हरजिंदर
लगता है कि कांग्रेस गलती करने और मौका गंवाने के सारे रिकाॅर्ड तोड़कर ही मानेगी. वह भी राजनीति के उस दौर में जब विरोधी आपके हर कदम और सांस पर नजर गड़ा रहते हैं और छोटी सी गलती भी बहुत भारी पड़ती है.
पिछले दिनों जब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो बहुत से लोगों ने इससे बहुत बड़ी उम्मीदें बांधी थीं. खासकर भारत जोड़ो यात्रा के बाद से यह उम्मीद बांधी जा रही थी कि पार्टी इस अधिवेशन से देश को कोई नया कार्यक्रम और कोई नया संदेश देने की कोशिश करेगी. लेकिन मामला वहां तक पहंुचता उससे पहले ही एक बहुत बड़ी गड़बड़ हो चुकी थी.
देश भर के अखबारों में अधिवेशन के पहले दिन जो पूरे एक पेज का विज्ञापन छपा उसमें सबसे ऊपर कांग्रेस के पुरखे नेताओं की तस्वीरे छापी गईं थीं. इन तस्वीरों में कांग्रेस के सबसे बड़े नेताओं में शुमार किए जाने वाले मौलाना अबुल कलाम आजाद की तस्वीर गायब थी.
कुछ लोगों ने कहा कि किसी मुस्लिम पुरखे को इस लायक ही नहीं समझती कि उनकी तस्वीर पार्टी के विज्ञापन में लगाई जाए. जबकि मौलाना आजाद ही नहीं अली बंधु से लेकर रफी अहमद किदवई और जाकिर हुसैन तक देश के एक से एक बड़े मुस्लिम नेता कांग्रेस में रहे हैं .उन्होंने कांग्रेस में ही नहीं देश के इतिहास में भी एक बड़ी भूमिका निभाई है.
कांग्रेस के पास इन बातों का जवाब नहीं था. वह बचाव में आ गई. पार्टी की ओर से तुरंत माफी मांगी गई. यह भी कहा गया कि यह ऐसी गलती है जो माफ किए जाने लायक नहीं है. पार्टी की ओर से तुरंत ही अधिवेशन स्थल की वे तस्वीरें शेयर की गईं जहां मंच की एक हिस्से में मौलाना आजाद की एक बड़ी सी तस्वीर लगी थी. लेकिन ऐसी माफियों से इतिहास की खुदाई भला कहां रुकती है.
तुरंत ही कईं तथ्य सामने आने लगे. कांग्रेस के कुछ लोगों ने बताया कि पिछले 11 नवंबर को जब मौलाना आजाद जयंती थी तो राहुल गांधी ने ट्वीट कर उन्हें श्रद्धांजलि दी थी. तुरंत ही इसका जवाब भी आ गया कि कुछ दिन पहले 22 फरवरी को जब उनकी पुण्यतिथि थी तो राहुल गांधी का कोई ट्वीट नहीं आया जबकि उस दिन ट्व्टिर मौलाना आजाद के लिए श्रद्धांलजियों से भरा पड़ा था.
सवाल इस पर भी उठे कि क्या यह सचमुच में गलती ही थी या फिर कांग्रेस पार्टी ने विज्ञापन में मौलाना आजादी को जगह देने की जरूरत नहीं समझी.पिछले कुछ समय में कांग्रेस की राजनीति में एक बदलाव भी देखने को मिला है.
कांग्रेस पर यह आरोप लंबे समय से लगता रहा है कि वह मुसलमानों का तुष्टिकरण करती है. एक आरोप यह भी है कि वह मुस्लिम नेताओं का सजावटी इस्तेमाल करती है. पार्टी अब इन दोनों ही तरह के आरोपों से मुक्त होने की कोशिश करती दिख रही है. इसके लिए पार्टी ने जो नीति अपनाई है उसे कुछ लोग साफ्ट-हिंदुत्वा भी कहते हैं.
पिछले दिनों कुछ विश्लेषकों ने यह भी कहा है कि कांग्रेस मान कर चल रही है कि अगर उत्तर प्रदेश और बिहार को छोड़ दें तो मुस्लिम मतदाता उसे ही वोट देंगे, इसलिए वह अब मुस्लिम समुदाय को अपने साथ जोड़ने की कोई कोशिश भी करती दिखाई नहीं देती. तकरीबन ऐसी ही बात ओवेसी जैसे नेता भी कहते हैं.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बदलती राजनीति और उसकी मुस्लिम राजनीति पर अंतिम रूप से अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. लेकिन विज्ञापन में एक तस्वीर न छाप कर उसने उन सारे तर्कों को जगह दे दी है जो उसके खिलाफ खड़े किए जा सकते थे. रायपुर अधिवेशन में क्या हुआ यह चर्चा तो खैर दब ही गई.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )