देस-परदेश : पश्चिम एशिया में डी-अमेरिकनाइज़ेशन

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 28-03-2023
देस-परदेश : पश्चिम एशिया में डी-अमेरिकनाइज़ेशन
देस-परदेश : पश्चिम एशिया में डी-अमेरिकनाइज़ेशन

 

permodप्रमोद जोशी

बुधवार 22 मार्च को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने रूस की अपनी यात्रा का समापन किया और अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति का मुकाबला करने के लिए एक नई रणनीति की शुरुआत की. उन्होंने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ ‘समान, खुली और समावेशी सुरक्षा-प्रणाली’ बनाने का संकल्प करते हुए अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के खिलाफ नए मोर्चे की शुरुआत की है.

गत 10 मार्च को सऊदी अरब और ईरान के बीच समझौता कराते हुए चीन ने दो संदेश दिए हैं. एक, चीन महत्वपूर्ण और जिम्मेदार शक्ति है और दूसरे यह कि वह अमेरिका के दबाव में आने वाला नहीं है. चीन ने पश्चिम एशिया में हस्तक्षेप करके अपने आपको शांति-स्थापित करने वाले देश के रूप में स्थापित किया है. साथ ही अमेरिका की छवि झगड़े कराने वाले देश के रूप में बनी है. इसे पश्चिम एशिया में ‘डी-अमेरिकनाइज़ेशन’ की शुरुआत कहा जा रहा है.

15 अगस्त, 2021 को जब तालिबान ने काबुल पर कब्ज़ा किया था, तब भी ऐसा ही कहा गया था. जब तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पश्चिमी फ्री-मार्केट की अवधारणा से जुड़ी है और संरा और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं कारगर हैं, तब तक यह मान लेना आसान नहीं है कि अमेरिका का वर्चस्व खत्म हो जाएगा. अलबत्ता पश्चिम एशिया के घटनाक्रम ने सोचने-विचारने के लिए कुछ नए तथ्य उपलब्ध कराए हैं.

ईरान का प्रतिरोध

अमेरिका के मुख्य प्रतिस्पर्धी के रूप में चीन का नाम लिया जा रहा है, पर हमें ईरान के प्रतिरोध पर भी ध्यान देना चाहिए. ईरान ने चार बातें साफ की हैं. एक, अरब देशों के साथ रिश्तों को सुधारने में उसे दिक्कत नहीं हैं. वह चीन पर भरोसा करता है. उसे अमेरिका पर भरोसा कत्तई नहीं है. चौथी, यूक्रेन युद्ध में वह रूस का समर्थक है. इसके प्रमाण हैं ईरान में बने सैकड़ों कामिकाज़े ड्रोन, जिनके अवशेष यूक्रेन के नागरिक इलाकों में मिले हैं.

इन सब बातों के अलावा वह अपने नाभिकीय कार्यक्रम को अमेरिका-समर्थित विश्व-व्यवस्था के हवाले करने को तैयार नहीं है. अब स्थिति यह है कि ईरान में हिजाब को लेकर चल रहे आंदोलन के खिलाफ सरकारी कार्रवाई छठे महीने में प्रवेश कर गई है. दूसरी तरफ मार्च के तीसरे हफ्ते में ईरान, चीन और रूस की नौसेनाओं ने ओमान की खाड़ी में संयुक्त युद्धाभ्यास किया है, जिससे आप अपने निष्कर्ष खुद निकाल सकते हैं.

russia china

चीन-रूस खेमा

फिलहाल कुछ बातें स्पष्ट होनी हैं. ईरान ने खुद को लंबे अरसे तक अमेरिकी आर्थिक-पाबंदियों के लिए तैयार कर लिया है. पर यह टैक्टिकल समझ है. इसके पीछे दूरगामी दृष्टि नहीं है. काफी बातें उसे चीन से मिलने वाली सुविधाओं पर निर्भर करेंगी. वह चीन को सस्ता तेल दे रहा है. दूसरी तरफ चीन ने वहाँ 400अरब डॉलर के निवेश का वायदा किया जरूर है, पर उसके संकेत अभी नहीं मिले हैं. 

अमेरिका से कन्नी काटने और चीन को उसका स्थानापन्न बनाने की कोशिशें सफल भी हुईं, तो अगले एक दशक में भी वे किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचेंगी. सऊदी अरब का अमेरिका से मोहभंग हुआ है, पर चीन अब उसके वास्ते अमेरिका की जगह ले लेगा, ऐसा नहीं लगता. सऊदी अरब और ईरान दोनों ब्रिक्स में शामिल होना चाहते हैं. ईरान अभी एससीओ में पर्यवेक्षक है और सऊदी अरब ने उसकी सदस्यता प्राप्त करने की अर्जी दी है. इन दोनों संगठनों में चीन-रूस का वर्चस्व है.

अमेरिकी ताकत

1945 में संरा की स्थापना के पीछे अमेरिका की ताकत और समझ थी. अमेरिका के पास विश्व-व्यवस्था का एक दर्शन भी था और अभी है. युद्धग्रस्त यूरोप के पुनर्निर्माण में उसकी भूमिका थी. उसने सहायता करके देशों की दोस्ती जीती थी, पर उसकी इस छवि को इराक और अफगानिस्तान में धक्का भी लगा.

उसके बरक्स चीनी कुव्वत क्या है? क्या चीन वैसी छवि बना सकेगा, जैसी अमेरिका की थी या है? क्या उसके पास विश्व-व्यवस्था का दर्शन है? चीन पश्चिम एशिया के अलावा अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है. पिछले हफ्ते होंडुरास ने ताइवान का पल्ला छोड़कर चीन से नाता जोड़ा है. इसके पहले निकरागुआ और कोस्टारिका ने भी इसी रास्ते पर जाने का निश्चय किया. इसके पीछे चीनी पूँजी निवेश की उम्मीदें हैं.

पश्चिम एशिया में राजनीतिक-दृष्टि से सबसे बड़ा काँटा फलस्तीन की समस्या है. पाँच साल पहले चीन ने फलस्तीनियों और इज़रायल के बीच शांति-वार्ता की पहल की थी. तब शी चिनफिंग ने इस समस्या के समाधान के लिए चार-सूत्री प्रस्ताव दिया था. इसके अलावा भी चीन इस समस्या के समाधान के प्रयास करता रहा है.

america

अमेरिकी पराभव

अब दो सवाल है. क्या यह अमेरिका के पराभव की शुरुआत है? या चीन और रूस की रणनीति विफल होगी? तीसरा सवाल है कि भारत की पश्चिम एशिया में भूमिका क्या होगी? क्या सऊदी अरब-ईरान समझौते के माध्यम से चीन ने अमेरिका के साथ भारत को भी शह दे दी है? इस समझौते का हालांकि भारत ने स्वागत किया है, पर प्रतिक्रिया में हुई देरी से लगता है कि किसी स्तर पर संशय है. पश्चिम एशिया में भारत की डिप्लोमेसी काफी हद तक अमेरिका से जुड़ी है.  

अमेरिका का ध्यान हिंद-प्रशांत और यूक्रेन पर है. उसने इस इलाके की जिम्मेदारी इज़रायल और भारत पर छोड़ दी थी. भारत आई2यू2गठबंधन में शामिल हुआ था, इस उम्मीद से कि इसमें सऊदी अरब भी साझीदार बनेगा. बुनियादी जरूरत टेक्नोलॉजी, मैनपावर और आर्थिक रूपांतरण की है, जो पेट्रोलियम-कारोबार का दौर खत्म होने के बाद शक्ल लेगा. इन सब बातों के अलावा सवाल है कि क्या फलस्तीन-समस्या के न्यायपूर्ण समाधान में इज़रायल मददगार बनेगा?

नए समीकरण

अब नए समीकरण बनकर उभरेंगे. सऊदी अरब और सीरिया के बीच भी दौत्य-संबंध फिर से कायम होने जा रहे हैं. सऊदी शहज़ादे मुहम्मद बिन सलमान ने क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धियों, कतर और तुर्की के साथ भी रिश्ते सुधारने की प्रक्रिया शुरू की है. उधर शी और पुतिन ने नई व्यवस्था और आर्थिक सहयोग से जुड़े दो संयुक्त बयानों पर हस्ताक्षर किए हैं. शी जिनपिंग ने तीन दिन की मॉस्को-यात्रा यूक्रेन संघर्ष में शांतिदूत के तौर पर की थी, पर उन्हें अमेरिका से ठंडी प्रतिक्रिया मिली है.

चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने कहा कि यूक्रेन संघर्ष में चीन तटस्थ है. हमारा कोई स्वार्थी मकसद नहीं है, पर हम मूक दर्शक भी नहीं हैं. चीन के सार्वजनिक बयानों और उनके पीछे की मंशा को पढ़ पाना भी आसान नहीं है. अलबत्ता वैश्विक महाशक्तियों की भंगिमाओं को देखते हुए स्पष्ट है कि टकराव अब खुले मैदान में आ गया है. ऐसे में भारत जैसे देशों के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण समय है.

india china

गठबंधन में दरार

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में टकराव ने अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान के गठबंधन ‘क्वाड’ और ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के गठबंधन ‘ऑकस’ की शक्ल ले ली है, जिसमें बदलाव होने की उम्मीद नहीं है. पर पूर्व में बढ़ते दबाव का जवाब चीन ने पश्चिम एशिया में देने का प्रयास किया है, जहाँ अमेरिकी गठबंधन में दरार पड़ने के आसार हैं. इससे खेल रोचक हो गया है.

सवाल है कि अब्राहम-समझौते का क्या होगा? अब्राहम समझौता, अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात और इज़रायल के बीच सितंबर 2020में हुआ था. इस समझौते में  बाद में सूडान, बहरीन और मोरक्को भी शामिल हो गए थे. इस समझौते ने इज़रायल और अरब देश के बीच संबंधों के सामान्यीकरण का रास्ता खोला था. क्या अरब देश इस रास्ते पर बढ़ेंगे या परिस्थितियाँ बदलेंगी?

यह समझौता इस इलाके में जन्मे तीन एकेश्वरवादी धर्मों, इस्लाम, ईसाई और यहूदी धर्मों के प्रतीक रूप में 'अब्राहम समझौता' कहा जाता है. सभी की जड़ें पैगंबर अब्राहम में हैं. समझौते के पहले ही इज़रायल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच संबंध थे, पर आधिकारिक घोषणा ने रिश्तों को आगे बढ़ाने का मौका तैयार किया.

जून 2021में अबू धाबी में इज़रायली दूतावास खोलने के अलावा, दोनों देशों ने हवाई यात्रा, अर्थव्यवस्था आदि में विभिन्न समझौतों पर भी हस्ताक्षर किए है. संयुक्त अरब अमीरात ने भी तेल अवीव में अपना दूतावास भी खोला है.संयुक्त अरब अमीरात ने इज़रायल में 10 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की थी.

इज़रायल, संयुक्त अरब अमीरात और जॉर्डन के बीच तीन-तरफ़ा व्यापार समझौता हुआ. यूएई की एक फर्म जॉर्डन में सौर ऊर्जा केंद्र बनाएगी, जिससे इज़रायल को बिजली मिलेगी. दूसरी तरफ  इज़रायल या तो खारी पानी के शोधन का नया संयंत्र बनाएगा या जॉर्डन को ज्यादा पानी देगा.

शी की पहलकदमी

हाल के दिनों में चीन ने अरब देशों और ईरान के साथ संपर्क बढ़ाए हैं. पिछले साल शी चिनफिंग ने खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के देशों की बैठक अपने यहाँ बुलाई थी. उसके बाद शी चिनफिंग खुद सऊदी अरब की यात्रा पर गए थे. फिर चीनी उपराष्ट्रपति हू चुनहुआ ईरान गए और फरवरी में ईरान के राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी चीन गए थे.

इससे पता लगता है कि चीन के प्रति ईरान में काफी सद्भावना है. और यह भी लगता है कि सऊदी अरब को यह बात समझ में आई है कि ईरान से काम कराना चीन के बस की ही बात है. सऊदी अरब यमन की लड़ाई को खत्म कराना चाहता है.

इतना होने के बाद भी कुछ किंतु-परंतु हैं. सऊदी-ईरान समझौता हो जाने मात्र से पश्चिम एशिया की शेष समस्याओं का समाधान नहीं होगा. साथ ही ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम को लेकर पश्चिमी देशों के साथ समझौता नहीं हो जाएगा.

america china

बदलते रिश्ते

अमेरिका के साथ रिश्ते बिगाड़कर चीन का काम भी आसान नहीं होगा. दूसरे ज़रूरी नहीं कि ईरान भी चीन की हरेक सलाह को मान लेगा. सऊदी अरब के साथ ईरान के राजनयिक संबंध स्थापित हो जाने मात्र से दोनों देशों के रिश्ते सुधर नहीं जाएंगे. दोनों देशों के धार्मिक अंतर्विरोध बने रहेंगे. अतीत में दोनों देशों के बीच तीन बार राजनयिक-संबंध टूटे हैं.

रिश्तों का फौरी तौर पर सामान्य हो जाना एक बात है और उसमें दूरगामी सुधार दूसरी बात है. यदि भविष्य में रिश्ते बिगड़े, तो उसके छींटे चीन पर भी पड़ेंगे. सऊदी-अरब और ईरान के रिश्तों के बाद क्या इज़रायल और ईरान के रिश्तों को सामान्य बनाने में चीन की कोई भूमिका होगी ?

ईरान इस समय चीन के प्रभाव में है. संभव है वह चीन की बातें मान ले. ऐसा हुआ, तो चीन का वैश्विक प्रभाव बढ़ेगा. पर ऐसा नहीं हुआ, तो इस पहलकदमी के जोखिम हैं. संभव है कि कोई तीसरा रास्ता निकल कर आए. 

डी-अमेरिकनाइज़ेशन

कुछ विशेषज्ञ इसे पश्चिम एशिया से अमेरिका को बाहर करने की कोशिश मान रहे हैं. पर अमेरिका को प्रति शत्रुता रखकर वैश्विक राजनीति में सफल होना आसान नहीं है. संभव है कि अमेरिका की नज़रों में चीन का महत्व बढ़े, पर तभी जब उसकी छवि प्रतिस्पर्धी की नहीं, सहयोगी की होगी.

दूसरी तरफ अमेरिका का नज़रिया भी महत्वपूर्ण है. यदि वह चीन के बढ़ते प्रभाव को नकारात्मक रूप में लेगा और चीन पर काबू पाने की रणनीति पर चलेगा, तो उसके निहितार्थ दूसरे होंगे.

सऊदी अरब इस इलाके में अमेरिका का करीबी देश था, पर पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या के बाद रिश्तों में खलिश आ गई. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने शहजादा मुहम्मद बिन सलमान का वैश्विक हुक्का-पानी बंद कराने की धमकी दी थी. ऐसा कुछ हुआ नहीं, बल्कि पिछले साल जुलाई में बाइडन सऊदी अरब के दौरे पर आए थे. बहरहाल यह नहीं मान लेना चाहिए कि सऊदी अरब एक झटके में अमेरिका का दामन झटक देगा. इसलिए इस बात का इंतज़ार कीजिए कि अमेरिका का अगला कदम क्या होगा.

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )

यह भी पढ़ें: पानी पर कब्जे की लड़ाई या सहयोग ?