देस-परदेस : तहव्वुर राणा नहीं, ‘मास्टरमाइंड’ है पाकिस्तानी सेना

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 15-04-2025
Des-Pardes: Pakistani army is the mastermind, not Tehvvur Rana
Des-Pardes: Pakistani army is the mastermind, not Tehvvur Rana

 

joshiप्रमोद जोशी

तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण के बाद भारत में उस पर मुकदमा चलाने की तैयारियाँ शुरू हो गई हैं, पर अब जो काम है, वह उसे सज़ा दिलाने तक सीमित नहीं है, बल्कि मुंबई हमले कि साज़िश के पीछे पाकिस्तानी-भूमिका का पर्दाफाश करना है. 

सज़ा से ज्यादा महत्वपूर्ण वे तथ्य हैं, जिनसे पता लगेगा कि मुंबई में निर्दोष लोगों की हत्या क्यों की गई. हमारा मीडिया तहव्वुर राणा को उस हमले का ‘मास्टरमाइंड’ बता रहा है, पर गौर से देखेंगे, तो पता लगेगा कि उसकी भूमिका ‘प्यादे’ की थी.

असली ‘मास्टरमाइंड’ पाकिस्तानी सेना है, जिसकी छत्रछाया में वह हमला हुआ. सवाल यह है कि क्या भारत में मुकदमे के दौरान पाकिस्तान और 26/11 की साज़िश के बीच सीधा संबंध स्थापित किया जा सकेगा? अजमल कसाब और जबीउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जुंदाल के बाद यह भारत में इस प्रकरण का यह तीसरा व्यक्तिगत मुकदमा है. 

डेविड कोलमैन हेडली (दाऊद गिलानी) और तहव्वुर हुसैन राणा को अमेरिकी संघीय जाँच ब्यूरो (एफबीआई) द्वारा गिरफ्तार किए जाने और भारत में राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) द्वारा उनके खिलाफ एफआईआर और आरोप-पत्र दायर करने के सोलह साल बाद, राणा को प्रत्यर्पित किया गया है. 

भारत-पाक रिश्तों पर असर

26/11 मामले में आरंभ में साक्ष्य जुटाने और भारत से सहयोग का वादा करने के बाद, पाकिस्तान सरकार ने इस मामले को लगभग छोड़ दिया है, जबकि तथ्य हाफिज सईद सहित लश्कर कमांडरों और आईएसआई की ओर इशारा कर रहे हैं. 

2009 और 2013 के बीच, पाकिस्तान की संघीय जाँच एजेंसी ने इस मामले को लेकर महत्वपूर्ण साक्ष्य एकत्र करने में कामयाबी हासिल की थी, जिसे तत्कालीन महानिदेशक तारिक खोसा ने पाकिस्तान के डॉन अखबार में एक लेख में दर्ज किया था. 

वह लेख जुलाई, 2015 में भारत और पाकिस्तान के बीच उफा में हुई वार्ता के दो हफ्ते बाद प्रकाशित हुआ था. उस वार्ता के बाद दोनों देश, रिश्तों को सामान्य बनाने के काफी करीब पहुँच गए थे और उसी साल 25 दिसंबर को नरेंद्र मोदी अचानक लाहौर गए. उस यात्रा के एक हफ्ते बाद ही पठानकोट पर हमला हुआ और चीजें बिगड़ती चली गईं.

खोसा ने लिखा कि कसाब को सिंध के थट्टा में लश्कर शिविरों में प्रशिक्षित किया गया था, और आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल की गई नाव का पता कराची की एक दुकान पर लगाया गया था, जहां एक लश्कर कार्यकर्ता ने इसका भुगतान किया था. कराची में उस ऑपरेशन रूम पर छापा मारा गया, जहाँ से लश्कर कमांडर आतंकवादियों को सीधे आदेश देते थे. 

जब भारत ने ऑपरेशन रूम से वॉयस रिकॉर्डिंग का मिलान हाफिज सईद और जकी-उर-रहमान लखवी जैसे हिरासत में मौजूद लोगों से करने की कोशिश की, तो पाकिस्तान ने सहयोग करना बंद कर दिया.

किसकी थी साज़िश?

क्या हम साज़िश की परतों को खोल पाएँगे? अमेरिका के संघीय अधिकारियों के समक्ष अपनी गवाही में हेडली ने कहा था कि मुंबई हमला आतंकवादी समूह लश्कर-ए-तैयबा और पाकिस्तान के इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस डायरेक्टरेट (आईएसआई) का संयुक्त अभियान था.

एफबीआई ने दावा किया कि एक बातचीत में राणा ने हेडली से कहा था कि मुंबई पर हमला करने वाले आतंकवादियों को मरणोपरांत पाकिस्तान का सर्वोच्च सैन्य सम्मान मिलना चाहिए. यह बात हमलावरों की पाकिस्तानी-पृष्ठभूमि को सिद्ध करती है.

राणा के प्रत्यर्पण के बाद, पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने उससे दूरी बनाने की कोशिश की, यह कहते हुए कि उसने 1997 में कनाडाई नागरिकता ले ली थी, और तब से अपने कागजात को नवीनीकृत करने की कोशिश नहीं की. उधर अमेरिका में चले मुकदमे के दौरान अपनी गवाही में, हेडली ने कहा कि ऑपरेशन की योजना बनाने के दौरान राणा, लश्कर के संचालकों के संपर्क में रहा. 

सच सामने आएँगे

अक्सर कुछ रहस्य कभी नहीं खुलते. कुछ में संकेत मिल जाता है कि वास्तव में हुआ क्या था. और कुछ में पूरी कहानी सामने होती है, पर उसे साबित करने में मुश्किल होती है. मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों के साथ ऐसा होता रहा है, पर धीरे-धीरे सच भी साबित होते जा रहे हैं. 

पाकिस्तान के लश्करे तैयबा का इस मामले में हाथ होने और उसके कर्ता-धर्ताओं के नाम सामने हैं. अजमल कसाब को स्पष्ट प्रमाणों के आधार पर फाँसी दी जा चुकी है. बावज़ूद इसके पाकिस्तान सरकार यह नहीं मानती कि हमलों के सूत्रधार उनके देश में बाइज़्ज़त खुलेआम घूम रहे हैं. 

राणा पर, डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गिलानी और लश्कर-ए-तैयबा और हरकत-उल-जिहाद इस्लामी (हूजी) के आतंकवादियों के साथ मिलकर 2008 में आतंकवादी हमलों को अंजाम देने का आरोप है. यह आरोप तो अमेरिकी अदालत में ही साबित हो चुका है. अब उससे आगे जाने की ज़रूरत है.

अमेरिकी भूमिका

हमले का ज्यादा चर्चित अपराधी हेडली, अमेरिका की जेल में है. अमेरिका सरकार के साथ उसका एक समझौता, उसके भारत-प्रत्यर्पण को रोकता है. सवाल है कि अमेरिकी-व्यवस्था को इस बात की जानकारी थी कि मुंबई हमले में राणा और हेडली की भूमिकाएँ क्या रही थी, फिर भी उसका प्रत्यर्पण संभव क्यों नहीं हुआ?

पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई ने पिछले बुधवार को एक भारतीय अखबार से कहा कि राणा की इस नरसंहार में एक ‘छोटी भूमिका’ थी और मुख्य साजिशकर्ता को अमेरिकी-संरक्षण प्राप्त था. उनका कहना है कि अमेरिका ने ‘बदनीयती’ से काम किया और आतंकी-योजना की जानकारी होने के बावजूद, उन्होंने राणा के स्कूल के दोस्त और मुख्य साजिशकर्ता हेडली को ‘भारत विरोधी गतिविधियाँ’ जारी रखने दीं.

उनके अनुसार हेडली अमेरिकी सरकार और पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के लिए डबल एजेंट का काम करता था. 2009 में हेडली की गिरफ्तारी के बाद, अमेरिका ने उसका भारत-प्रत्यर्पण नहीं होने दिया. 

26/11 हमले के बाद भी हेडली मुंबई वापस आया. उसकी भूमिका का पता होता, तो उसे मुंबई में ही गिरफ्तार किया जा सकता था, पर अमेरिका ने जानकारी नहीं दी. 
उसके पिता पाकिस्तानी थे, पर अपने रूप-रंग और पासपोर्ट के कारण, जिस पर केवल उसकी माँ का नाम अंकित है, वह अमेरिकी मूल का व्यक्ति लगता है.

भारत की यात्राएँ उसने अमेरिकी पासपोर्ट पर की थीं. इस वजह से भारतीय खुफिया एजेंसियों को भी शायद उसे लेकर कोई शक नहीं था. 

हेडली का साथी

राणा को पहली बार 2009 में अमेरिका ने डेविड हेडली के साथी के रूप में और कोपेनहेगन में एक अखबार ‘मोर्गेनाविसेन जाइलैंड्स-पोस्टेन’ के दफ्तर पर हमले की योजना का हिस्सा होने के नाते गिरफ्तार किया था. हेडली को पाकिस्तान ने मुंबई में उन ठिकानों की निशानदेही का काम सौंपा था, जिनपर लश्कर के आतंकी हमला करने वाले थे. 

अमेरिकी अभियोजकों के मुताबिक, पाकिस्तानी मूल के कनाडाई-अमेरिकी नागरिक और हेडली के बचपन के दोस्त राणा ने हमलों की योजना बनाने में मदद की और भारत में उसका कई बार प्रवेश कराया. 

अमेरिका में चले मुकदमे में राणा को मुंबई हमले के लिए दोषी करार नहीं दिया गया, लेकिन उसे लश्कर से संबंधों और कोपेनहेगन-साज़िश में शामिल होने के लिए दोषी ठहराया गया. 

भारत में मुकदमा

भारत में 2011 में एनआईए ने राणा, हेडली तथा सात अन्य के खिलाफ उनकी अनुपस्थिति में आरोप पत्र दाखिल किया था. अब एक पूरक आरोप पत्र दाखिल होने की उम्मीद है, जिसमें भारतीय न्याय संहिता-2023 (बीएनएसएस) के तहत आरोपों को अद्यतन किया जाएगा. 

भारत ने 26/11 के एक अन्य आरोपी अबू जुंदाल उर्फ जबीउद्दीन अंसारी को 2012 में सऊदी अरब से प्रत्यर्पित करवाया था. इस मामले में वह एकमात्र भारतीय अभियुक्त है. वह मुंबई की जेल में बंद है. बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा लगाई गई रोक के कारण उसका मुकदमा छह साल से रुका हुआ है. 

उसका प्रत्यर्पण भारतीय अभियोजकों को यह मौका देगा कि वे इस मामले में पाकिस्तानी भूमिका का पर्दाफाश करें. लश्करे-तैयबा के दस बंदूकधारियों में से केवल अजमल कसाब को ज़िंदा पकड़ा जा सका था और भारतीय अदालत ने उसे दोषी ठहराया और 2012 में फाँसी दे दी गई. 

अमेरिकी जज की टिप्पणी

जनवरी, 2013 में अमेरिकी अदालत में डिस्ट्रिक्ट जज हैरी लीनेनवेबर ने अभियोजन पक्ष द्वारा हेडली के लिए हल्की सजा की माँग किए जाने पर अपनी नाखुशी जाहिर की थी. अमेरिकी अभियोजक उसके लिए मौत या उम्र कैद की सजा भी माँग सकते थे, पर हेडली के साथ एक समझौते के तहत उन्होंने यह सजा नहीं माँगी. 

जज ने सजा सुनाते हुए कहा हेडली आतंकवादी हैं. उसने अपराध को अंजाम दिया, अपराध में सहयोग किया और इस सहयोग के लिए इनाम भी पाया. जज ने कहा, इस सजा से आतंकवादी रुकेंगे नहीं. वे इन सब बातों की परवाह नहीं करते. मुझे हेडली की इस बात में कोई विश्वास नहीं होता जब वह यह कहता है कि वह अब बदल गया. पर 35 साल की सजा सही सजा नहीं है. 

हेडली की स्वीकारोक्ति

दोषी होने की स्वीकारोक्ति और बाद में सह-प्रतिवादी के मुकदमे में सरकार के लिए गवाही देते हुए, हेडली ने स्वीकार किया कि उसने 2002 और 2005 के बीच पाँच अलग-अलग मौकों पर पाकिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा द्वारा संचालित प्रशिक्षण शिविरों में भाग लिया था. 

2005 के अंत में, हेडली को लश्कर के तीन सदस्यों ने निगरानी करने के लिए भारत की यात्रा करने का निर्देश दिया. ये निर्देश मिलने के बाद, हेडली ने फरवरी 2006 में फिलाडेल्फिया में अपना नाम दाऊद गिलानी से बदल लिया ताकि लश्कर की ओर से अपनी गतिविधियों को सुविधाजनक बनाया जा सके और भारत में खुद को एक अमेरिकी के रूप में पेश किया जो न तो मुस्लिम था और न ही पाकिस्तानी. 

उसके बाद उसने 2008 के हमलों को अंजाम देने के लिए पाँच बार भारत की यात्रा की. मार्च 2010 में हेडली के याचिका समझौते में कहा गया था कि उसने ‘आपराधिक जाँच में पर्याप्त सहायता महत्वपूर्ण खुफिया जानकारी भी प्रदान की है.’

अमेरिकी सरकार के अभियोजन विभाग ने हेडली से सौदा किया था कि यदि वह महत्वपूर्ण जानकारियाँ देगा तो उसे भारत के हवाले नहीं किया जाएगा. 

अमेरिकी नज़रिया

हेडली-प्रकरण का एक और पहलू भी महत्वपूर्ण है. अमेरिकी अटॉर्नी गैरी ए शपीरो ने कहा था कि तफ्तीश कितनी भी मुकम्मल हो और तथ्य कितने भी सामने हों, किसी भी मामले में जब तक गवाह नहीं होते आगे बढ़ना मुश्किल होता है. 

हेडली को ज्यादा बड़ी सजा दिलाने के बारे में सोचा जाता तो वह तमाम उन बातों को अपनी तरफ से नहीं बताता जो उसने बताईं. वह ‘डबलक्रॉस’ था. उसने पाकिस्तानी आतंकी ग्रुपों के लिए काम किया और अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए भी. 

उसने जो सूचनाएँ दीं, शायद वे उन तमाम आतंकी हमलों को रोकने में मददगार साबित हुईं होंगी, जो संभव थे और नहीं हुए. तमाम लोगों को पकड़ने, अनेक मॉड्यूलों को ध्वस्त करने और लश्करे तैयबा को आतंकवादी संगठन घोषित करने में उसकी सूचनाओं ने मदद दी होगी. 

पर यह मदद मूलतः अमेरिका को हासिल हुई. इस मामले में उसके नागरिकों की मौत भी मुंबई हत्याकांड में हुई थी. पीड़ित होने के बावज़ूद अमेरिका ने हेडली को हल्की सजा दिलाई. इसका मतलब यह कि उसके विचार से आतंक-विरोधी लड़ाई के व्यापक परिप्रेक्ष्य में यही उचित था. 

 (लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)

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