देस-परदेश : इमरान बनाम सेना बनाम पाकिस्तानी लोकतंत्र

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 06-06-2023
देस-परदेश : इमरान बनाम सेना बनाम पाकिस्तानी लोकतंत्र
देस-परदेश : इमरान बनाम सेना बनाम पाकिस्तानी लोकतंत्र

 

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पाकिस्तानी राजनीति में इमरान खान का जितनी तेजी से उभार हुआ था, अब उतनी ही तेजी से पराभव होता दिखाई पड़ रहा है. उनकी पार्टी के वफादार सहयोगी एक-एक करके साथ छोड़ रहे हैं. कयास हैं कि उन्हें जेल में डाला जाएगा, देश-निकाला हो सकता है, उनकी पार्टी को बैन किया जा सकता है वगैरह.

पाकिस्तान में कुछ भी हो सकता है. ऊपर जो बातें गिनाई हैं, ऐसा अतीत में कई बार हो चुका है. पहले भी सेना ने ऐसा किया था और इस वक्त इमरान के खिलाफ कार्रवाई भी सेना ही कर रही है. परीक्षा पाकिस्तानी नागरिकों की है. क्या वे यह सब अब भी होने देंगे?

कुल मिलाकर यह लोकतंत्र की पराजय है. इमरान खान ने सेना का सहारा लेकर प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों को पीटा, अब वे खुद उसी लाठी से मार खा रहे हैं. पर उन्होंने अपनी इस गलती को कभी नहीं माना. ब्रिटिश पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने लिखा है कि इमरान को पिछले साल अपदस्थ करने के बजाय, लँगड़ाते हुए ही चलने दिया जाता, तो अगले चुनाव में जनता उसे रद्द कर देती. लोकतंत्र में खराब सरकारों को जनता खारिज करती है. इसकी नज़ीर बनती है और आने वाले वक्त की सरकारें डरती हैं.

सेना का हस्तक्षेप

जनरलों ने किसी भी सरकार को पूरे पाँच साल काम करने नहीं दिया. पिछले साल इमरान को हटाने के पीछे भी जनरल ही थे, जिन्होंने एक विफल राजनेता को सफल बनने का मौका दिया. इमरान ने साजिशों की कहानियाँ गढ़ लीं, और उनके समर्थकों की तादाद बढ़ती चली गई.

आज चुनाव हों, तो वे फिर से जीतकर आएंगे. इससे डरकर इमरान की पार्टी के हजारों कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है और अब उनपर पार्टी छोड़ने का दबाव है. कोई दिन नहीं जाता, जब किसी न किसी के पार्टी छोड़ने की खबर आती नहीं हो.

पिछले साल तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा ने सेवानिवृत्ति के ठीक पहले नवंबर में कहा था कि सेना ने सात दशक से ज्यादा समय तक राजनीतिक गतिविधियों में गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप किया. उन्होंने यह भी कहा कि आपसी जलन के कारण राजनीतिक दल एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं.     

जनरल बाजवा की बातों से लगता था कि सेना ने राजनीति से हाथ खींच लिया है, पर इस समय इमरान के खिलाफ अभियान सेना ही चला रही है. इसकी वजह 9मई की हिंसा और उसके पहले कही गई इमरान की सख्त बातें भी हैं. अब ‘एस्टेब्लिशमेंट’ यानी सेना ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है.

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इमरान का पराभव

इमरान अपनी आक्रामक रणनीति के शिकार हुए हैं. अब उनके राजनीतिक जीवन के अंत का खतरा है. वर्तमान पीडीएम सरकार और सेना ने मिलकर ऐसी व्यूह-रचना कर दी है कि उसके बाहर निकल पाना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा. 

उनके करीबी साथियों ने एक-एक करके उनका साथ छोड़ना शुरू कर दिया है. पहले इन लोगों को गिरफ्तार किया गया और जब वे छूटकर आए, तो बदले तेवर हुए थे. पहले पूर्व मानवाधिकार मंत्री शीरीन मज़ारी ने किनारा किया. अगले रोज़ पूर्व सूचना मंत्री चौधरी फ़वाद हुसैन ने दूरी बनाने का ऐलान किया, फिर उनके विश्वासपात्र असद उमर ने ख़ुद को अलग कर लिया.

भारी संख्या में छोटे कार्यकर्ताओं में भगदड़ मची है. एक और करीबी नेता इमरान इस्माइल ने भी पार्टी छोड़ दी.  उनके कानूनी सलाहकार बाबर अवान ने तो पाकिस्तान ही छोड़ दिया और वे लंदन चले गए.


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एक सेलिब्रिटी महिला ख़दीजा शाह की भी गिरफ्तारी हुई है, जिन पर 9मई की हिंसा भड़काने का आरोप है. वे फ़ैशन डिजाइनर हैं और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल आसिफ़ नवाज़ जंजुआ की नवासी हैं. उन्हें जेल भेजकर फ़ौजी ख़ानदानों को पैग़ाम दिया गया है कि वे इमरान की सियासत से ख़ुद को दूर रखें.

व्यवस्था-परिवर्तन

सवाल है कि भविष्य में सेना की भूमिका क्या होगी? क्या वह सबसे ताकतवर राजनीतिक-शक्ति बनी रहेगी? उसकी भूमिका बदलेगी तो कैसे? बदलाव का संधिकाल कैसा होगा, उसका निर्णय कौन करेगा वगैरह. सेना के प्रति जैसी नाराज़गी इसबार व्यक्त हुई है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ. सेना भले ही इस विरोध की कमर तोड़ दे, पर उसकी भूमिका भी देश के सामने उजागर हो गई है.

पाकिस्तान का इतिहास है कि हरेक प्रधानमंत्री के सेना के साथ संबंध कुछ समय बाद बिगड़ जाते हैं. पहले चुने हुए प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को फाँसी मिली. उनकी बेटी बेनज़ीर भुट्टो को दो मर्तबा पद से हटाया गया और एक आत्मघाती धमाके के नतीजे में उनकी मृत्यु की कभी मुकम्मल तौर पर जाँच नहीं की गई.

नवाज़ शरीफ़ को पद से हटाया गया, जेल भेजा गया और फिर देश-निकाला दे दिया गया. वे मुल्क से बाहर हैं और अपने छोटे भाई शहबाज़ शरीफ़ के ज़रिए प्रॉक्सी हुकूमत चला रहे हैं. वे अब भी मुल्क वापिस नहीं आ सकते.

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छावनियों पर निशाना

इमरान ख़ान की गिरफ़्तारी के बाद उनके समर्थकों ने वह काम किया, जो आज तक किसी भी सियासी जमात के लोगों ने नहीं किया था. सड़कों पर विरोध व्यक्त करने के बजाय इन्होंने फ़ौजी छावनियों के निशाना बनाया और अवाम को दिखाया कि पाकिस्तानी जनरल कैसी ज़िंदगी गुज़ारते हैं. यानी बड़े महलों में रहते हैं, स्विमिंग पूल होते हैं और कई एकड़ ज़मीन के लॉन होते हैं, जिनमें मोर घूमते हैं.

गिरफ़्तारी से कुछ समय पहले इमरान ख़ान ने कहा था कि पाकिस्तान के आर्मी चीफ़ जनरल आसिम मुनीर उनकी जमात को कुचलना चाहते हैं. इस से पहले उन्होंने पूर्व आर्मी चीफ़ जनरल बाजवा को ग़द्दार कहा था, जिन्होंने उन्हें कुर्सी पर बैठाने में मदद की थी. उन्होंने आईएसआई के एक जनरल को अपने ऊपर हुए हमले का ज़िम्मेदार ठहराया था.

सवाल पाकिस्तानी सेना के वर्चस्व का है, जो अब टूटता नज़र आ रहा है. ऐसी खुली बातें पहले कभी नहीं हुईं. इसी से घबरा कर सेना की जनसंपर्क शाखा आईएसपीआर ने 9मई को काला दिवस बताते हुए कहा, हमने बहुत संयम बरता. पर अब कड़ी कार्रवाई की जाएगी. जो काम दुश्मन 75साल में नहीं कर सके, राजनीति का लबादा ओढ़े एक जमात ने वह काम एक दिन में कर दिखाया.

घबराए इमरान

अंदेशा है कि इमरान को किसी न किसी आरोप में सलाखों के पीछे भेज दिया जाएगा. चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाएगा और शायद उनकी पार्टी पर भी प्रतिबंध लगा दिया जाएगा. पर्यवेक्षकों का कहना है कि चुनाव आते-आते पाकिस्तान तहरीके इंसाफ (पीटीआई) या तो भंग कर दी जाएगी, या उसे मुट्ठी में कर लिया जाएगा. 

इमरान भी घबरा गए हैं और अब वे हालात को सुधारने के लिए सरकार से बात करने की पेशकश कर रहे हैं. उन्होंने कहा है कि अगर मुझे किनारे करके देश को रास्ते पर लाने का कोई समाधान है, तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ.

गत 9मई को हुई गिरफ्तारी से तो वे सुप्रीम कोर्ट की कृपा से बाहर निकल आए हैं, पर उस रात हुई हिंसा ने उनकी सारी योजना पर पानी फेर दिया है. उस हिंसा के जवाब में सेना के प्रतिशोध का सामना वे नहीं कर पा रहे हैं. उनके तमाम सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया गया है. जो छूटकर बाहर आ रहे हैं, वे पार्टी छोड़ने का ऐलान कर रहे हैं.

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मीडिया पर नियंत्रण

इमरान की गिरफ्तारी के बाद से पाकिस्तानी मीडिया में सेना के समर्थन और इमरान के विरोध से जुड़ी सामग्री की भरमार है. केवल एएफपी और रायटर्स जैसी विदेशी एजेंसियाँ ही कुछ खबरें दे पा रही हैं. एएफपी के अनुसार कराची के पत्रकारों ने बताया कि उन्हें सेना की पब्लिक रिलेशंस शाखा की ओर से वॉट्सएप पर निर्देश आते हैं, जो ऑफ द रिकॉर्ड कहकर दिए जाते हैं.

इन जानकारियों को बगैर फेर-बदल के प्रकाशित किया जाता है. किसी का हवाला नहीं दिया जाता. एक टीवी पत्रकार ने बताया कि पहले ऐसा हफ्ते में एक या दो बार होता है, अब पाँच या छह बार तक होने लगा है.

पीटीआई समर्थक पत्रकार इमरान रियाज़ खान दो हफ्ते से गायब हैं. कहा जा रहा है कि उन्हें मिलिटरी इंटेलिजेंस वाले उठा ले गए हैं, जो पाकिस्तान में मामूली बात है. देश में बरसों से लोग गायब हो रहे हैं. कुछ वापस आ जाते हैं और कुछ कभी नहीं आते.

सैनिक अदालत

सरकार ने 9मई की हिंसा को देशद्रोह माना है. कहा जा रहा है कि पकड़े गए लोगों पर सैनिक अदालत में मुकदमा चलाया जाएगा. इमरान खान ने जिस तरीके से सेना पर आरोप लगाने शुरू कर दिए थे, उनके कारण पहले से ही यह आशंका थी कि अब जो कार्रवाई होगी, उसका जवाब इमरान खान नहीं दे पाएंगे.

एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि आंदोलनकारियों का दमन करने के लिए आतंकवाद-विरोधी कानूनों का इस्तेमाल किया जा रहा है और दहशत का ऐसा माहौल पैदा कर दिया गया है कि इमरान के करीबी सहयोगी भाग खड़े हुए हैं.

देश के प्रतिष्ठित अखबार ‘द डॉन’ ने लिखा है, पीटीआई ने देश के ताकतवर इदारे  का मुकाबला करने के लिए ‘रेड लाइन’ का उल्लंघन किया और जवाबी दमन का शिकार हो गया. अब यह लड़ाई एकतरफा है और पीटीआई के नेताओं के पास विकल्प नहीं हैं. उन्हें वही करना है, जो कहा जाएगा.

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खुफिया-कार्रवाई

जो लोग अभी छिपे हुए हैं, उनके परिवारों को परेशान किया जा रहा है. उनके पास अनजान नंबरों से फोन कॉल आ रही हैं और धमकियाँ दी जा रही हैं. देश में पहले से ही एक ऐसी व्यवस्था काम कर रही है, जिसके कारनामों की सुनवाई किसी अदालत में नहीं होती.

पीटीआई आज जो कुछ झेल रही है, वैसा पाकिस्तान में पहली बार नहीं हुआ है. 2018के चुनाव के पहले ऐसा ही नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग नून का हुआ था. उसे तोड़कर पीएमएलक्यू नाम की पार्टी बनाई गई थी. तब पीटीआई की पीठ पर जो ताकत थी, वह आज उसकी कमर तोड़ रही है. शायद एक नई पीटीआई अब बने.

इमरान खान की मदद के लिए केवल अदालतें, खासतौर से सुप्रीम कोर्ट आगे आई है, पर वह भी आलोचना के दायरे में है. इमरान खान की रिहाई के बाद प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने अदालत की खुलकर आलोचना की है. उनकी रिहाई को न्याय की हत्या बताया गया है.

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )


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