्मत की.

इसे बाजार में बेच दिया, जिससे प्राप्त धनराशि दान के रूप में इस्तेमाल हुई. उन्होंने इस दान की रसीद भी महिला को भेजी. कई बार अपमान  का सामना करने के बावजूद, सर सैयद अपने मिशन से कभी नहीं डगमगाए. ऐसा कोई लगन और अपनी धुन का पक्का जनूनी व्यक्ति ही कर सकता है. 

सर सैयद अहमद खान न केवल एक शिक्षक थे, एक बेहतरीन लेखक भी थे. 1857 के विद्रोह के बाद, उन्होंने ‘अस्बाब-ए-बगावत-ए-हिंद’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि विद्रोह का असली कारण सैनिकों में असंतोष और असंतोष था, जिसने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ देशव्यापी विद्रोह को जन्म दिया.

पुस्तक में कारणों के उनके विश्लेषण पर व्यापक रूप से चर्चा हुई और अंततः सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया. सर सैयद की साहित्यिक प्रतिभा उनकी दूसरी रचना ‘असर-उस-सनदीद’ में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है. दिल्ली में मुंसिफ के रूप में सेवा करते हुए, उन्होंने दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों की ऐतिहासिक इमारतों पर शोध करने का फैसला किया.

हालाँकि यह एक कठिन काम था, लेकिन उन्होंने इसे पूरा करने का दृढ़ संकल्प लिया. कई इमारतें इतनी खराब स्थिति में थीं कि शिलालेख पढ़ने योग्य नहीं थे और कुछ खंडहर में तब्दील हो गए थे. इन संरचनाओं के आयामों को मापना और शिलालेखों की प्रतियों को पुन: प्रस्तुत करना एक चुनौतीपूर्ण प्रयास था.

इन चुनौतियों से निपटने के लिए, सर सैयद ने कार्य की ज़रूरतों के आधार पर विभिन्न तकनीकों का इस्तेमाल किया. उदाहरण के लिए, कुतुब मीनार की ऊँची दीवारों पर लिखे शिलालेखों को पढ़ने के लिए, वे शिलालेखों के बराबर में दो मचानों के बीच लटकी एक टोकरी में बैठते थे.

उन्हें उस अनिश्चित स्थिति में देखकर अक्सर उनके आस-पास के लोग चिंतित हो जाते थे. कोई भी कल्पना नहीं कर सकता था कि यह साधारण बच्चा एक दिन समुदाय का प्रमुख नेता बन जाएगा. सर सैयद ने 30 वर्षों में उल्लेखनीय सफलताएँ हासिल कीं, लेकिन यह बिना चुनौतियों के नहीं आई. उनकी शिक्षाएँ और तरीके आज भी प्रासंगिक हैं, जो एक सच्चे विद्वान का मार्ग दिखाते हैं. 

जब दुनिया भर के मुसलमान विलियम मुइर की किताब लाइफ़ ऑफ़ महोमेट का विरोध कर रहे थे, तो सर सैयद ने बहस में शामिल नहीं होने का फैसला किया. वह समझते थे कि हिंसक प्रतिक्रियाएँ धर्म और समुदाय को असहिष्णु के रूप में चित्रित करेंगी.

इसके बजाय, उन्होंने मुइर द्वारा अपनी पुस्तक में इस्तेमाल किए गए स्रोतों की पुष्टि करने के लिए इंग्लैंड की यात्रा करने का फैसला किया. हालाँकि वे आहत और दुखी थे. उन्होंने मुइर द्वारा उद्धृत सामग्रियों का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया, जो विभिन्न पुस्तकालयों और ब्रिटिश संग्रहालय में उपलब्ध थीं.

गुस्से से जवाब देने के बजाय, उन्होंने 1870 में एक विद्वत्तापूर्ण खंडन, ‘खुतबात-ए-अहमदिया’, तैयार करने में आठ साल लगा दिए. उन्होंने पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद भी करवाया, जिससे मुइर के काम से पैदा हुई गलतफहमियों का प्रभावी ढंग से मुकाबला किया जा सका.

सर सैयद सांप्रदायिक सद्भाव में दृढ़ विश्वास रखते थे. हिंदू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे. उन्होंने दोनों समुदायों को "राष्ट्र की दो आंखें" के रूप में संदर्भित किया. दार्शनिक और भिक्षु स्वामी विवेकानंद और 19वीं सदी के दार्शनिक और धार्मिक सुधारक देबेंद्रनाथ टैगोर के साथ उनके घनिष्ठ संबंध सर्वविदित हैं.

धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने के अपने प्रयास में, सर सैयद ने ईद-अल-अदहा के दौरान गोहत्या का विरोध किया, जिससे शांति और समझ को बढ़ावा मिला. कई घटनाएँ मानवता और शांति के प्रति सर सैयद की प्रतिबद्धता को उजागर करती हैं.

1873 में, एक पारसी व्यक्ति द्वारा अनूदित पुस्तक में असहनीय टिप्पणियों पर कड़ी प्रतिक्रियाएँ हुईं, जिसके जवाब में, सर सैयद ने अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट के लिए एक संपादकीय लिखा, जिसमें कहा गया कि ईशनिंदा पर हिंसक आक्रोश को कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता.

उनका मानना था कि बिना सोचे-समझे हिंसा से सिर्फ़ और सिर्फ़ संघर्ष ही बढ़ेगा. 1897 में अपनी मृत्यु से ठीक एक साल पहले, जब एक ईसाई लेखक ने पैगंबर मुहम्मद (PBUH) की चार पत्नियों की आलोचना करते हुए एक पुस्तक प्रकाशित की, तो सर सैयद ने दावों को संबोधित करने के लिए एक विद्वत्तापूर्ण खंडन लिखा.

  सर सैयद मिर्जा ग़ालिब और अकबर इलाहाबादी के समकालीन थे. उन्होंने आइन-ए-अकबरी पर अपनी टिप्पणी के लिए एक प्रस्तावना का अनुरोध करने के लिए ग़ालिब से मुलाकात की, जिसने उन पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव डाला. अपनी मुलाकात के दौरान, ग़ालिब ने सर सैयद को समुदाय के सामने मौजूद मौजूदा परिस्थितियों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित किया.

सर सैयद की स्मृति को सिर्फ़ ‘सर सैयद दिवस’  से आगे बढ़ाया जाना चाहिए. हमें अपने कार्यों में उनके मूल्यों को अपनाना चाहिए. एक सुधारक, प्रगतिशील विचारक और मानवता के हिमायती के रूप में सर सैयद के सिद्धांत आज भी ज़रूरी हैं.

उन्होंने जो मार्गदर्शन और ज्ञान दिया, वह आज भी युवा पीढ़ी के लिए प्रासंगिक है. उन्होंने मानवता के बारे में कई अनमोल सबक दिए, जिन्हें हमें भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए अपनाना चाहिए। हालाँकि, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सर सैयद अहमद खान के बारे में कहा था:

“एक उत्साही सुधारक जो आधुनिक वैज्ञानिक विचारों को धर्म के साथ तर्कसंगत व्याख्याओं के ज़रिए समेटना चाहते थे, न कि बुनियादी विश्वास पर हमला करके. वे नई शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक थे. वे किसी भी तरह से सांप्रदायिक अलगाववादी नहीं थे. उन्होंने बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया कि धार्मिक मतभेदों का कोई राजनीतिक और राष्ट्रीय महत्व नहीं होना चाहिए.” ( डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया).

अकबर इलाहाबादी, जो शुरू में सर सय्यद अहमद खां की सोच के खिलाफ थे, उनकी मौत पर उन्हें ख़िराज़-ए- अक़ीदत पेश करते हुए ये शेर कहे थे-

“हमारी बातें ही बातें हैं सय्यद काम करता था,
ना भूलो फर्क जो है कहने और करने वाले में!
कोई कुछ भी कहे हम तो यही कहते हैं ऐ अकबर
ख़ुदा बख्शे बहुत सी खूबियां थी मरने वाले में!!”

(लेखक तुलनात्मक साहित्य में प्रोफेसर और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व मीडिया सलाहकार हैं.)