हरजिंदर
पंजाब की समस्या फिर एक बार पूरे देश की चर्चाओं में भी है और आशंकाओं में भी. इसे लेकर उठ रही चिंताओं के साथ ही इसके तरह-तरह से विश्लेषण भी हो रहे हैं. पिछले दिनों पंजाब के कुछ बुद्धिजीवियों ने इसका जो विश्लेषण किया वह ध्यान देने योग्य है.
उनका कहना है कि पंजाब में पिछले कुछ समय से बह रही हवाओं में से राजनीति अनुपस्थित हो चुकी है. अगर हम याद करें तो कुछ ही समय पहले दिल्ली की सीमाओं पर पंजाब और हरियाण के किसानों ने साल भर से भी लंबा धरना दिया था.
तमाम दूसरी चीजों के अलावा इस धरने की एक खास बात यह थी कि इसमें राजनीतिक दल मौजूद नहीं थे. न इसके पक्ष में और न विरोध में. पक्ष और विरोध में राजनीतिक दल जो भी कर रहे थे वह जुबानी जमा खर्च के अलावा कुछ और नहीं था.
वे ज्यादातर तमाशबीन की भूमिका में थे.इंतजार कर रहे थे कि ऊंट किस करवट बैठेगा. अकाली दल तीन कृषि कानूनों के मुद्दे पर सरकार से अलग जरूर हो गया, लेकिन उसने इसके आगे कुछ किया नहीं.
यही पंजाब में अभी भी हो रहा है. पिछले दिनों जीरा नाम के एक कस्बे में एक शराब फैक्ट्री के विरोध में किसानों ने लंबा धरना दिया. उसमें भी राजनीतिक दल अनुपस्थित थे. इस समय पंजाब में कम से कम दो आंदोलन और चल रहे हैं, लेकिन उनमें भी राजनीतिक दलों की उपस्थिति नहीं है.
विश्लेषकों का कहना है कि राजनीति दलों के इस रवैये के कारण पंजाब के सार्वजनिक जीवन में जो खालीपन या वैक्यूम विकसित हुआ है उसे चरमपंथियों ने भर दिया है. लेकिन क्या यह सिर्फ पंजाब में ही हो रहा है ?
पिछले हफ्ते पूरे देश में रामनवमी के मौके पर जुलूस निकाले गए तो कईं जगह से इस दौरान सांप्रदायिक हिंसा की खबरे भी आईं. पश्चिम बंगाल में तो हिंसा कुछ ज्यादा ही हुई. अब इस हिंसा के बाद बयानों के अलावा कुछ होता नहीं दिख रहा. एक दूसरे पर आरोप लगाने की तीखी बयानबाजी भर चल रही है.
खींचतान की राजनीति को आपस में उलझने का एक और मुद्दा भर मिल गया है. इसके आगे सभी दल देख भर रहे हैं कि मामला किस हद तक जाता है.सांप्रदायिक हिंसा और दंगे हमेशा से ही राजनीतिक कारणों से होते रहे हैं.
यह भी कहा जाता है कि ये राजनीतिक कारणों से करवाए जाते रहे हैं. सच जो भी हो लेकिन ऐसी हिंसा के बाद स्थानीय स्तर की राजनीति एक बड़ी भूमिका भी निभाती रही है.पहले जब कहीं इस तरह की घटनाएं होती थीं तो मुहल्ले, कस्बे और शहर के स्तर पर अमन कमेटियां बनती थीं. जिनमें विभिन्न दलों और धर्मों के लोग शामिल किए जाते थे.
ये कमेटियां संवेदनशील क्षेत्रों में लोगों के बीच जातीं थीं और इस तरह के दौरों का असर भी पड़ता था. अब जब कहीं हिंसा होती है तो ऐसी कमेटी बनने की खबर कहीं से नहीं आती.
पहली बार नहीं है जब रामनवमीं या किसी त्योहार के दौरान हिंसा हुई हो.
इस तरह के प्रयास मौका आने से पहले भी शुरू किए जा सकते थे. लेकिन अब वे उसके बाद भी शुरू क्यों नहीं किए जाते ? क्या किसी राजनीतिक दल ने इसकी पहल की ?मूल सवाल यहां भी वही है जो पंजाब में है. जहां तनाव है वहां राजनीति अनुपस्थिति क्यों है ?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )