देस-परदेस : बांग्लादेश में नई पार्टी और वैचारिक-असमंजस

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 04-03-2025
Des-Pardes: New party and ideological confusion in Bangladesh
Des-Pardes: New party and ideological confusion in Bangladesh

 

 

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प्रमोद जोशी

बांग्लादेश में आंदोलनकारी छात्रों ने करीब सात महीने बाद अपने राजनीतिक-कार्यक्रम के दूसरे चरण में प्रवेश किया है. यहाँ से यह तय होगा कि देश क्या चाहता है और हाल में हुए बदलाव के साथ जनभावनाएँ जुड़ी भी हैं या नहीं.

बांग्लादेश लगातार राजनीतिक और सांस्कृतिक अंतर्विरोधों से घिरा रहा है, जो तय नहीं कर पाया है कि 1947, 1971और 2024में से किस तारीख को वह अपनी पहचान मानकर चले. कहना मुश्किल है कि पिछले हफ्ते देश में हुए नए राजनीतिक दल का उदय इस पहेली को सुलझाने में कामयाब होगा या नहीं.

'जातीय नागरिक पार्टी' (नेशनल सिटिज़ंस पार्टी) के गठन से देश की उथल-पुथल भरी उस राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हो गया है, जिसका जन्म 1971में पाकिस्तान से अलग होने के बाद हुआ था.

सब ठीक रहा तो, नए संगठन की परीक्षा साल के अंत या अगले साल के शुरू में होने वाले चुनाव में होगी. उसके पहले पार्टी की विश्वदृष्टि भी स्पष्ट होगी. अब तय यह होना है कि धर्मनिरपेक्षता, बांग्ला राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक परंपराओं और भारत-विरोध से जुड़े प्रश्नों पर इस पार्टी का नज़रिया क्या है.  

पार्टी के संयोजक बने हैं, नाहिद इस्लाम, जो अभी तक अंतरिम सरकार में सलाहकार थे. हाल में वे पद त्याग कर आए हैं. उनके अलावा इसके सदस्य सचिव अख्तर हुसैन, वरिष्ठ संयुक्त संयोजक सामंथा शर्मिन, मुख्य समन्वयक हसनत अब्दुल्ला और सरजिस आलम सहित शीर्ष नेताओं के नामों की घोषणा की गई है.

दूसरा गणराज्य

पार्टी के उद्घाटन समारोह में नाहिद इस्लाम ने कहा, बांग्लादेश का फिर कभी विभाजन नहीं होगा और देश में भारत या पाकिस्तान समर्थक राजनीति के लिए कोई जगह नहीं होगी. पार्टी का प्राथमिक लक्ष्य बांग्लादेश में 'दूसरे गणराज्य' की स्थापना के लिए एक नया संविधान तैयार करना है, जिसके लिए ‘संविधान सभा’ का गठन किया जाएगा.

दूसरी तरफ इस नए दल के गठन की जो प्रक्रिया अपनाई जा रही है, उससे संकेत मिलता है कि संगठन की शक्तियाँ कुछ लोगों के हाथों में ही सीमित रहेंगी. यह भी कहा जा रहा है कि जिस तरह से भारत में आम आदमी पार्टी नई ताकत बनकर उभरी थी, वैसे ही हम भी नए ताकत बनेंगे.

पार्टी ने मध्यमार्गी और उदारवादी होने का दावा किया है, लेकिन विश्लेषक मानते हैं कि विभिन्न विचारधाराओं के नेताओं को एक ही मंच पर जोड़े रखना आसान काम नहीं है. दूसरे पार्टी की उदारवादी ‘कथनी और करनी’ की परीक्षा अब होगी.

धार्मिक-पहचान

पार्टी के गठन के बाद, इसके दो ‘प्रभावशाली संयोजकों’ ने अपनी धार्मिक पहचान पर ज़ोर देने वाले सोशल मीडिया पोस्ट डाले हैं, जिनसे उनके उदारवादी या समावेशी विचारों की झलक नहीं मिलती है. दोनों ने लिखा है कि राजनीति से पहले हमारी पहचान मुसलमान की है.

पार्टी के उद्घाटन समारोह में पवित्र कुरान, गीता और त्रिपिटक का पाठ हुआ था, पर नेतृत्व में छोटे जातीय समूहों और धार्मिक अल्पसंख्यकों की उपस्थिति बहुत कम है. पिछले छह-सात महीनों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर इन छात्रों के व्यवहार को लेकर शिकायतें हैं. बांग्लादेश शिल्पकला अकादमी के महानिदेशक प्रोफेसर सैयद जमील अहमद का इस्तीफा एक उदाहरण है.

नई पार्टी के गठन से दो दिन पहले एक नए छात्र संगठन 'बांग्लादेश डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन' की घोषणा भी हुई है. हालांकि उसे लेकर कोई औपचारिक घोषणा नहीं है, पर स्पष्ट नहीं है कि यह नया संगठन छात्रों के वैचारिक मतभेद को व्यक्त कर रहा है या यह नई पार्टी का छात्र संगठन है.

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जोशो-जुनून

ऐसा लगता है कि पार्टी बनाने वाले जोशो-खरोश से भरे हैं और वे उधार के जुम्लों को अपने देश में लागू करने का प्रयास करेंगे. उनकी ओर से व्यक्त ‘द्वितीय गणतंत्र’ और ‘नए संविधान की रचना’ जैसी बातों ने ध्यान खींचा है.

संयोजक नाहिद इस्लाम ने कहा कि 2024के तख्तापलट ने ‘दूसरे गणराज्य’ की स्थापना के लिए संघर्ष की शुरुआत की है, हमें नए लोकतांत्रिक संविधान का मसौदा तैयार करके संवैधानिक तानाशाही की वापसी की सभी संभावनाओं को समाप्त करना होगा.

नई पार्टी के उद्घाटन-समारोह में संयोजक नाहिद इस्लाम को छोड़कर, ज्यादातर शीर्ष नेताओं ने अपने भाषणों का समापन 'इंकलाब ज़िंदाबाद' के नारे के साथ किया. बांग्लादेश में 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का घोष, नई बात है. बांग्लादेश में यह नारा, इस स्तर पर पहले सुनाई नहीं पड़ा है.

पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य ने कहा कि पार्टी के नारों और प्रतीकों को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है. ‘इंकलाब जिंदाबाद’ को प्रतिरोध का प्रतीक है. 

तानाशाही का विरोध

पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि देश के संवैधानिक ढांचे में तानाशाही पैदा करने की क्षमता है. राज्य की तरह, कई पार्टियों में, सारी शक्ति एक व्यक्ति के हाथों में स्थानांतरित होती जा रही है.छात्र नेताओं के निशाने पर अवामी लीग और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) दोनों हैं, जिन्हें वे परिवारवादी मानते हैं. पिछले पाँच दशकों में ये दो बड़े दल के रूप में उभरे हैं. इस समय अवामी लीग लगभग अनुपस्थित है.  

बेशक देश में एक नए दल के लिए जगह बनी है, पर उसे अपनी पहचान को साबित करना होगा. युवा या छात्र दुनिया में कहीं भी राजनीतिक-विचार नहीं है. जो आज युवा है, वह कल युवा नहीं रहेगा. उन्हें आवेश, ईमानदारी और सदाशयता की गारंटी से ज्यादा जनता से जुड़ाव की जरूरत होगी.

चुनाव की माँग

इस सिलसिले में बीएनपी की राष्ट्रीय स्थायी समिति के सदस्य सलाउद्दीन अहमद ने कहा, ‘नया गणतंत्र और संविधान बनाने का दावा जो लोग कर रहे हैं, वे उसे ज़रूर बनाएँ, पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में देरी नहीं होनी चाहिए.’ 

बीएनपी सहित कुछ पार्टियों ने जल्द चुनाव कराने की जो माँग की है, उसके जवाब में नवगठित पार्टी के नेताओं ने कहा है कि 'नई आजादी सिर्फ एक सरकार को उखाड़ फेंकने और दूसरी को स्थापित करने के लिए नहीं मिली है.'

ऐसा लग रहा है कि सारा दोष संविधान और व्यवस्था के मत्थे मढ़कर नए सत्ताधारी चुनाव से किनाराकशी कर रहे हैं. सवाल है कि वे कैसा लोकतंत्र बनाना चाहते हैं? बीएनपी दूसरे गणराज्य या नए संविधान के निर्माण को संसदीय चुनावों में देरी के संदेश के रूप में देखती है.

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मौलिक-परिवर्तन

दूसरे गणतंत्र की अवधारणा मूलतः फ्रांसीसी क्रांति से उभरी थी. इसका मतलब किसी देश में पूर्ववर्ती शासन प्रणाली में आमूल परिवर्तन करके नई शासन संरचना या प्रबंधन की स्थापना से है.बांग्लादेश के छात्र अपने आंदोलन को क्रांति बता रहे हैं, पर हरेक आंदोलन क्रांति नहीं होता. क्रांति के पीछे मौलिक-परिवर्तन का विचार होता है. बांग्लादेश में मौलिक-परिवर्तन क्या है?

मोटे तौर पर यह प्रति-क्रांति लगती है. 1971 में ‘बांग्ला-राष्ट्रवाद’ का जन्म हुआ था, अब देश को फिर से पाकिस्तान बनाने का नज़रिया दिखाई पड़ रहा है. नाहिद इस्लाम ने ‘फिर से विभाजन नहीं’ कहकर 1971के युद्ध को लेकर अपने विचार को व्यक्त कर दिया.

छात्र नेता चाहते हैं कि चुनाव के बाद जन-प्रतिनिधि नई संविधान सभा के सदस्य भी होंगे. क्या ऐसा करने के पीछे जनादेश है? देश की अंतरिम सरकार की वैधानिकता को लेकर ही तमाम सवाल हैं. देश का सुप्रीम कोर्ट क्या इसे स्वीकार करेगा?

मुख्य राजनीतिक पार्टी बीएनपी नया संविधान लिखने के बजाय संसद में आवश्यक संशोधन लाने के पक्ष में है. नया संविधान बनाना ही है, तो इसके लिए बीएनपी सहित सभी दलों के बीच एकता और आमराय बनानी होगी.

अतिशय आत्मविश्वास

आंदोलन के सहारे सत्ता हासिल करना अपेक्षाकृत आसान है, पर नई व्यवस्था को संचालित करना और उससे जुड़े अंतर्विरोधों को सुलझाना उतना आसान नहीं है. बगावती छात्रों के आपसी मतभेद भी धारे-धारे उजागर हो रहे हैं.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि युवाओं के नेतृत्व वाली एनसीपी का लक्ष्य बांग्लादेश के राजनीतिक परिदृश्य को बदलना है, जिस पर दशकों से दो महिलाओं के नेतृत्व वाले पारिवारिक राजवंशों का वर्चस्व रहा है.

हसीना का परिवार देश के संस्थापक नेता शेख मुजीबुर रहमान का वंशज है, जो अवामी लीग पार्टी के संस्थापक भी थे. दूसरी तरफ प्रधानमंत्री खालिदा जिया का परिवार है. जिया के दिवंगत पति, पूर्व सैन्य शासक जियाउर रहमान ने मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की स्थापना की थी.

इन दो मुख्य राजनीतिक समूहों के अलावा, बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी जैसे इस्लामवादी संगठन, और बांग्लादेश की कम्युनिस्ट पार्टी जैसे वामपंथी समूहों की भी राजनीति में भूमिका है. हसीना की वापसी की संभावनाएँ अभी नज़र नहीं आती हैं, पर उनकी पार्टी अपने बचे-खुले आधार को वापस पाने का प्रयास कर सकती है.

हसीना की छवि

पर्यवेक्षकों का मानना है कि नेता के तौर पर हसीना की छवि धूमिल हो चुकी है और आंतरिक कलह को देखते हुए उनकी अनुपस्थिति में पार्टी का पुनर्निर्माण मुश्किल होगा. हाल में एक वर्चुअल संबोधन में उन्होंने देश में वापस लौटने और अवामी लीग के कार्यकर्ताओं और पुलिस अधिकारियों की मौत का बदला लेने का संकल्प भी व्यक्त किया.

सवाल यह भी है कि चुनाव में अवामी लीग को भाग लेने दिया जाएगा या नहीं. हाल में अंतरिम यूनुस सरकार के सलाहकार और छात्र आंदोलन के एक प्रमुख नेता महफूज आलम ने कहा कि अवामी लीग को चुनाव में भाग लेने नहीं दिया जाएगा.

अंतरिम सरकार में तीन छात्र नेता शामिल थे, जिनमें से अब दो ही शामिल हैं. फिर भी वे पूरे अधिकार से बयान जारी करते हैं, जैसे कि सब कुछ उन्हें ही तय करना है.

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सेना की भूमिका

बांग्लादेश में सेना की राजनीतिक-प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है, पर पिछले साल 5अगस्त को शेख हसीना के शासन से आंदोलनकारियों को सत्ता का हस्तांतरण सेना के मार्फत हुआ था.एक विचार यह है कि सेना ने यदि हस्तक्षेप किया होता, तो हिंसक आंदोलन पर काबू पाया जा सकता था. देश की पुलिस ऐसी हिंसा और आगज़नी के लिए तैयार नहीं थी.

मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार से देश के सेनाध्यक्ष वकार-उज़-ज़मां नाखुश दिखाई पड़ रहे हैं. उनके वक्तव्यों से ऐसा लग रहा है कि वे बहुत सी बातों में अंतरिम सरकार से सहमत नहीं हैं. वे जल्द चुनाव भी चाहते हैं.

(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)


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