हरजिंदर
चुनाव जब आते हैं तो वे सारी अच्छी बातें एक सिरे से भुला दी जाती हैं जो हमारे राजनेता अक्सर कहते रहते हैं. कईं बार तो इन बातों से एकदम उलटी राह पकड़ ली जाती है.अभी कुछ सप्ताह पहले ही अपने एक भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसमांदा मुसलमानों को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की थी. उसके बाद भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं ने भी पसमांदा मुसलमानों का जिक्र शुरू कर दिया था. यह भी लगने लगा था कि जल्द ही शायद मुस्लिम समुदाय की निचली जातियों को लेकर सरकार कोई फैसला भी करे.
हालांकि मोदी सरकार के विरोधियों ने तब भी इस पर विश्वास नहीं किया था. यहां तक कहा गया कि यह सरकार की बांटों और राज करो की नीति का ही एक हिस्सा है. कुछ विश्लेषकों का कहना था कि भाजपा भारतीय मुसलमानों को कभी शिया-सुन्नी, कभी बरेलवी-देवबंदी और कभी अशराफ, अजलाफ, पसमांदा वगैरह में बांटती रहती है.
वैसे सच्चर कमेटी से लेकर रंगनाथ कमेटी तक ने अपनी रिपोर्ट में पसमांदा मुसलमानों को लेकर बहुत कुछ कहा है. इन कमेटियों की सिफारिशों को लागू करने की मांग भी अक्सर होती है. हाल ही में ऐसी ही एक मांग संसद में हुई थी, जिसका जिक्र हम बाद में करेंगे.
दोनों आयोगों की रिपोर्ट के बाद कुछ राज्यों ने पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण का प्रावधान भी किया। इन्हीं राज्यों में एक कर्नाटक भी है, जहां उन्हें राज्य सरकार की नौकरियों में चार फीसदी आरक्षण देने की व्यवस्था है.अब जब कर्नाटक विधानसभा का चुनाव सामने है और किसी भी दिन उसके लिए अधिसूचना जारी हो सकती है, राज्य की भाजपा सरकार ने मुस्लिम समुदाय को मिलने वाले आरक्षण का प्रावधान खत्म कर दिया है.
अब इस चार फीसदी आरक्षण में दो फीसदी राज्य के लिंगायत समुदाय और बाकी राज्य के वोकालिग्गा समुदाय के हवाले कर दिया गया है.राज्य के चुनावी गणित में ये दोनों ही समुदाय काफी अहमियत रखते हैं. इनकी नाराजगी किसी भी पार्टी को भारी पड़ सकती है. जाहिर है कि यह कदम चुनाव से पहले इन समुदायों को खुश करने के मकसद से उठाया गया है.
लिंगायत समुदाय के कुछ लोग तो आरक्षण में दर्जा बदले जाने को लेकर पिछले काफी समय से आंदोलन भी कर रहे थे. राज्य भाजपा के लिए फिलहाल ये दोनों समुदाय राज्य के मुसलमानों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं.हालांकि इस आरक्षण और इस फेर बदल का कोई बड़ा अर्थ नहीं है. न मुस्लिम समुदाय के लिए, न लिंगायत समुदाय के लिए और न वोकालिग्गा समुदाय के लिए.
वजह यह है कि इस प्रावधान की वजह से राज्य में दिया जाने वाला कुछ आरक्षण पचास फीसदी से ज्यादा हो गया है. इसका अर्थ यह है कि देर-सवेर सुप्रीम कोर्ट इस पर रोक लगा ही देगा.लेकिन चुनावी राजनीति इस देर-सवेर की सोच और दीर्घकालिक असर को देख कर नहीं चलती। वह तुरंत फायदा देखती है और इस हिसाब से राज्य सरकार ने अपनी चाल चल दी है.
इसी बीच एक और घटना हुई है. राज्यसभा में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के नेता अब्दुल वहाब ने एक प्रस्ताव पेश कर मांग की थी कि मुसलमानों के पिछड़े वर्ग और महिलाओं के लिए सच्चर समिति की सिफारिशों को लागू किया जाए। प्रस्ताव काफी पहले पेश हुआ था लेकिन जेपीसी की मांग और राहुल गांधी माफी मांगों के हो हल्ले के बीच इसका नंबर नहीं आ पाया था.
अब जब इसका नंबर आया तो सरकार ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. राज्यसभा में अल्पसंख्यक मामलों और महिला व बाल कल्याण मंत्री स्मृति इरानी ने इसे ठुकराते हुए कहा कि नए भारत में अब लोगों को धर्मों में बांट कर नहीं देखना चाहिए.
लेकिन जातियों में बांट कर देखना शायद अभी भी बंद नहीं होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )