आज़ादी के सपने-04 : बड़ी चुनौती, स्वस्थ और शिक्षित नागरिक

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 09-08-2023
आज़ादी के सपने-04 : बड़ी चुनौती, स्वस्थ और शिक्षित नागरिक
आज़ादी के सपने-04 : बड़ी चुनौती, स्वस्थ और शिक्षित नागरिक

 

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भारत और चीन की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया. बावजूद इसके कि पहले दो दशक की आर्थिक-संवृद्धि में हमारी गति बेहतर थी. जवाहर लाल नेहरू ने भारत में मध्यवर्ग को तैयार किया, दूसरी तरफ चीन ने बुनियादी विकास पर ध्यान दिया. समय के साथ सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य में चीन ने हमें पीछे छोड़ दिया. हमें इन दोनों के बारे में सोचना चाहिए.

कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी कम से कम तीन क्षेत्रों में नागरिकों को सबल बनाने की है. वे सबल होंगे, तो उनकी भागीदारी से देश और समाज ताकतवर होता जाएगा. ये तीन क्षेत्र हैं शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय.

सन 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा, समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत भारत आज अदा कर रहा है. नेहरू ने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा.

शायद यही वजह है कि उच्च और तकनीकी शिक्षा में हमारा प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर है. सत्तर के दशक में दो ग़रीब देश, आबादी और अर्थव्यवस्था के हिसाब से लगभग सामान थे. इनमें से एक खेलों में ही नहीं जीवन के हरेक क्षेत्र में आगे निकल गया और दूसरा काफ़ी पीछे रह गया.

इस सच को ध्यान में रखना होगा कि चीन 'रेजीमेंटेड' देश है, वहाँ आदेश मानना पड़ता है. भारत खुला देश है, यहाँ ऐसा मुश्किल है. हमारे यहाँ जो भी होगा, उसे एक लोकतांत्रिक-प्रक्रिया से गुजरना होगा. देश के अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों से विमर्श के बाद ही फैसलों को लागू किया जा सकता है.

स्वास्थ्य-चेतना

महामारी के कारण पिछले तीन साल वैश्विक स्वास्थ्य-चेतना के वर्ष थे. इस दौरान वैश्विक स्वास्थ्य-नीतियों का पर्दाफाश हुआ. भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार हमारे यहाँ बाल पोषण के संकेतक उत्साहवर्धक नहीं हैं. बच्चों की शारीरिक विकास अवरुद्धता में बड़ा सुधार नहीं है और 13राज्यों मे आधे से ज्यादा बच्चे और महिलाएं रक्ताल्पता से पीड़ित हैं.

2020मे सुप्रीम कोर्ट के एक पीठ ने स्वास्थ्य को नागरिक का मौलिक अधिकार मानते हुए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश सरकार को दिए थे. अदालत ने कहा, राज्य का कर्तव्य है कि वह सस्ती चिकित्सा की व्यवस्था करे. अदालत की टिप्पणी में दो बातें महत्वपूर्ण थीं. स्वास्थ्य नागरिक का मौलिक अधिकार है. दूसरे, इस अधिकार में सस्ती या ऐसी चिकित्सा शामिल है, जिसे व्यक्ति वहन कर सके.

महंगा इलाज

अदालत ने यह भी कहा कि इलाज महंगा और महंगा होता गया है और यह आम लोगों के लिए वहन करने योग्य नहीं रहा है. भले ही कोई कोविड-19से बच गया हो, लेकिन वह आर्थिक रूप से जर्जर हो चुका है. इसलिए सरकारी अस्पतालों मे पूरे इंतजाम हों या निजी अस्पतालों की अधिकतम फीस तय हो. यह काम आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत शक्तियों को प्रयोग करके किया जा सकता है.

देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर 1983, 2002और 2017में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियाँ बनाई गई हैं. 2017की नीति से जुड़ा कार्यक्रम है आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन-आरोग्य योजना. इसके अलावा ग्रामीण भारत से जुड़ी कई सामाजिक परियोजनाओं को शुरू किया गया है, जो खासतौर से वृद्धों, महिलाओं और निराश्रितों पर केंद्रित हैं.

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गरीबों की अनदेखी

सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में तेजी से शुरू हुआ. 1978में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अल्मा-अता घोषणा की थी-सन 2000में सबके लिए स्वास्थ्य! संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1974में अपने विशेष अधिवेशन में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की घोषणा और कार्यक्रम का मसौदा पास किया.

अल्मा-अता घोषणा में स्वास्थ्य को मानवाधिकार मानते हुए इस बात का वायदा किया गया था कि दुनिया की नई सामाजिक-आर्थिक संरचना में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सरकारें लेंगी. इतनी बड़ी घोषणा के बाद अगले दो वर्षों में इस विमर्श पर कॉरपोरेट रणनीतिकारों ने विजय प्राप्त कर ली.

1980 में विश्व बैंक ने स्वास्थ्य से जुड़े अपने पहले नीतिगत दस्तावेज में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की परिभाषा सीमित कर दी. वह चिकित्सा के स्थान पर निवारक (प्रिवेंटिव) गतिविधि भर रह गई. ऐसे में गरीबों की अनदेखी होती चली गई. 2020में जब दुनिया को महामारी ने घेरा तो हमने पाया कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं अस्त-व्यस्त हैं और निजी क्षेत्र ने मौके का फायदा उठाना शुरू कर दिया.

हर जगह वही कहानी

यह केवल भारत या दूसरे विकासशील देशों की कहानी नहीं है. फ्रांस, इटली, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे धनवान देशों का अनुभव है. हैल्थकेयर इंडस्ट्री दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ते कारोबारों में एक है. इसमें दवाओं और उपकरणों से लेकर अस्पताल और सहायक सामग्री का प्रबंधन सब शामिल है. उनसे कदम मिला रही हैं बीमा कंपनियाँ. दोनों तरह की ग्लोबल कंपनियों के साथ दुनियाभर में सहायक कंपनियों की चेन बन गई है.

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 के अनुसार सन 2025तक भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय जीडीपी का 2.5 फीसदी हो जाएगा. तेज आर्थिक विकास के बावजूद भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च  दुनिया के तमाम विकासशील देशों के मुकाबले कम है. इस खर्च में सरकार की हिस्सेदारी और भी कम है. चीन में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति व्यय भारत के मुकाबले 5.6 गुना है तो अमेरिका में 125गुना.

औसत भारतीय अपने स्वास्थ्य पर जो खर्च करता है, उसका 62 फीसदी उसे अपनी जेब से देना पड़ता है. एक औसत अमेरिकी को 13.4 फीसदी, ब्रिटिश नागरिक को 10फीसदी और चीनी नागरिक को 54 फीसदी अपनी जेब से देना होता है.

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शिक्षा में सुधार

शिक्षा-जगत से हाल में कुछ उत्साहवर्धक खबरें मिली हैं. आईआईटी-मद्रास विदेश में कैम्पस खोलने वाला देश का पहला आईआईटी बन गया है. जुलाई के महीने में विदेशमंत्री एस जयशंकर की तंजानिया-यात्रा के दौरान इस आशय के समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं.

इस खबर के साथ एक और खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूएई यात्रा के दौरान अबू धाबी में आईआईटी-दिल्ली का परिसर स्थापित करने के लिए शिक्षा मंत्रालय और अबू धाबी के शिक्षा और ज्ञान विभाग और आईआईटी-दिल्ली के बीच एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए. ये दोनों कैंपस राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी)-2020की देन हैं. इसके तहत राष्ट्रीय डिजिटल विश्वविद्यालय, इसी शैक्षणिक-सत्र से शुरू हो रहा है.

एमईपी-2020

एक लंबे विचार-विमर्श के बाद 29जुलाई 2020को राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 की शुरुआत की गई. यह नीति 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति का स्थान ले रही है. इसमें प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च और व्यावसायिक-शिक्षा से जुड़े सभी कार्यक्रम शामिल हैं. 26 करोड़ से अधिक स्कूली बच्चों और चार करोड़ से अधिक उच्च शिक्षा प्राप्त छात्रों के साथ यह दुनिया की सबसे बड़ी शिक्षा प्रणालियों में से एक है.

उन्नीसवीं सदी में अमेरिका ने कई तरह के कानूनी बदलाव करके अपने यहाँ मजबूत कॉलेजों के निर्माण की नींव डाली थी. भारत में यह उसी तरह की गतिविधि है. यह पूरी तरह से 2040तक लागू हो पाएगी. पर यकीनन यह जागरूक नागरिकों को तैयार करने की दिशा में बड़ा कदम है, जो हमारी वास्तविक-संपदा है.

पिछली 29जुलाई को एनईपी-2020 की तीसरी वर्षगाँठ मनाई गई. इस मौके पर एनईपी के विशाल कैनवस को याद करते हुए, प्रधानमंत्री ने कहा कि इसमें प्राइमरी से उच्च शिक्षा तक पारंपरिक ज्ञान और भविष्य की टेक्नोलॉजी को समान महत्व देने का विचार है.

एनईपी के अंतर्गत 10+2 प्रणाली के स्थान पर अब 5+3+3+4 प्रणाली शुरू हो रही है. संसद के इसी सत्र में नेशनल रिसर्च फाउंडेशन विधेयक पेश कर दिया गया है. इस शीर्ष संस्थान की स्थापना के लिए अगले पांच वर्षों में 50,000 करोड़ रुपये का परिव्यय होगा. ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में यह एक लंबी छलाँग है.

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दीवारें टूटेंगी

हमारी शिक्षा में विज्ञान और मानविकी से जुड़े विषयों के बीच में एक दीवार बन गई है. उसे तोड़ा जाएगा. नीति की मंशा है कि केवल एक स्ट्रीम की शिक्षा देने वाली संस्थाएं खत्म की जाएं. 2040तक देश की सभी शिक्षा संस्थाएं मल्टी-डिसिप्लिन यानी विविध-विषयों की शिक्षा दें.

इंजीनियर को केवल इमारत बनाने की जानकारी देना ही पर्याप्त नहीं है. उसे पर्यावरण, मनुष्य के स्वभाव, उसके व्यवहार वगैरह का ज्ञान भी होना चाहिए. यदि उसकी इच्छा संगीत सीखने की है, तो यह अड़चन नहीं होनी चाहिए कि उसके पास साइंस की डिग्री है या आर्ट्स की.

उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय शिक्षा को वैश्विक शिक्षा से जोड़ने के विचार से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के कैम्पस भारत में स्थापित करने लिए द्वार भी खोले जा रहे हैं. भारतीय विवि भी विदेश जाकर कैम्पस कायम कर सकें, यह भी सुनिश्चित किया जा रहा है.

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शिक्षा-परिव्यय

देश में शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए इसे लागू करने में राज्यों की भूमिका भी है. इसे पूरी तरह लागू करने के लिए 2040तक के समय का अनुमान लगाया गया है साथ ही शिक्षा के लिए जीडीपी के छह फीसदी परिव्यय का लक्ष्य रखा है. विडंबना है कि यह परिव्यय ढाई फीसदी के आसपास रहता है. यह कैसे बढ़ेगा, इसपर हमें अब विचार करना होगा.

स्वतंत्रता के बाद से देश की शिक्षा-व्यवस्था में सुधार के लिए जो कोशिशें हुईं हैं, उनमें कई तरह के आयोग, नीतियाँ और समितियाँ शामिल हैं. पर सच यह है कि हमने प्राथमिक और खासतौर से ग्रामीण बच्चों की शिक्षा पर देर से ध्यान दिया.

1948-49 में हमने पहले विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए राधाकृष्ण आयोग का गठन किया और इसके बाद 1951 में प्राइमरी शिक्षा पर बीजी खेर समिति बनाई, जिसकी सिफारिशें 1952-53 के मुदलियार आयोग का हिस्सा बनीं.

1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित हुई. इस नीति में विज्ञान और तकनीक को शिक्षा का बुनियादी आधार बनाने का लक्ष्य था. इसके बाद 1986में फिर से राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई. इसमें 1992में सुधार किया गया. उसके बाद राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा-2005 बनी, जिसने स्कूली शिक्षा के व्यापक स्वरूप की बुनियाद डाली.

गुणवत्ता का सवाल

एनईपी-2020 के प्रारूप में इस बात को रेखांकित किया गया, ‘कि हम बड़े पैमाने पर सबके लिए शिक्षा की पहुँच बनाने में व्यस्त रहे हैं, और दुर्भाग्य से शिक्षा की गुणवत्ता पर हमने ज्यादा ध्यान नहीं दिया.’ सन 1986/92  की नई शिक्षा नीति दुनिया में इंटरनेट क्रांति के पहले बनी थी. इसलिए भी हमें नई शिक्षा नीति की जरूरत है.

अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009 को अप्रेल 2010 में लागू करके हमने प्रारम्भिक शिक्षा पूरी होने तक 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे को पड़ोस के स्कूल में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया. पर इसे लागू कराने की व्यवस्थाएं हमारे पास नहीं हैं.

उच्चतर शिक्षा के ज्यादातर केंद्र शहरों में हैं. ग्रामीण छात्रों को भी यह सुविधा मिलनी चाहिए. कम से कम प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था तो होनी ही चाहिए. इस सदी के शुरू होते समय यानी 2001 में 18 साल से कम उम्र के ग्रामीण बच्चों में केवल 25 फीसदी ही स्कूलों में पढ़ने जा रहे थे. शेष 75फीसदी में से काफी को स्कूल जाने का अवसर नहीं मिला और मिला भी तो उन्होंने कुछ समय बाद स्कूल जाना बंद कर दिया.

पिछले दो दशक में देश का ध्यान इस दिशा में गया है. सन 2016 में यह प्रतिशत 25 से बढ़कर 70 हो गया. पर केवल स्कूल जाने और स्कूलों के भवन बनाने से काम पूरा नहीं होता. जरूरत शिक्षा की गुणवत्ता की है. एनईपी-2020का लक्ष्य 2030तक प्री-प्राइमरी से लेकर हायर सेकंडरी तक अनिवार्य क्वालिटी शिक्षा उपलब्ध कराने का है.

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50 साल पीछे

क्या हम इतना भी कर पाएंगे? युनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट में 2016में कहा गया था कि वर्तमान गति से चलते हुए भारत में सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य 2050तक ही हासिल हो सकेगा. रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा में भारत 50साल पीछे चल रहा है.

शिक्षा-केन्द्रित भारतीय एनजीओ ‘प्रथम’ की सालाना रिपोर्टों ‘असर’ से पता लगता है कि शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी बढ़ोतरी हुई है, पर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गिरी है.

सर्वे के अनुसार सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है. आरटीई का सकारात्मक असर है कि 6-14वर्ष उम्र वर्ग के बच्चों के स्कूल में दाखिले में भारी वृद्धि हुई है, पर बच्चे स्कूलों में साधारण कौशल भी नहीं सीख पा रहे हैं.

अगले अंक में पढ़ें :हमारी ताकत संविधान और राष्ट्रीय एकता

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )


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