देस-परदेश : चीन को काबू करने की कोशिशें और भारत

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 07-03-2023
देस-परदेश : चीन को काबू करने की कोशिशें और भारत
देस-परदेश : चीन को काबू करने की कोशिशें और भारत

 

अमेरिका-चीन और भारत-1 

permodप्रमोद जोशी

ताज़ा खबर है कि चीन ने इस साल 5फीसदी संवृद्धि का लक्ष्य तय किया है, जो पिछले 35वर्षों का सबसे नीचा स्तर है. चीनी संसद में प्रधानमंत्री ली ख छ्यांग ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिन यह घोषणा की है. सन 1978में जबसे चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोला है उसकी संवृद्धि औसतन नौ फीसदी तक रही है, पर अब उसमें ठहराव आ रहा है.

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है तीन साल तक चली कोविड-19महामारी. उधर तरफ अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी खेमे की कोशिश है कि चीन के आर्थिक और सैनिक विस्तार पर किसी तरह से रोक लगाई जाए. जिस तरह पहले अमेरिका ने सोवियत संघ को काबू में करने की कोशिशें की थीं, अब उसी तर्ज पर वह चीन को काबू करने का प्रयास कर रहा है.

क्या अमेरिका अपने इस प्रयास में सफल होगा? बड़ी संख्या में पर्यवेक्षक मानते हैं कि इसमें देर हो चुकी है. चीन अब अमेरिका के दबाव में आने वाला नहीं है. अब शीतयुद्ध की तरह दुनिया की अर्थव्यवस्था दो भागों में विभाजित नहीं है. वह आपस में जुड़ी हुई है. वह एक-ध्रुवीय भी नहीं है, पर अब दो-ध्रुवीय भी नहीं रहेगी, जैसी कि चीनी मनोकामना है.

दुनिया अब बहुध्रुवीय होने जा रही है. इसमें एक बड़ी भूमिका भारत की होगी. यह भूमिका केवल दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने वाली ही नहीं है, बल्कि विश्व-व्यवस्था में संतुलन स्थापित करने की है. पर उसके पहले हमें चीन की जवाबी ताकत बनना होगा.

जी-20 की बैठकें

पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों की चीन-विरोधी रणनीति ने धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई है. इसमें सबसे बड़ी भूमिका पिछले साल यूक्रेन पर हुए रूसी सैनिक हस्तक्षेप ने निभाई है. यूक्रेन में रूसी हठ के पीछे चीन का हाथ नज़र आने लगा है. पिछले हफ्ते भारत में हुई जी-20की दो मंत्रिस्तरीय बैठकों में वैश्विक-राजनीति का यह टकराव खुलकर सामने आया.

बेंगलुरु में वित्तमंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों तथा दिल्ली में विदेशमंत्रियों की बैठक, विश्व-व्यवस्था पर कोई आमराय बनाए बगैर ही संपन्न हो गईं.

हालांकि भारतीय-नजरिए में औपचारिक बदलाव नहीं है, पर इस घटनाक्रम का दूरगामी असर होगा, जिसके संकेत मिलने लगे हैं. नवंबर में जी-20का शिखर सम्मेलन जब होगा, तब ज्यादा बड़ी चुनौतियाँ सामने आएंगी. जी-20की बैठकों के फौरन बाद शुक्रवार को दिल्ली में हुई क्वॉड विदेशमंत्रियों की बैठक से इस मसले के अंतर्विरोध और ज्यादा खुलकर सामने आए हैं.

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बढ़ती बदमज़गी

दिल्ली में हुए जी-20के विदेशमंत्रियों के सम्मेलन में रूस, चीन और अमेरिका की भागीदारी के बावजूद यूक्रेन-युद्ध खत्म करने का कोई रास्ता नहीं निकल पाया. बदमज़गी इस हद तक थी कि बेंगलुरु और दिल्ली दोनों जगह सम्मेलन के बाद संयुक्त-बयान भी जारी नहीं हो सके. अध्यक्ष होने के नाते भारत को अंत में अध्यक्षीय सारांश जारी करना पड़ा. इस सारांश के पैरा 3और 4पर रूस और चीन की सहमति नहीं थी, अन्यथा इसे घोषणापत्र भी माना जा सकता था.

सारांश के पैरा 3में कहा गया है कि यूक्रेन-युद्ध के कारण वैश्विक-अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा है. इस विषय पर विमर्श हुआ. इसमें शामिल देशों ने अपने दृष्टिकोण को दोहराया. सुरक्षा परिषद ने 2मार्च, 2022के प्रस्ताव में यूक्रेन पर हुए हमले की निंदा की और रूसी सेना की वापसी की माँग की…इस बात को स्वीकार करते हुए कि जी-20सुरक्षा से जुड़ा फोरम नहीं है, हम समझते हैं कि युद्ध से वैश्विक-अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है.

चौथे पैरा में कहा गया है कि शांति और स्थिरता को सुनिश्चित करने वाले अंतरराष्ट्रीय कानूनों और बहुपक्षीय-व्यवस्था का पालन करना आवश्यक है. इसमें यह बात भी शामिल है कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में व्यक्त उद्देश्यों और सिद्धांतों की रक्षा की जाए.

नया शीतयुद्ध

सारांश में फुटनोट है कि पैरा 3और 4जी-20के बाली घोषणापत्र (15-16नवंबर, 2022) से लिए गए हैं और इनके बारे में रूस और चीन को छोड़ शेष सभी देशों की सहमति है. एक मायने में  रूस और चीन ने उस भाषा को भी स्वीकार करने से इनकार कर दिया जिस पर तीन महीने पहले वे सहमत हुए थे.

रूस मानता है कि यह सम्मेलन वैश्विक, अर्थव्यवस्था और विकास वगैरह के मसलों पर विचार के लिए है, युद्ध पर विचार के लिए नहीं, जबकि पश्चिमी देश मानते हैं कि युद्ध से अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा है. इस दस्तावेज से स्पष्ट है कि भारत भी ऐसा ही मानता है.

संयुक्त राष्ट्र का जन्म दूसरे विश्वयुद्ध के दुष्प्रभावों को दूर करने के इरादे से ही हुआ था, पर शुरू से ही महाशक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई, जिसे हम शीतयुद्ध कहते हैं. नब्बे के दशक में सोवियत संघ के पराभव और विश्व-व्यापार संगठन के जन्म के बाद ऐसा लगा कि दुनिया में आर्थिक-सहयोग का वातावरण बनेगा. ऐसा करीब दो दशक तक चला भी. इस परिस्थिति में एक नई महाशक्ति के रूप में चीन का उदय हुआ और अब एक नए शीतयुद्ध की स्थितियाँ तैयार हो गई हैं.

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भारत की भूमिका

बहुपक्षवाद (मल्टीलेटरिज्म) की सफलता तभी संभव है, जब बड़ी ताकतों के रिश्ते सौम्य हों. भारत की कोशिश बड़ी ताकतों से समान दूरी रखते हुए सहयोग के रास्ते तैयार करने की है, पर वैश्विक-अंतर्विरोध जिस तरह से मुखर हो रहे हैं, उन्हें देखते हुए इस रास्ते पर चलना आसान नहीं है.

बहुपक्षवाद पर व्याप्त संकट को देखते हुए ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार 2मार्च को विदेशमंत्रियों के सम्मेलन को भेजे अपने वीडियो संदेश में दो मुख्य बातों की तरफ संकेत किया, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उभरी थीं. विश्व-व्यवस्था इन दोनों मामलों, यानी अंतरराष्ट्रीय-सहयोग बढ़ाने और युद्धों को रोकने में नाकाम रही है.

इसके एक दिन बाद ही दिल्ली में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के विदेशमंत्रियों के सम्मेलन में जारी संयुक्त वक्तव्य में स्वतंत्र और खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र का समर्थन करने के अलावा एक पैरा यूक्रेन-युद्ध रोकने से जुड़ा है. इस वक्तव्य में चीन की आक्रामकता और संयुक्त राष्ट्र में आतंकवादियों को सूचीबद्ध करने के काम में अवरोध पैदा करने की प्रवृत्ति को भी निशाना बनाया गया है.

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यूक्रेन का ज़िक्र

क्वाड के इस बयान में भारत की चिंताओं को शामिल करके अमेरिका ने एक कदम आगे बढ़ाया है, जिससे चीन की चिंता बढ़ेगी. इस वक्तव्य में यूक्रेन का उल्लेख दो वजहों से महत्वपूर्ण है. एक दिन पहले जी-20की बैठक में उसका उल्लेख नहीं हो पाना और दूसरे क्वाड के दस्तावेज में इसका पहली बार उल्लेख होना. सितंबर, 2022में क्वाड की पिछली बैठक में यूक्रेन का जिक्र नहीं हुआ था.

क्वाड के इस बयान पर चीन ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता माओ निंग ने कहा कि चीन का मानना है कि देशों के बीच की बातचीत उस समय की प्रवृत्तियों के अनुरूप होनी चाहिए, जो अलगाव के बजाय शांति और विकास पर ध्यान दे. उन्होंने क्वाड के संदर्भ में कहा कि यह हमारे विकास को रोकने के उद्देश्य से बनाया गया एक स्पेशल ब्लॉक है.

इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि पिछले दो दशक से पश्चिमी देशों, खासतौर से अमेरिका की ओर से चीन की महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने की कोशिशें चल रही हैं. इसी लिहाज से भारत के महत्व को पहचाना गया. 1998के एटमी धमाकों के बाद भारत पर पहले प्रतिबंध लगाए गए और फिर उसके बाद अमेरिका और भारत के बीच विमर्श की एक लंबी प्रक्रिया चली, जिसके परिणाम स्वरूप दोनों देशों के बीच सामरिक और तकनीकी सहयोग के समझौते हुए.

शुरुआती समझ सामरिक थी, जिसका स्वरूप अब बहुआयामी होता जा रहा है. अमेरिका ने भारत के महत्व को इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में पहचाना. इसका एक बड़ा कारण चीन के साथ संतुलन बैठाना था, पर केवल यही कारण नहीं था. भारत का महत्व उसकी विविधता पूर्ण परंपरागत-संस्कृति और पश्चिमी लोकतंत्र के साथ बैठते जा रहे अद्भुत मेल और शैक्षिक-परंपराओं के कारण है, जो इस देश की धरोहर है. 

भारत के उदय का मतलब यह नहीं है कि चीन को रोकने के लिए अमेरिका के पिछलग्गू देश के रूप में वह सामने आएगा, बल्कि यह है कि चीन की अराजक और आक्रामक प्रवृत्तियों के बरक्स एक संतुलनकारी भूमिका में वह उभरेगा, ताकि दुनिया में न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम हो सके. पर वह चीन की तरह भस्मासुर नहीं बनेगा. भारत के विकास से हटकर बात करें, तो सवाल है कि चीनी-प्रसार को किस तरीके से रोका जाएगा? (जारी)

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं ) अगले अंक में पढ़ें: चीन पर काबू पाने की कोशिशें

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