देस-परदेस: यूरोप में बढ़ती भारतीय भूमिका

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  onikamaheshwari | Date 27-08-2024
Desh-Pardes: Growing Indian role in Europe
Desh-Pardes: Growing Indian role in Europe

 

permodप्रमोद जोशी

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूक्रेन-यात्रा ने भारतीय विदेश-नीति की स्वतंत्रता को पुष्ट करने के साथ यूरोप में नई भूमिका को भी रेखांकित किया है. यूक्रेन में मोदी ने दृढ़ता से कहा, ‘हम तटस्थ नहीं, युद्ध के विरुद्ध और शांति के पक्ष में हैं. यह बात हमने राष्ट्रपति पुतिन से भी कही है कि यह दौर युद्ध का नहीं है.’ उनके इस दौरे से यूरोप में भारत के दृष्टिकोण को बेहतर और साफ तरीके से समझने का आधार तैयार हुआ है. इससे वैश्विक-राजनीति में भारत का कद ऊँचा होगा और यूक्रेन के साथ हमारे द्विपक्षीय-संबंध सुधरेंगे, जो युद्ध के बाद कटु हो गए थे. 

यूक्रेन और रूस के युद्ध पर इस यात्रा के पूरे असर को देखने और समझने के लिए हमें कुछ समय इंतज़ार करना होगा. लड़ाई की जटिलताएं आसानी से सुलझने वाली भी नहीं हैं. पहले इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि यह झगड़ा यूक्रेन और रूस के अलावा परोक्षतः अमेरिका और रूस के बीच का भी है. 
 
भारत ने स्पष्ट किया है कि हम तीनों पक्षों अमेरिका, यूरोप और रूस के साथ बेहतर संबंध चाहते हैं. किसी एक को नजरंदाज नहीं करेंगे. दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट है कि भारत और अमेरिका के बीच वैश्विक-सहयोग लगातार बढ़ रहा है. इस सिलसिले में मोदी की इस यात्रा के साथ रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की जापान और अमेरिका-यात्राओं के निहितार्थ को भी समझना चाहिए. हाल में मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहीम की भारत-यात्रा को भी इसी रोशनी में देखना होगा. 
 
यूक्रेन-युद्ध
 
इस युद्ध को खत्म कराने में भारत की भूमिका हो भी सकती है, पर पहले समझना होगा कि दोनों-तीनों पक्षों की प्रतिक्रिया क्या है. कीएव आने से पहले मोदी ने कहा था कि भारत बातचीत की प्रक्रिया में प्रगति का समर्थन करेगा और सैन्य संघर्ष के राजनयिक समाधान के लिए किसी भी भूमिका में शामिल होने के लिए तैयार है. 
 
बहुत कम वैश्विक नेता इस वक्त ऐसे हैं, जिनका मॉस्को और कीएव में एक जैसा स्वागत होता है. यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने कहा कि अच्छी शुरुआत है. यह यात्रा दोनों देशों के लिए ऐतिहासिक है और मैं पीएम मोदी का आभारी हूँ. पीएम मोदी 23 अगस्त को यूक्रेन पहुँचे, जो यूक्रेन का 'राष्ट्रीय ध्वज दिवस' भी है. इस दृष्टि से इसका प्रतीकात्मक महत्व है. यूक्रेन की संप्रभुता को भारत स्वीकार करता है. 
 
यह यात्रा रूस में व्लादिमीर पुतिन के साथ मोदी की मुलाक़ात के डेढ़ महीने बाद हुई है. उस यात्रा से पैदा हुई गलतफहमियों को दूर करने का भी यह मौका था. इतना ही नहीं, सोवियत संघ के विघटन से 1992 में यूक्रेन के पृथक देश बनने के बाद से भारत के किसी प्रधानमंत्री ने यूक्रेन का दौरा नहीं किया था. इस दौरे ने एक कमी को भी पूरा किया.
 
पुतिन का संदेश?
 
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार पीएम मोदी के पास यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की तक पहुँचाने के लिए संभवतः व्लादिमीर पुतिन का कोई संदेश भी था. इस बात की पुष्टि नहीं हुई है. केवल अनुमान लगाया जा सकता है. भारतीय नेतृत्व युद्ध को समाप्त करवाने के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाने से इनकार करता है. फिर भी हो सकता है कि वह रूस और यूक्रेन के राष्ट्रपतियों के बीच संदेशों के आदान-प्रदान के लिए तैयार हो गया है. यह सब बैकरूम डिप्लोमेसी में होता भी है. 
 
सितंबर 2022 में मोदी ने समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में व्लादिमीर पुतिन से कहा था कि आज लड़ाइयों का ज़माना नहीं है. यूक्रेन की लड़ाई बंद होनी चाहिए. इसपर पुतिन ने जवाब दिया था कि मैं भारत की चिंता को समझता हूँ और लड़ाई जल्द से जल्द खत्म करने का प्रयास करूँगा. 
 
मॉस्को यात्रा
 
तकरीबन ऐसी ही बात मोदी ने गत 9 जुलाई को मॉस्को में पुतिन के साथ बातचीत में दोहराई थी. 2019 के बाद उनकी यह रूस की पहली यात्रा थी और इस साल जून में तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद यह उनकी पहली द्विपक्षीय विदेश-यात्रा थी. इस लिहाज से उनके उस दौरे का डिप्लोमैटिक महत्व था, पर पश्चिमी देशों में उसकी आलोचना हुई थी.
 
जिस समय मोदी की रूस यात्रा हुई थी, उसी समय एक अस्पताल पर रूसी हमले में बड़ी संख्या में यूक्रेन के बच्चों की मौत हुई थी. उस समय पश्चिमी मीडिया ने मोदी और पुतिन के गले लगने की तस्वीर और अस्पताल पर किए गए हमले की फोटो को एक साथ दिखाया था. मॉस्को में नरेंद्र मोदी ने पुतिन से फिर कहा, आपके मित्र के तौर पर मैंने हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि बंदूकों, बमों और मिसाइलों से संघर्षों का समाधान नहीं हो सकता है. इसके लिए हम बातचीत और कूटनीति पर ज़ोर देते हैं.
 
जी-7 की बैठक
 
इसके पहले जून में सरकार बनने के फौरन वे 13-14 जून को इटली गए थे, जहाँ जी-7 देशों की बैठक बुलाई गई थी. इस दौरान उनकी मुलाकात अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के अलावा फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, ईयू और जापान के नेताओं से हुई थी. इनके साथ ही उनकी भेंट यूक्रेन के राष्ट्रपति से भी हुई थी.  
इसके बाद 3-4 जुलाई को शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में शामिल होने के लिए उन्हें कजाकिस्तान की राजधानी अस्ताना जाना था, पर वे गए नहीं. भारत का प्रतिनिधित्व वहाँ विदेशमंत्री डॉ एस जयशंकर ने किया. 
 
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि एससीओ से भारत अपनी दूरी बना रहा है, क्योंकि यह ग्रुप लगातार पश्चिम विरोधी होता जा रहा है. जी-7 के समानांतर यह रूस-चीन प्रभाव वाला संगठन है. उस सम्मेलन में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ के अलावा मध्य एशिया, तुर्की और ईरान के नेता भी शामिल हुए थे. 
 
राष्ट्रीय हित
 
भारत दुनिया में एकबार फिर से उभरते ध्रुवीकरण के दौर में दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाकर रखना चाहता है. साथ ही यह भी रेखांकित करना चाहता है कि रूस के साथ हमारे विशेष-संबंध हैं, जो राष्ट्रीय हितों पर आधारित हैं. भारत का यह रुख़ मुख्य रूप से हथियारों और तेल के मामले में रूस पर निर्भरता की वजह से है. सभी देशों की विदेश-नीति कि बुनियाद में राष्ट्रीय-हित ही होते हैं. यूक्रेन-युद्ध के कारण रूस पर पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के बाद रूस ने भारत को अरबों डॉलर की छूट पर तेल बेचा था. 
 
गलतफहमियाँ
 
मोदी की यात्रा का मक़सद पिछले जुलाई के महीने में उनकी रूस-यात्रा के कारण पश्चिमी देशों में हुई आलोचना को कम करना भी रहे होगा. इसमें गलत कुछ नहीं है. इसके कारण अमेरिकी नेतृत्व का भारत की स्वतंत्र विदेश-नीति पर भरोसा बढ़े, तो इससे अच्छी बात क्या होगी, हालांकि भारत सरकार औपचारिक रूप से इस बात का खंडन करती है.
 
यात्रा शुरू होने के पहले दिल्ली में हुई प्रेस ब्रीफिंग में विदेश मंत्रालय के सचिव (पश्चिम) तन्मय लाल से सवाल किया गया, क्या प्रधानमंत्री पश्चिम के साथ भारत के संबंधों को संतुलित करने के लिए यूक्रेन जा रहे हैं?  तन्मय लाल ने जवाब में कहा, इस बारे में कई सवाल हैं कि क्या यह एक तरह का संतुलन है या, दबाव या संकेत. यह यात्रा पिछले कुछ वर्षों में भारत और यूक्रेन के बीच बहुत उच्च स्तर पर जारी बातचीत और विभिन्न प्रारूपों में संस्थागत आदान-प्रदान पर आधारित है.
 
आपसी रिश्ते
 
युद्ध को रोक पाने में भारत सफल होगा या नहीं, यह अलग विषय है, पर यूक्रेन के साथ सहयोग के द्वार इस बीच जरूर खुले हैं. इस दौरान आपसी व्यापार और ब्लैक सी ‘ग्रेन कॉरिडोर’ पर आगे काम करने पर चर्चा भी हुई है. इस कॉरिडोर के लिए भारत ने तुर्की के साथ मिलकर काफ़ी कोशिश की है. युद्धग्रस्त यूक्रेन में स्कूलों और अस्पतालों के पुनर्निर्माण में भी भारत सहयोग करना चाहता है.
 
यूक्रेन के ड्रोन्स, इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर के सिस्टम्स और अन्य तकनीकी सहयोगों पर भी बात हुई है. दोनों नेताओं की मुलाकात के बाद जारी संयुक्त बयान में इस बात का उल्लेख किया गया है.  चूंकि यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुआ है, इसलिए उसके पास बहुत सी सोवियत तकनीक है, जिसकी भारत को जरूरत है. प्रतिबंधों के कारण जिन चीजों को रूस से खरीदने में दिक्कतें हैं, उन्हें हम यूक्रेन से हासिल कर सकते हैं. यूक्रेन अनाज का बड़ा निर्यातक है. हम कृषि और फार्मास्युटिकल्स में भी सहयोग कर सकते हैं. 
 
भारतीय दृष्टिकोण 
 
सच है कि भारत ने यूक्रेन पर आक्रमण के लिए रूस की आलोचना नहीं की, पर रूसी कार्रवाई का समर्थन भी नहीं किया. रूस के आक्रामक रवैये की निंदा करने वाले संयुक्त राष्ट्र के किसी प्रस्ताव का समर्थन भी नहीं किया. कहना मुश्किल है कि भारतीय नीति में बदलाव आया है या नहीं. वैश्विक-राजनीति के अंतर्विरोधों के बीच संतुलन बैठाने के लिए कौशल की जरूरत होती है. सितंबर 2023 में जब भारत में जी-20 सम्मेलन हुआ था, तब यूक्रेन को नहीं बुलाया गया था. 
 
उस सम्मेलन के साझा बयान में इस्तेमाल की गई भाषा से रूस और चीन भी सहमत थे और पश्चिमी देश भी. उस सम्मेलन में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी शामिल नहीं हुए थे. चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग भी नहीं आए थे. 
 
चीन का मसला
 
भारत-रूस और भारत-अमेरिका रिश्तों में चीन भी एक महत्वपूर्ण विषय है. मोदी की यूक्रेन यात्रा पर रूस को आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि भारत ने पुतिन की बीजिंग-यात्राओं पर कभी आपत्ति व्यक्त नहीं की. ऐसा ही अमेरिका-चीन वार्ताओं के साथ हुआ है. भारत जब अपने हितों की बात करता है, तब रूसी या अमेरिकी हितों की भी अनदेखी नहीं करता है. दूसरी तरफ पश्चिमी देशों के विरोध और प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने रूस से तेल खरीदना जारी रखा था. एस-400 पर भी वह अमेरिकी दबाव के आगे झुका नहीं. 
 
मोदी3.0 की विदेश-नीति
 
पीएम नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल की यह शुरुआत है. यूक्रेन से पहले वे पोलैंड गए थे. शीत युद्ध के दौरान पोलैंड सोवियत संघ के साथ था और वॉरसा पैक्ट का सदस्य था. उस दौरान देश के तीन प्रधानमंत्रियों ने पोलैंड की यात्रा की थी. 1955 में पं जवाहर लाल नेहरू, 1967 में इंदिरा गांधी और 1979 में मोरारजी देसाई. 
 
सोवियत संघ के विघटन के बाद पोलैंड पश्चिमी खेमे में शामिल हो गया है. इस नए दौर में भारत के किसी प्रधानमंत्री ने पोलैंड की यात्रा नहीं की है. इस लिहाज से मोदी का यह दौरा भी महत्वपूर्ण था. यूक्रेन के साथ बेहतर रिश्ते बनाने के साथ-साथ हमें पोलैंड के साथ भी संबंध अच्छे रखने होंगे. इससे यूरोप के साथ हमारे रिश्ते बेहतर होंगे. 
 
इससे पहले मई 2022 में प्रधानमंत्री की छोटी सी, लेकिन सफल विदेश-यात्रा ने भारत और यूरोप के बीच सम्बंधों को नई दिशा दी थी. वह यात्रा ऐसे मौके पर हुई थी, जब यूरोप संकट से घिरा था और भारत के सामने रूस और अमेरिका के साथ रिश्तों को परिभाषित करने की दुविधा थी. उस यात्रा के दौरान भारत ने यूक्रेन युद्ध के बाबत अपनी दृष्टि को यूरोपीय देशों के सामने स्पष्ट किया था और यूरोप के देशों ने उसे समझा. उस समय भी भारत ने रूसी हमले की स्पष्ट शब्दों में निंदा नहीं की, पर परोक्ष रूप से इस हमले को निरर्थक और अमानवीय भी माना. 
 
अंदेशा था कि यूरोप के देश इस बात को पसंद नहीं करेंगे, पर इस पूरी यात्रा के दौरान भारत और यूरोपीय देशों ने एक-दूसरे के हितों को पहचानते हुए, असहमतियों के बिंदुओं को ही नहीं, युद्ध से जुड़े मानवीय पहलुओं को लेकर आपसी सहयोग की संभावनाओं को भी रेखांकित किया.