प्रमोद जोशी
पाकिस्तान में सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और सरकार के बीच तलवारें खिंच गई हैं. मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में तीन जजों की बेंच ने पंजाब में चुनाव कराने का आदेश दिया है, जिसे मानने से सरकार ने इनकार कर दिया है. चुनाव दो सूबों में होने हैं, पर सुप्रीम कोर्ट ने केवल पंजाब में 14 मई को चुनाव कराने का निर्देश दिया है. खैबर पख्तूनख्वा के बारे में कोई निर्देश नहीं दिया है. देश में असमंजस का माहौल है.
सोमवार को संसद के दोनों सदनों के विशेष सेशन में सरकार ने चुनाव खर्च से जुड़ा विधेयक पेश कर दिया है. अब संसद के फैसले पर काफी बातें निर्भर करेंगी. संभव है कि संसद पूरे देश में चुनाव एकसाथ कराने का फैसला करे.
सोमवार को नेशनल असेंबली विदेशमंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने कहा कि पाकिस्तान के इतिहास में निडर जज भी हुए हैं. ऐसे भी जज थे जो ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को मौत की सजा देने के फैसले से असहमत थे. उसके विपरीत ऐसे न्यायाधीश भी, जो तब भी साजिश में शामिल थे और आज भी न्यायपालिका में मौजूद हैं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतिक्रिया में गुरुवार 6 अप्रेल को राष्ट्रीय असेंबली ने प्रस्ताव पास करके प्रधानमंत्री से कहा है कि इस फैसले को मानने की जरूरत नहीं है. उसके अगले ही दिन नेशनल सिक्योरिटी कमेटी (एनएससी) ने देश की पश्चिमी सीमा पर आतंकवाद के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करने का फैसला करके इस बात का संकेत दे दिया है कि चुनाव नहीं,
अब लड़ाई पश्चिमी सरहद पर लड़ाई होगी. उधर सरकार ने संसद के दोनों सदनों में
अवमानना का खतरा
सवाल यह भी है कि हुकूमत यदि सुप्रीमकोर्ट के फ़ैसले को तस्लीम नहीं करेगी, तो क्या उसे तौहीन-ए-अदालत की बिना पर वैसे ही हटाया जा सकता है, जैसे यूसुफ़ रज़ा गिलानी को सादिक़ और अमीन ना होने की वजह से तौहीन-ए-अदालत पर जून 2012 में हटा दिया गया था? पर जजों के बीच आपसी मतभेद हैं. पूरी न्यायपालिका एकसाथ नहीं है.
उधर रविवार 9 अप्रेल को छुट्टी के दिन कैबिनेट की बैठक बुलाई गई, जिसमें वित्त मंत्रालय से कहा गया है कि चुनाव के खर्चों का ब्योरा तैयार करे, ताकि उसे संसद के सामने रखा जा सके. सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि सरकार 10 अप्रेल तक 21 अरब रुपया चुनाव आयोग को दे, ताकि चुनाव कराए जा सकें.
सरकार कानूनी स्थितियों का भी गंभीरता से अध्ययन कर रही है. संसद से धनराशि की स्वीकृति नहीं मिलने पर जो वैधानिक स्थिति बनेगी, वह हालात को और जटिल बनाएगी.
अदालत में मतभेद
अदालत के भीतर न्यायाधीशों की असहमतियाँ भी खुलकर सामने आ रही हैं, जिनसे लगता है कि पाकिस्तान की न्यायपालिका पर राजनीतिक रंग चढ़ रहा है. हालांकि पाकिस्तान की न्यायपालिका की भूमिका अतीत में बदलती रही है, पर ऐसा पहली बार हो रहा है, जब उसके फैसले को सरकार ने मानने से इनकार कर दिया है.
चुनाव आयोग ने हुकूमत के एतराज़ के बावजूद पंजाब विधानसभा के चुनाव का कार्यक्रम जारी कर दिया है. क्या चुनाव आयोग अपने बूते चुनाव करा पाएगा? इसी दौरान आर्थिक, राजनीतिक और संवैधानिक-संकटों की छाया में सत्ता-प्रतिष्ठान ने अफगानिस्तान की सीमा पर पैदा हो गए आतंकवादी खतरे का सामना करने के लिए 15 दिन के भीतर ‘नेशनल एक्शन प्लान (एनएपी)’ को फिर से लांच करने का फैसला किया है.
आतंकवाद से लड़ाई
इस फैसले के पीछे कारण है बढ़ता आतंकवाद. पर परोक्ष कारण पंजाब में चुनाव कराने के अदालती फरमान की तरफ से जनता का ध्यान हटाना भी है. सरकार का कहना है कि कबायली इलाकों में बगावत के स्वर इसलिए फिर से सुनाई पड़ रहे हैं, क्योंकि इमरान खान की सरकार ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया.
शुक्रवार 7 अप्रेल को नेशनल सिक्योरिटी कमेटी (एनएससी) की बैठक में एक कमेटी बनाने का फैसला किया गया है, जो दो हफ्ते के भीतर बताएगी कि इस पॉलिसी को किस तरीके से लागू किया जाए.
इस बैठक में प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ के अलावा सेना के जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी जनरल साहिर शमशाद मिर्ज़ा, सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर, एयर चीफ मार्शल ज़हीर अहमद बाबर. नौसेना प्रमुख एडमिरल मुहम्मद अमज़द खान नियाज़ी और चारों सूबों के मुख्यमंत्री तथा संघीय सरकार के मंत्री शामिल थे. एक प्रकार से यह पाकिस्तान का पूरा सत्ता-प्रतिष्ठान है.
सवाल ही सवाल
अब दो सवाल हैं. चुनाव होंगे या नहीं? और क्या यह अनौपचारिक मार्शल लॉ की शुरुआत है? पश्चिमी सीमा पर बड़ी सैनिक-कार्रवाई का मतलब है कि फिलहाल चुनाव नहीं होंगे. इमरान खान का कहना है कि सरकार ने सेना को न्यायपालिका के सामने खड़ा कर दिया है. सूचना मंत्री मरियम औरंगज़ेब ने मीडिया को बताया कि पंजाब के चुनाव एनएससी की मीटिंग के एजेंडा में नहीं थे.
कहा यह भी जा रहा है कि आर्थिक बदहाली को देखते हुए सेना भी देश का शासन अपने हाथों में लेने के लिए तैयार नहीं है, इसलिए एक हाइब्रिड-व्यवस्था जन्म ले रही है. इसके पहले 4 अप्रेल को मुख्य न्यायाधीश उमर अता बंदियाल की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय पीठ ने पंजाब में 14 मई को चुनाव कराने का निर्देश दिया था.
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) द्वारा दायर याचिका पर फैसले की घोषणा करते हुए, शीर्ष अदालत ने 30 अप्रैल से 8 अक्टूबर तक पंजाब और केपी में चुनाव स्थगित करने के पाकिस्तान के चुनाव आयोग (ईसीपी) के फैसले को अमान्य और शून्य घोषित कर दिया.
पेशबंदियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 22 मार्च को जारी ईसीपी के आदेश को असंवैधानिक घोषित कर दिया. पाकिस्तानी मीडिया के शब्दों में अदालत ने 8 अक्तूबर को इंतख़ाबात करवाने के इलेक्शन कमीशन के हुक्मनामे को 'गैर-आईनी क़रार देते हुए कहा कि इलेक्शन कमीशन ने अपने दायरा इख़्तियार से तजावुज़ (सीमोल्लंघन) किया. 8 अक्तूबर तक चुनाव टलते तो इस दौरान राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बंदियाल दोनों ही कुर्सी से हट जाते.
संघीय कैबिनेट के सूत्रों ने कहा, सुप्रीम कोर्ट का फैसला अल्पमत का फैसला है, इसलिए कैबिनेट इसे खारिज करती है. पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज (पीएमएल-एन) की वरिष्ठ उपाध्यक्ष और मुख्य आयोजक मरियम नवाज ने ट्विटर पर लिखा कि आज का फैसला उस साजिश का आखिरी झटका है, जो पीठ के चहेते इमरान खान को संविधान को फिर से लिखकर और पंजाब सरकार को थाली में पेश करके शुरू किया गया था. अब देश में मार्शल लॉ का खतरा फिर से मंडराने लगा है.
सेना की भूमिका
पाकिस्तानी मीडिया का कहना है कि सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर अभी चुनाव कराने के पक्ष में नहीं हैं. ऐसे में अब कई विश्लेषक आशंका जता रहे हैं कि देश में या तो आपातकाल लग सकता है या फिर मार्शल लॉ.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के एक दिन पहले विदेशमंत्री बिलावल भुट्टो ने कहा था कि देश में मार्शल लॉ लग सकता है. सेना तैयार नहीं है, तो चुनाव कराना असंभव होगा. अखबार डॉन के अनुसार जनरल मुनीर जल्दी या अलग-अलग चुनाव कराने के पक्ष में नहीं हैं.
वे चाहते हैं कि पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा के चुनाव शहबाज़ शरीफ सरकार का कार्यकाल खत्म होने के बाद एक साथ कराए जाएं. संघीय सरकार मानती है कि अदालत ने यह फैसला 10 सदस्यों की पूर्ण पीठ के माध्यम से किया होता, तब उसे स्वीकार किया जा सकता था, पर जिस तरीके से मुख्य न्यायाधीश ने इस मसले को स्वतः संज्ञान (अज़खु़द नोटिस) में लिया और बेंच में रद्दोबदल किया, उससे न्यायालय पर से विश्वास उठ गया है.
एकसाथ चुनाव
शासन मानता है कि देश में सभी चुनाव एकसाथ होने चाहिए. वस्तुतः पद से हटाए जाने के बाद से इमरान खान की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है. सरकार को डर है कि वे फिर से चुनाव जीतकर आ जाएंगे. अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि इमरान खान चुनाव लड़ पाएंगे या नहीं. उनपर गिरफ्तारी की छाया है.
इतना ही नहीं पिछले साल अक्तूबर में चुनाव आयोग ने उन्हें पाँच साल तक के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया था. इमरान ने इस फैसले के खिलाफ अदालत में याचिका दायर की है. इमरान खान पर देश की सेना को बदनाम करने और आर्थिक-संकट पैदा करने वगैरह के आरोप भी हैं.
सरकार की रणनीति है कि यदि सूबों के चुनाव चल जाएं, तो फिर राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव टालना आसान हो जाएगा. इस साल जनवरी में पंजाब विधानसभा भंग हो गई थी. संविधान के अनुसार इसके बाद 90 दिन के भीतर चुनाव होने चाहिए, पर देश का चुनाव आयोग मानता था कि किन्हीं कारणों से चुनाव टालने होंगे. इसपर सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों की बेंच ने 14 मई को चुनाव कराने का आदेश दिया है.
राष्ट्रीय चुनाव
इस साल मध्य-अक्तूबर के पहले राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव भी होने हैं. पिछले साल अप्रेल में सरकार से बाहर हुए पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान फौरन चुनाव कराने की माँग करते रहे हैं. पंजाब विधानसभा पर भी उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ (पीटीआई) का बहुमत था.
केंद्र पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने पंजाब विधानसभा को समय से पहले भंग करा दिया था. पंजाब के अलावा खैबर पख्तूनख्वा सूबे में भी चुनाव होने हैं. मंगलवार 4 अप्रेल को जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया, संघीय सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि हम इस फैसले को नहीं मानेंगे.
यह इमरान खान समर्थक जजों का फैसला है. यह केवल तीन जजों की बेंच थी. छह जज इसमें शामिल होने से इनकार कर चुके थे. केवल राजनेता ही नहीं, सुप्रीमकोर्ट के कुछ जज भी मानते हैं कि जब चार जजों की एक बेंच ने पहले ही फैसला सुना दिया था कि जबतक लाहौर और पेशावर के हाईकोर्टों में इसी मामले की सुनवाई चल रही है, तीन जजों की बेंच इस मामले की सुनवाई के लिए अधिकृत ही नहीं थी.
बढ़ती जटिलताएं
इसके अलावा जस्टिस काज़ी फैज़ इसा की अध्यक्षता में बनी एक बेंच ने व्यवस्था दी है कि जब तक अदालत नियम नहीं बना देती, सुप्रीम कोर्ट के जज, स्वतः संज्ञान (अज़खु़द नोटिस) के आधार पर मुकदमों को नहीं लेंगे. संविधान का अनुच्छेद 184(3) में स्वतः संज्ञान में लेने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को दिया है, मुख्य न्यायाधीश को नहीं.
इस दौरान 29-30 मार्च को संसद के दोनों सदनों ने विधेयक पास किया कि मुख्य न्यायाधीश को स्वतः संज्ञान लेकर सुनवाई का अधिकार नहीं है. इस विधेयक को राष्ट्रपति आरिफ अल्वी ने वापस कर दिया.
अब सरकार के सामने विकल्प है कि वह इस विधेयक को संसद के संयुक्त अधिवेशन से पास कराए, जिसके बाद राष्ट्रपति को 10 दिन के भीतर उसपर दस्तखत करने होंगे.
इन सब बातों से जटिलताएं बढ़ती जा रही हैं. राष्ट्रपति और तीन जज इस समय सरकार के साथ नहीं हैं और सेना उसके साथ दिखाई पड़ रही है. परिणाम क्या होगा, भी कहना मुश्किल है.
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )