आज़ादी के सपने-09 : खुशहाली की राहों में हम होंगे कामयाब

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 15-08-2023
Part of the film Mother India changing India
Part of the film Mother India changing India

 

प्रमोद जोशी

कई साल से देश में एक कहावत चल रही है, ‘सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान.’ यह बात ट्रकों के पीछे लिखी नजर आती है. यह एक प्रकार का सामाजिक अंतर्मंथन है कि हम अपना मजाक उड़ाना भी जानते हैं. दूसरी तरफ एक सचाई की स्वीकृति भी थी.  

हताश होकर हम अपना मजाक उड़ाते हैं. पर हम विचलित हैं, हारे नहीं हैं. सच यह है कि भारत जैसे देश को बदलने और एक नई व्यवस्था को कायम करने के लिए 76 साल काफी नहीं होते. खासतौर से तब जब हमें ऐसा देश मिला हो, जो औपनिवेशिक दौर में बहुत कुछ खो चुका हो. 
 
मदर इंडिया

फिल्म ‘मदर इंडिया’ की रिलीज के कई दशक बाद एक टीवी चैनल के एंकर इस फिल्म के एक सीन का वर्णन कर रहे थे, जिसमें फिल्म की हीरोइन राधा (नर्गिस) को अपने कंधे पर रखकर खेत में हल चलाना पड़ता है. 
 
चैनल का कहना था कि हमारे संवाददाता ने महाराष्ट्र के सतारा जिले के जावली तालुक के भोगावाली गाँव में खेत में बैल की जगह महिलाओं को ही जुते हुए देखा तो उन्होंने उस सच को कैमरे के जरिए सामने रखा, जिसे देखकर सरकारें आँख मूँद लेना बेहतर समझती हैं. 
 
1957 में रिलीज़ हुई महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं. स्वतंत्रता के ठीक दस साल बाद बनी इस फिल्म की कहानी के परिवेश और पृष्ठभूमि में काफी बदलाव आ चुका है. यह फिल्म बदहाली की नहीं, बदहाली से लड़ने की कहानी है. 
 
भारतीय गाँवों की तस्वीर काफी बदल चुकी है या बदल रही है, फिर भी यह फिल्म आज भी पसंद की जाती है. टीवी चैनलों को ट्यून करें, तो आज भी यह कहीं दिखाई जा रही होगी. मुद्रास्फीति की दर के साथ हिसाब लगाया जाए तो ‘मदर इंडिया’ देश की आजतक की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्म साबित होगी.  
 
 
बदलाव की इच्छा

क्या वजह थी इस फिल्म के हिट होने की? आजादी के बाद के पहले दशक के सिनेमा की थीम में बार-बार भारत का बदलाव केंद्रीय विषय बनता था. इन फिल्मों की सफलता बताती है कि बदलाव की इच्छा देश की जनता के मन में थी, जो आज भी कायम है.
 
‘मदर इंडिया’ निराशा नहीं आशा लेकर आई थी. उसकी कथावस्तु सकारात्मक थी. फिल्म की शुरुआत नई नहर के उद्घाटन से होती है, जिसके सहारे राधा अपने अतीत में चली जाती है. यह कहानी गरीबी से और हालात से परेशान राधा के संघर्ष को बयान करती है. साथ ही उसका सामना गाँव के सूदखोर सुक्खी लाला से होता है. 
 
महबूब ने इस फिल्म का नाम रखने के पहले सरकार से इसकी अनुमति ली थी, क्योंकि तबतक यह नाम ‘भारत माँ’ का समानार्थी नहीं बना था. महबूब ने इसे समानार्थी बनाया. उन्हें इस फिल्म की प्रेरणा अमेरिकी लेखिका पर्ल एस बक की कृतियों ‘द गुड अर्थ’ (1931) और ‘द मदर’ (1933) से मिली थी.
 
नया भारत 

सन 1957 में यह फिल्म जिस नए भारत के आगमन का संदेश दे रही थी, क्या वह 76 साल बाद वह साकार हो पाया है? ‘मदर इंडिया’ के कई रूपक और प्रतीक आज के भारत में देखे जा सकते हैं, पर यह कहना भी ठीक नहीं कि पिछले 76 साल में कुछ भी नहीं बदला है. और सब ठीक रहा तो आने वाले वक्त में कहानी बदलेगी.
 
दो साल पहले जब नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे (एनएफएचएस) के पाँचवें दौर के परिणाम प्रकाशित हुए, तब ग्रामीण महिलाओं के बारे में एक नई तरह की जानकारी की ओर हमारा ध्यान गया. इस सर्वेक्षण में पहली बार यह पूछा गया था कि क्या आपने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल किया है? बिहार में ऐसी महिलाओं का प्रतिशत सबसे कम था, जिनकी इंटरनेट तक पहुंच है (20.6%) और सिक्किम में सबसे ज्यादा (76.7%). 
 
इंटरनेट की भूमिका

इस डेटा ने हमें बताया कि स्त्रियों के सशक्तीकरण के संदर्भ में हमें परंपरागत बातों के अलावा कुछ नई बातों की तरफ भी ध्यान देना होगा. मसलन इंटरनेट की भूमिका. केवल जानकारी पाने के लिए ही नहीं तमाम तरह की सेवाओं का लाभ उठाने के लिए भी अब इंटरनेट की जरूरत है. 
 
स्त्री-सशक्तीकरण पर जब भी बात होगी, हमें यह भी देखना होगा कि ब्रॉडबैंड के विस्तार की स्थिति क्या है. इसीलिए ग्रामीण-कनेक्टिविटी और ‘भारतनेट’ जैसे कार्यक्रम महत्वपूर्ण हैं. ऑप्टिकल फाइबर पूरे देश में ग्रामों को ग्राम पंचायतों/ग्राम ब्लॉकों से जोड़ रहे हैं. हाई स्पीड इंटरनेट कनेक्टिविटी प्रदान करने के लिए ‘पीएम घर तक फाइबर’ योजना पर काम इन दिनों चल रहा है. 
 
एनएफएचएस में इन सवालों को ‘महिलाओं के सशक्तीकरण’ के वर्ग में कुछ दूसरे सवालों के साथ शामिल किया गया था. दूसरे सवाल थे, क्या महिलाएं परिवार के निर्णयों का एक हिस्सा हैं, क्या उनके पास एक बैंक एकाउंट है, जमीन की मालिक हैं और उन्हें कैसे भुगतान मिला वगैरह. 
 
ग्रामीण महिलाओं के बैंक खातों का खुलना, रसोई गैस, शौचालय, बिजली, आवास, पेयजल और यहाँ तक कि प्रत्यक्ष लाभ अंतरण यानी नकदी ने बदलाव की अच्छी स्थितियाँ बनाई हैं. दो बातें साफ हैं कि सुधार की गति बढ़ी है और ग्रामीण क्षेत्रों से सुधार खासतौर से हुआ है. 
 
internet india
 
बदलाव के माध्यम

इंटरनेट अपने आप में बदलाव नहीं है, बल्कि बदलाव का उपकरण है. यह जानकारी का दायरा बढ़ाता है और लोगों को अपने अधिकारों को हासिल करने के तरीके बताता है. लोकतंत्र केवल वोट देने की प्रक्रिया नहीं है, उसमें भागीदारी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. 
 
पिछले 76 साल में हमारे पास निराशा के सैकड़ों कारण हैं तो उम्मीदों की भी कुछ किरणें हैं. विकास हुआ, संपदा बढ़ी, मोबाइल कनेक्शनों की धूम है, मोटरगाड़ियों के मालिकों की तादाद बढ़ी, हाउसिंग लोन बढ़े और ‘आधार’ जैसे कार्यक्रम को सफलता मिली. 
 
राष्ट्रीय पर्व ऐसे अवसर होते हैं जब लाउड स्पीकर पर देशभक्ति के गीत बजते हैं. क्या वास्तव में हम देशभक्त हैं? क्या हम जानते हैं कि देशभक्त माने होता क्या है? ऐसे ही सवालों से जुड़ा सवाल यह है कि आजाद होने के बाद पिछले 76 साल में हमने हासिल क्या किया है? कहीं हम पीछे तो नहीं चले गए हैं?
 
हम होंगे कामयाब

हम न जाने हम कितनी बार अंदेशों से घिरे हैं और हर बार बाहर निकल कर आए हैं. ट्रेन के सफर में आपने भी कभी उन चर्चाओं में हिस्सा लिया होगा, जो सहयात्रियों के बीच अचानक शुरू हो जाती हैं. ट्रेन के लेट चलने से लेकर बात शुरू होती है और घूम-फिरकर विदेश नीति तक जाती है. और बात का लब्बो-लुबाव निकलता है कि सब चोर हैं, मिलकर लूट रहे हैं, हम कुछ नहीं कर सकते वगैरह.
 
देखते ही देखते हम निराशा के सागर में डूब जाते हैं. ऐसी वार्ताओं में कभी कोई ऐसा बंदा भी निकलता है, जो बताता है कि हमारी ट्रेन का नेटवर्क दुनिया के सबसे बड़े नेटवर्क में से एक है. यहाँ दुनिया का सबसे सस्ता किराया है. जिस पटरी पर सत्तर साल पहले पाँच गाड़ियाँ चलती थीं, उसपर आज सौ गाड़ियाँ चलती हैं.
 
हम धक्के खा रहे हैं, पर बदलाव भी हो रहा है. सब कुछ चल रहा है, तो इसके पीछे भी कुछ लोग हैं. वे काम कर रहे हैं, तभी देश चल रहा है. बातचीत दूसरी पटरी पर चली जाती है.
 
humhonge kamyab
 
राजनीति की भूमिका 

कई बार हमें लगता है कि सारा दोष राजनीति का है. पॉलिटिक्स हमारे यहाँ गाली बन चुकी है. पर हमें राजनीति चाहिए, क्योंकि बदलाव का सबसे बड़ा जरिया राजनीति है. उससे हम बच नहीं सकते. सुधार होना है तो सबसे पहले राजनीति में होने चाहिए. 
 
वोट की राजनीति और बदलाव की राजनीति दो अलग-अलग ध्रुवों पर खड़ी है. सामाजिक टकरावों का सबसे बड़ा कारण वोट की राजनीति है. यह तबतक रहेगी, जबतक सामान्य वोटर की समझ अपने हितों को परिभाषित करने लायक नहीं होती. यह भी वक्त लेने वाली प्रक्रिया है.
 
सबसे बड़ी उपलब्धि

राजनीति को कितना भी दोष दें, पिछले सत्तर साल की उपलब्धियों में लोकतंत्र का नाम सबसे ऊपर होगा. लोकतंत्र के साथ उसकी संस्थाएं और व्यवस्थाएं दूसरी बड़ी उपलब्धि है. तीसरी बड़ी उपलब्धि है राष्ट्रीय एकीकरण. इतने बड़े देश और उसकी विविधता को बनाए रखना आसान नहीं है. चौथी उपलब्धि है सामाजिक न्याय की परिकल्पना. 
 
पिछले कई हजार साल में भारतीय समाज कई प्रकार के दोषों का शिकार हुआ है. उन्हें दूर करने के लिए हमने लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर से ऐसे औजारों को विकसित किया हो, जो कारगर हों. इसे सफल होने में एक-दो पीढ़ियाँ तो लगेंगी. 
 
पाँचवीं उपलब्धि है आर्थिक सुधार. छठी है शिक्षा-व्यवस्था. और सातवीं, तकनीकी और वैज्ञानिक विकास. हम मंगलग्रह तक पहुँच चुके हैं. इस सूची को बढ़ाया जा सकता है. इनके साथ तमाम किंतु-परंतु भी जुड़े हैं, पर इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती.
 
हम देंगे समाधान

लोकतंत्र के पास यदि वैश्विक समस्याओं का समाधान है तो वह भारत से ही निकलेगा, अमेरिका, यूरोप या चीन से नहीं. क्योंकि इतिहास के एक खास मोड़ पर हमने लोकतंत्र को अपने लिए अपनाया और खुद को गणतंत्र घोषित किया. गणतंत्र माने जनता का शासन. 
 
यह राजतंत्र नहीं है और न किसी किस्म की तानाशाही. भारत एक माने में और महत्वपूर्ण है. दुनिया की सबसे बड़ी विविधता इस देश में ही है. संसार के सारे धर्म, भाषाएं, प्रजातियाँ और संस्कृतियाँ भारत में हैं. इस विशाल विविधता को किस तरह एकता के धागे से बाँधकर रखा जा सकता है, यह भी हमें दिखाना है और हम दिखा रहे हैं.
 
धार्मिक और जातीय आधार पर राजनीति अब ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चलेगी. शिक्षा और जानकारी का प्रसार वोटर को जागरूक बनाने में कामयाब होगा. भले ही आज वह इस बात को अच्छी तरह न समझता हो कि असली सवाल हमारी जिंदगी और रोजी-रोटी से जुड़ा है. 
 
जनता की भागीदारी
 
आपराधिक छवि के प्रत्याशियों की पराजय आज नहीं हो रही है तो कल होगी. यह सब इसलिए कि जनता की भागीदारी वास्तविक अर्थ में बढ़ रही है. वह अब अँगूठा छाप जनता नहीं बनना चाहती. दुनिया के विकसित लोकतंत्र भी कभी इन्हीं स्थितियों से गुजरे हैं.
 
भारत जब लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर कदम बढ़ा रहा था उस समय सिर्फ़ गोरी नस्ल, अमीर, ईसाई और एक भाषा बोलने वाले देशों में ही सफल लोकतांत्रिक व्यवस्था मौजूद थी. भारत पहला देश है जो इन सारे गुणों से मुक्त है, फिर भी सफल लोकतंत्र है. 
 
भारत ने नागरिक को शिक्षा का अधिकार दिया और अब स्वास्थ्य के अधिकार की तैयारी है. ये सारे अधिकार प्रतीक रूप में ही हासिल हुए हैं. आने वाले दिनों में जनता इनकी व्यवहारिकता का जवाब अपनी सरकारों से माँगेगी. इन जवाबों को माँगने के लिए हमें मजबूत जनमत की जरूरत है, जो यकीनन तैयार हो रहा है. 
 
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )