देस-परदेस : अमेरिकी-चुनाव की भारतीय संगति और विसंगतियाँ

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 05-11-2024
Desh-Pardes: Indian consistencies and inconsistencies of US elections
Desh-Pardes: Indian consistencies and inconsistencies of US elections

 

parmodप्रमोद जोशी

सब कुछ सामान्य रहा, तो अगले 24 से 48 घंटों में पता लग जाएगा कि अमेरिका के अगले राष्ट्रपति की कुर्सी किसे मिलेगी. इस चुनाव पर सारी दुनिया की निगाहें हैं. अमेरिका की विदेश-नीति में भले ही कोई बुनियादी बदलाव नहीं आए, पर इस चुनाव के परिणाम का कुछ न कुछ असर वैश्विक राजनीति पर होगा. 

अमेरिकी चुनाव भी दूसरे देशों की तरह जनता की ज़िंदगी और सरोकारों से जुड़ा होता है. इसमें भोजन और आवास, रोजमर्रा की वस्तुओं की कीमत, और गर्भपात कानून वगैरह शामिल हैं. खासतौर से मुद्रास्फीति और ब्याज की दरें. विदेश-नीति इसमें इसलिए आती है, क्योंकि उसका असर अंदरूनी-नीतियों पर पड़ता है.

2017 से 2020 तक डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल के दौरान अमेरिका ने वैश्विक-ज़िम्मेदारियों से हाथ खींचने शुरू कर दिए थे. इसमें जलवायु-परिवर्तन और संयुक्त राष्ट्र से जुड़े कार्यक्रम शामिल थे. वहीं, जनवरी 2021में अपना कार्यभार संभालने के बाद जो बाइडेन ने कहा, ‘अमेरिका इज़ बैक, हमारी विदेश-नीति के केंद्र में डिप्लोमेसी की वापसी हो रही है.’

भारत-अमेरिका साझेदारी

भारत के नज़रिए से तब भी कुछ सवाल थे और अब भी हैं. यह तय है कि दोनों देशों की साझेदारी बनी रहेगी, क्योंकि यह राष्ट्रीय हितों पर आधारित है. यह एक नया दौर है, जो 1998के एटमी धमाकों के फौरन बाद शुरू हुआ है. उस वक्त भारत-अमेरिका रिश्तों पर फिर से विचार शुरू हुआ था, जिसके परिणाम इस सदी के शुरुआती वर्षों से देखने को मिल रहे हैं.

यह प्रक्रिया अभी जारी है, अलबत्ता अमेरिका की आंतरिक-राजनीति में भारत की तुलना में चीन, ईरान, रूस और पश्चिम एशिया के देश ज्यादा मायने रखते हैं. इसीलिए वहाँ के चुनाव के दौरान भारत का जिक्र बहुत ज्यादा होता नहीं है.दूसरी तरफ वहाँ सक्रिय दोनों राजनीतिक-दलों के साथ भारत के संबंध अच्छे रहे हैं. ट्रंप के कार्यकाल में उनकी प्रतिस्पर्धी डेमोक्रेटिक पार्टी ने भारत की कश्मीर-नीति को लेकर कड़ा रुख अपनाया था, पर जैसे ही उनका प्रशासन आया, रुख बदल गया.

अमेरिका-भारत साझेदारी मजबूत वाणिज्यिक संबंधों, रक्षा सहयोग और जियो-पॉलिटिक्स से जुड़े साझा-विचारों पर आधारित है. आव्रजन से जुड़ी नीतियों की भी इसमें बड़ी भूमिका होगी, क्योंकि भारत के इंजीनियरों, डॉक्टरों और कुशल-कर्मियों को अमेरिका की और अमेरिका को उनकी ज़रूरत है.

भारतवंशी-वोटर

ट्रंप आएँ या कमला, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बरक्स भारत की महत्वपूर्ण भूमिका बनी रहेगी. इस वजह से अमेरिकी राजनीति और मीडिया भी अनेक मतभेदों को पीछे रखने की सलाह देता है. हाल के वर्षों में भारत की आंतरिक राजनीति ने अमेरिका के भारतवंशियों का मत-पद्धति को प्रभावित किया है.

अमेरिका के सेंसस ब्यूरो के मुताबिक़ 2020 में भारतीय मूल के अमेरिकियों की संख्या क़रीब 44लाख थी. यानी कि देश के कुल वोटरों में भारतवंशियों की संख्या क़रीब एक फ़ीसदी के आसपास है. ये एक फ़ीसदी मतदाता काफ़ी अहम हैं.स्विंग स्टेट्स कहलाने वाले अमेरिका के सात राज्यों की भूमिका राष्ट्रपति चुनाव में काफ़ी अहम होती है. ये सात राज्य हैं-विस्कांसिन, नेवादा, मिशीगन, नॉर्थ कैरोलाइना, एरिज़ोना, जॉर्जिया और पेंसिल्वेनिया.

अमेरिकी-भारतवंशी परंपरा से डेमोक्रेटिक-पार्टी के समर्थक रहे हैं, पर 2020 के बाद से इसमें गिरावट देखी गई है. इस बार डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से कमला हैरिस प्रत्याशी हैं, जिन्हें भारतवंशी के रूप में देखा जा रहा है. सवाल है कि क्या भारतवंशी वोटर उनका साथ देंगे?

ट्रंप का दीवाली-संदेश

इस सवाल का जवाब देने के पहले डोनाल्ड ट्रंप के दीपावली-संदेश को पढ़ने की ज़रूरत भी है, उन्होंने बांग्लादेशी हिंदुओं और नरेंद्र मोदी को लेकर सोशल मीडिया एक्स पर एक पोस्ट किया है, जो चर्चा का विषय बना है.उन्होंने लिखा, बांग्लादेश में हिंदुओं, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ बर्बर हिंसा की कड़ी निंदा करता हूँ. भीड़ उन पर हमला कर रही है, लूटपाट कर रही है जो कि पूरी तरह से अराजकता की स्थिति है.

डेमोक्रेटिक उम्मीदवार कमला हैरिस और राष्ट्रपति जो बाइडेन को घेरे में लेते हुए ट्रंप ने लिखा, मेरे कार्यकाल में ऐसा कभी नहीं होता. कमला और जो (जो बाइडेन) ने अमेरिका समेत पूरी दुनिया में हिंदुओं की अनदेखी की है…हम कट्टरपंथी वामपंथियों के धर्म-विरोधी एजेंडे के ख़िलाफ़ हिंदू अमेरिकियों की भी रक्षा करेंगे.

बांग्लादेश से जुड़ी नीति

उनके इस बयान को पर्यवेक्षक दो तरीके से देख रहे हैं. एक हिंदू-वोटर को रिझाने का प्रयास और दूसरे अमेरिका की दक्षिण एशिया-नीति को लेकर ट्रंप का दृष्टिकोण. अमेरिका के वे पहले बड़े राजनेता हैं, जिन्होंने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार को लेकर कुछ बोला है, जबकि कमला हैरिस ने मौन साध रखा है.

अमेरिकी-मीडिया ने बांग्लादेश की कुछ घटनाओं का ज़िक्र किया ज़रूर है, पर वे मानते हैं कि बांग्लादेश की घटनाओं को भारतीय-मीडिया में असंतुलित तरीके से बहुत ज्यादा उछाला गया है. अब ट्रंप ने ऐसा बयान देकर भविष्य में बांग्लादेश को लेकर अमेरिकी-नीति के संदर्भ में एक प्रश्न-चिह्न तो खड़ा किया ही है.

स्विंग स्टेट्स

ट्रंप के इस ट्वीट को लेकर भारतीय पर्यवेक्षक मानते हैं कि दीपावली के दिन और चुनाव से पाँच दिन पहले जारी किए गए ट्रंप के संदेश का मतलब साफ़ है. स्विंग स्टेट्स में भारतीय अमेरिकियों का वोट बहुत अहम है.2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में नौ प्रांतों में से पाँच में भारतीय अमेरिकियों की संख्या जीत-हार के अंतर से अधिक थी. इन पाँच में से चार प्रांत जो बाइडेन के पक्ष में गए थे.

परिणाम जो भी हो, सामरिक-स्थिति, आर्थिक क्षमता और सैन्य-सहयोग के कारण अमेरिका के महत्वपूर्ण भागीदारों में भारत का नाम काफी आगे है. वैश्विक-राजनीति में आक्रामक रुख और कारोबारी-प्रतिद्वंद्विता के कारण चीन, अमेरिका का प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बन गया है. भारत के साथ चीन की पुरानी प्रतिद्वंद्विता उसे अमेरिका के करीब ले जाती है.

ऐतिहासिक-महत्व

1947 के बाद जब भारत नए राष्ट्र के रूप में उभरा, तो राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने ‘संप्रभु स्वतंत्र राष्ट्रों के विश्व समुदाय में भारत की नई और उन्नत स्थिति’ का जश्न मनाते हुए बयान जारी किया था. वे मानते थे कि एशिया में स्वतंत्र संस्थाओं के भविष्य के लिए भारत की स्थिरता आवश्यक है.

1949 में जवाहर लाल नेहरू की अमेरिका-यात्रा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने के दो सप्ताह से भी कम समय बाद हुई थी. ट्रूमैन और उनके प्रशासन ने तभी समझ लिया था कि कम्युनिस्ट चीन के जवाब में एक संभावित लोकतांत्रिक और  उदारवादी-प्रतिद्वंद्वी के रूप में भारत उभरेगा.

ट्रूमैन से लेकर अब तक के डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों ने इस धारणा को अपनाया है कि भारत का उदय, अपने आप में, अमेरिका के लिए अच्छा है. उसके आर्थिक रूप से तेज़ी से बढ़ने और चीन के मुकाबला तैयार होने में ही हमारी भलाई है. वहीं ज्यादातर रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों ने भारत के साथ रिश्तों को इस कारोबारी नज़रिए से देखा कि भारत की आर्थिक वृद्धि अमेरिकी कंपनियों को लाभ पहुँचाएगी.

ट्रंप-प्रशासन

2017-2020 में ट्रंप प्रशासन के दौरान चीन के साथ प्रतिस्पर्धा ने भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी को और गहरा करने में मदद की. 2017की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में न केवल भारत का प्रमुखता से उल्लेख किया गया था, बल्कि 2017में जब 'फ्री एँड ओपन इंडो पैसिफिक' की अवधारणा को लागू किया गया, तो भारत प्रमुख देशों में से एक था.

हालांकि क्वॉड की अवधारणा ट्रंप-प्रशासन से पहले की है, पर उसने काफी कुछ शक्ल ट्रंप के कार्यकाल में ली. उसके पहले बराक ओबामा प्रशासन ने 2016में भारत को एक प्रमुख रक्षा साझेदार के रूप में रेखांकित किया था. उसके बाद भारत के साथ सामरिक महत्व के चार समझौते हुए थे.

राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अतीत में पहले सीनेट की विदेशी मामलों की समिति के अध्यक्ष के रूप में और बाद में जब वे बराक ओबामा के कार्यकाल में उपराष्ट्रपति थे, अमेरिका की भारत-समर्थक नीतियों को आगे बढ़ाया. उपराष्ट्रपति बनने के काफी पहले सन 2006 में उन्होंने कहा था, ‘मेरा सपना है कि सन 2020में अमेरिका और भारत दुनिया में दो निकटतम मित्र देश बनें.’ उन्होंने ही कहा था कि भारत-अमेरिकी रिश्ते इक्कीसवीं सदी को दिशा प्रदान करेंगे.

नई सहस्राब्दी में जसवंत सिंह और अमेरिकी उप-विदेश मंत्री स्ट्रोब टैलबॉट के बीच दो साल में 14बार मुलाक़ातें हुईं. मार्च 2000में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत का दौरा किया. क्लिंटन के बाद  जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में न्यूक्लियर डील हुआ, जिसने दोनों देशों के बीच रिश्तों को सामरिक स्तर पर मज़बूती दी.

सितंबर 2008में न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की ओर से भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को स्वीकृति दिए जाने के बाद भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘इस समझौते ने भारत के परमाणु ऊर्जा से जुड़ी तकनीकों की मुख्य धारा से अलग-थलग रहने और तकनीक से वंचित रखने के दौर को खत्म किया है.’

मोदी की अमेरिका-यात्रा

जून 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका-यात्रा कई मायनों में अभूतपूर्व थी. वह तीसरा मौका था, जब भारत के किसी नेता को अमेरिका की आधिकारिक-यात्रा यानी ‘स्टेट-विज़िट’ पर बुलाया गया था. जिस प्रकार के समझौते तब अमेरिका में हुए थे, वे एक दिन का काम नहीं था.

भारत को लेकर अमेरिकी राजनीति में दो प्रकार के विचार हमेशा रहे हैं. एक यह कि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएँ भारत की पहचान हैं, और दोनों देशों की मैत्री का सबसे बड़ा आधार यही है. दूसरे, भारत ने सोवियत संघ का साथ देकर अमेरिकी हितों के विपरीत काम किया है. तीसरे, हिंदू-राष्ट्रवाद का विरोध. अमेरिकी मीडिया में इस बात पर सहमति है कि राष्ट्रीय-हित अमेरिका को भारत के करीब ले जा रहे हैं, मूल्य और सिद्धांत नहीं.

अमेरिकी मीडिया में इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि आज भी संरा में भारत अमेरिका का खुलकर समर्थन नहीं करता. 2014से 2019के बीच संरा महासभा में हुए मतदानों में भारत के केवल 20फीसदी वोट ही अमेरिका के समर्थन में पड़े. इतना ही नहीं अमेरिका के वैश्विक-समझौतों से भारत दूर रहता है. वह किसी भी अमेरिकी व्यापारिक-समझौते में शामिल नहीं हुआ है.

मोदी की यात्रा के दौरान 'द वाशिंगटन पोस्ट' ने लिखा, इस चमकदार-यात्रा का शुक्रवार को इस धारणा के साथ समापन हुआ कि जब अमेरिका के सामरिक-हितों की बात होती है, तो वे मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों पर मतभेदों को न्यूनतम स्तर तक लाने के तरीके खोज लेते हैं.

वॉशिंगटन पोस्ट मोदी सरकार के सबसे कटु आलोचकों में शामिल हैं, पर इस यात्रा के महत्व को उसने भी स्वीकार किया है. मोदी के दूसरे कटु आलोचक 'द न्यूयॉर्क टाइम्स' ने अपने पहले पेज पर अमेरिकी कांग्रेस में 'नमस्ते' का अभिवादन करते हुए नरेंद्र मोदी फोटो  छापी है.

ऑनलाइन अखबार हफपोस्ट ने लिखा कि नरेंद्र मोदी की अमेरिकी यात्रा की आलोचना करने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं. यानी मीडिया ने इस विचार को बनाने का काम किया कि भारत को ज्यादा मत छेड़ो.

भावी-रिश्तों की दिशा

बहरहाल भारत-अमेरिका साझेदारी की नीतिगत रूपरेखा 5नवंबर को राष्ट्रपति पद पर चाहे जो भी जीते, जारी रहेगी और कुछ नए और कुछ पुराने मतभेद भी कायम रहेंगे. पन्नू-निज्जर प्रसंग चलते रहेंगे. इनकी वजह से संबंध बिगड़ेंगे नहीं.कुछ लोगों का विचार है कि मानवाधिकार के सवाल उठाकर भारत के साथ रिश्तों को अमेरिका पुनर्परिभाषित करेगा, पर वे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रेरक सिद्धांतों को नहीं समझते हैं. बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की भूमिका और उसकी दिशा को देखना होगा.

(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)

 

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