अब्दुल्लाह मंसूर
दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 के परिणामों ने भारतीय राजनीति में कई महत्वपूर्ण संकेत दिए हैं.इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बड़ी जीत हासिल की, जबकि आम आदमी पार्टी (आप) को हार का सामना करना पड़ा.कांग्रेस फिर से अप्रभावी रही.यह चुनाव केवल सीटों की संख्या तक सीमित नहीं था, बल्कि इसने दिल्ली की राजनीति में मतदाताओं के बदलते रुझान और राजनीतिक दलों की रणनीतियों को भी प्रदर्शित किया.
इस लेख में हम दिल्ली चुनाव का परिणामों के पीछे के कारणों, मतदाताओं के बदलते रुझानों और भविष्य की संभावनाओं की एक व्यापक समझ मिलेगी.मुस्लिम मतदाताओं के वोटिंग पैटर्न का भी विश्लेषण किया जाएगा.यह विश्लेषण न केवल इस चुनाव के परिणामों को समझने में मदद करेगा, बल्कि भारतीय राजनीति के भविष्य के संभावित रुझानों पर भी प्रकाश डालेगा.
यह लेख दिल्ली के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियों और जनता की आकांक्षाओं पर भी ध्यान केंद्रित करेगा.हम नए जनादेश के आलोक में नीतिगत प्राथमिकताओं और संभावित सरकारी पहलों का आकलन करेंगे.
आम आदमी पार्टी की हार के पीछे कई कारण दिखाई देते हैं.सबसे बड़ा कारण एंटी-इंकम्बेंसी यानी सत्ता विरोधी लहर रहा.पिछले दस वर्षों में आप ने शिक्षा,स्वास्थ्य और बुनियादी सेवाओं में सुधार का दावा किया, लेकिन जनता को अब ये दावे अधूरे लगने लगे.
मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी स्कूल सुधार जैसे कदमों की शुरुआत ने पहले जनता को प्रभावित किया था, लेकिन हाल के वर्षों में इन योजनाओं का प्रभाव कम होता गया.इसके अलावा, जल संकट, प्रदूषण और यमुना नदी की सफाई जैसे बड़े मुद्दों पर ठोस काम न होने से जनता में नाराजगी बढ़ी.
भ्रष्टाचार के आरोपों ने भी आम आदमी पार्टी को गहरा नुकसान पहुंचाया.शराब नीति घोटाले और मुख्यमंत्री आवास पर भारी खर्च जैसे मुद्दों ने पार्टी की "ईमानदार राजनीति" वाली छवि को कमजोर कर दिया.अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों पर लगे आरोपों ने जनता के बीच यह धारणा बनाई कि पार्टी अपने मूल आदर्शों से भटक चुकी है.संगठनात्मक कमजोरी और नेतृत्व संकट भी आप की हार का एक बड़ा कारण रहे.
अरविंद केजरीवाल पार्टी का चेहरा हैं,लेकिन उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता इस बार पार्टी को बचाने में नाकाम रही.मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन जैसे वरिष्ठ नेताओं के जेल में होने से न केवल संगठन कमजोर हुआ, बल्कि जनता का भरोसा भी डगमगा गया.
चुनाव प्रचार के दौरान आम आदमी पार्टी ने बेरोजगारी, प्रदूषण और आर्थिक असमानता जैसे गंभीर मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया.इसके बजाय, उसने मुफ्त योजनाओं पर जोर दिया.हालांकि ये योजनाएं कुछ वर्गों को प्रभावित करती हैं, लेकिन इस बार मतदाता ठोस विकास और दीर्घकालिक समाधान चाहते थे.
दूसरी ओर, भाजपा की रणनीति इस चुनाव में बेहद प्रभावी रही.भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2025 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में अपनी रणनीति को कई स्तरों पर सफलतापूर्वक लागू किया.पार्टी ने स्थानीय मुद्दों जैसे वायु प्रदूषण, यातायात की समस्या और शहरी आवास पर विशेष ध्यान दिया.उन्होंने रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन्स (RWAs) और बाजार संघों से सक्रिय रूप से जुड़कर समुदाय-विशिष्ट चिंताओं को संबोधित किया.
'डबल इंजन सरकार' की अवधारणा को बढ़ावा देकर, भाजपा ने केंद्रीय योजनाओं के लाभों पर जोर दिया.मध्यम वर्ग की चिंताओं को संबोधित करने के साथ-साथ,पार्टी ने आम आदमी पार्टी (आप) की सभी मुफ्त योजनाओं को जारी रखने का आश्वासन दिया और अतिरिक्त लाभों का वादा किया.
पूर्वांचली मतदाताओं पर विशेष ध्यान देने के साथ,भाजपा ने एक प्रभावी डिजिटल अभियान भी चलाया.राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के समर्थन और प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व ने पार्टी के प्रचार को और मजबूत किया.
इन रणनीतियों के माध्यम से, भाजपा न केवल अपने परंपरागत समर्थकों को बनाए रखने में सफल रही, बल्कि मध्यम वर्ग और आम मतदाताओं को भी अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब रही, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें व्यापक जीत मिली.
मुस्लिम समाज में कई तरह के भेद हैं - जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर.इससे उनके वोटिंग पैटर्न में भी अंतर आता है.वे एक समान समुदाय नहीं हैं.चुनाव सर्वेक्षण बताते हैं कि मुस्लिम मतदाता अलग-अलग पार्टियों को वोट देते हैं.
वे किसी एक पार्टी के पक्ष में एकजुट नहीं होते.OBC मुस्लिम(पसमांदा मुसलमान) अक्सर ग्रामीण और कम शिक्षित पृष्ठभूमि से आते हैं, जबकि उच्च वर्ग के मुस्लिम शहरी और अधिक शिक्षित होते हैं.यह अंतर उनके मुद्दों और प्राथमिकताओं को प्रभावित करता है.
मुस्लिम मतदाता अपने स्थानीय मुद्दों और उम्मीदवारों को देखकर वोट करते हैं.वे किसी राष्ट्रीय आदेश का पालन नहीं करते.कुछ इलाकों में मुस्लिम एक समूह की तरह वोट कर सकते हैं, लेकिन यह पूरे देश में एक जैसा नहीं है.
मुस्लिम समुदाय की चिंताएं दूसरे मतदाताओं जैसी ही हैं - नौकरी, शिक्षा और विकास.CSDS-Lokniti के सर्वेक्षणों से पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय बेरोजगारी, गरीबी और शैक्षिक सुविधाओं की कमी जैसी रोजमर्रा की चिंताओं को गंभीर मानता है.
ये चिंताएं अन्य समुदायों के मतदाताओं के समान ही हैं.हालांकि मीडिया अक्सर तीन तलाक,बाबरी मस्जिद जैसे मुद्दों को "मुस्लिम मुद्दे" के रूप में पेश करता है,लेकिन वास्तविकता में ये मुद्दे आम मुस्लिम मतदाताओं की प्राथमिकता में नहीं होते.
आप ने मुस्लिम बहुल 7 सीटों में से 6 पर जीत हासिल की, जो दर्शाता है कि मुस्लिम मतदाताओं का बड़ा हिस्सा अभी भी पार्टी के साथ है.(हमें यह याद रखना चाहिए कि मुस्लिम समाज की 85% आबादी पसमांदा समाज की ही है) हालांकि, 2020 के चुनावों की तुलना में आप के वोट शेयर में गिरावट देखी गई, जो संकेत देता है कि कुछ मतदाताओं ने अन्य विकल्पों की ओर रुख किया.
भाजपा ने मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी स्थिति में सुधार किया.2025 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं के वोटिंग पैटर्न में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिला. हालांकि आम आदमी पार्टी (AAP) ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन उनका समर्थन 2020 की तुलना में कम हुआ.
2020 में AAP को मुस्लिम समुदाय का व्यापक समर्थन मिला था, जिसमें अनुमानित 80-85% मुस्लिम मतदाताओं ने AAP को वोट दिया था.लेकिन 2025 में यह समर्थन बंट गया.लगभग 50-55% मुस्लिम मतदाताओं ने AAP को वोट दिया.
25-30% ने कांग्रेस को समर्थन दिया.15-20% ने भाजपा को वोट दिया.आंकड़े बताते हैं कि भाजपा ने इस बार मुस्लिम वोटों का लगभग 12-13% हिस्सा हासिल किया, जो 2020 के 3% से काफी अधिक है.यह बदलाव मुस्तफाबाद सीट पर स्पष्ट दिखाई दिया, जहां भाजपा के उम्मीदवार मोहन सिंह बिष्ट ने जीत हासिल की.
याद रहे मुस्तफाबाद में लगभग 40% मुस्लिम आबादी है और यह 2020 के दंगों से प्रभावित क्षेत्र था.भाजपा का प्रदर्शन जो 2020 में नगण्य समर्थन से बढ़कर 2025 में उल्लेखनीय वृद्धि.राष्ट्रीय स्तर पर, लगभग 8-10% मुस्लिम मतदाता भाजपा जैसी गैर-मुस्लिम नेतृत्व वाली पार्टियों को भी वोट दे रहे हैं.
पसमांदा मुस्लिम आमतौर पर आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं और सरकारी योजनाओं पर अधिक निर्भर रहते हैं.उच्च वर्ग के मुस्लिम अक्सर बेहतर आर्थिक स्थिति में होते हैं और उनकी प्राथमिकताएं अलग हो सकती हैं.पसमांदा मुस्लिम परिवार आर्थिक रूप से पिछड़े हैं और नौकरी की तलाश में हैं। पसमांदा मुस्लिम रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों पर अधिक ध्यान देते हैं.
उच्च वर्ग के मुस्लिम अक्सर व्यापक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी विचार करते हैं.गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच की कमी एक बड़ी चुनौती है.कई पसमांदा मुस्लिम बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं.उच्च शिक्षा में पसमांदा छात्रों का प्रतिशत कम है.
मदरसों की आधुनिकीकरण की मांग भी है.बुनियादी सुविधाओं जैसे बिजली, पानी, सड़क आदि की कमी कई मुस्लिम बहुल इलाकों में है.शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम बस्तियों का विकास एक मुद्दा है.सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की कमी।सांप्रदायिक सद्भाव और सुरक्षा की मांग.
भेदभाव और पूर्वाग्रह से मुक्ति,इसलिए, हालांकि कुछ नेता "मुस्लिम वोट बैंक" की बात करते हैं, वास्तव में ऐसा कोई एक राष्ट्रीय मुस्लिम वोट बैंक नहीं है.पसमांदा मुस्लिम मतदाता अलग-अलग तरह से सोचते हैं और अपनी मर्जी से वोट करते हैं.पसमांदा मुस्लिम अक्सर क्षेत्रीय और जाति-आधारित दलों को समर्थन देते हैं.उच्च वर्ग के मुस्लिम राष्ट्रीय दलों या मुख्यधारा के दलों को वोट देने की प्रवृत्ति रखते हैं.
मुस्लिम मतदाताओं ने इस चुनाव में अधिक विविध मतदान पैटर्न दिखाया.हालांकि बड़ी संख्या में मतदाता आप के साथ रहे, लेकिन भाजपा और अन्य दलों की ओर भी कुछ झुकाव देखा गया.इस चुनाव ने दिखाया कि मुस्लिम मतदाता अब केवल धार्मिक आधार पर वोट नहीं दे रहे हैं, बल्कि विकास, सुरक्षा और प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दों को भी महत्व दे रहे हैं.
यह रुझान आने वाले समय में दिल्ली की राजनीति को प्रभावित कर सकता है, क्योंकि पार्टियों को इस महत्वपूर्ण मतदाता वर्ग की बदलती प्राथमिकताओं के अनुरूप अपनी रणनीतियों को संशोधित करना होगा.यह चुनाव भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है क्योंकि इससे स्पष्ट हुआ कि मतदाता अब ज्यादा समझदार हो गए हैं.
वे उम्मीदवार या पार्टी चुनने से पहले उनके कामकाज का आकलन करते हैं.दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 के परिणामों ने राजधानी की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू किया है.अब जब केंद्र और राज्य में एक ही सरकार है, तो दिल्ली के नागरिकों की आकांक्षाएं और अपेक्षाएं बढ़ गई हैं.वे उम्मीद कर रहे हैं कि लंबे समय से लंबित मुद्दों का समाधान अब तेजी से होगा.
हालांकि,नई सरकार के सामने कुछ गंभीर चुनौतियां भी हैं.वित्तीय प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है, जहां मुफ्त बिजली और पानी जैसी कल्याणकारी योजनाओं को जारी रखते हुए राज्य के वित्त को संतुलित करना होगा.दिल्ली की विशिष्ट संवैधानिक स्थिति के कारण केंद्र-राज्य समन्वय भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जहां प्रशासनिक मुद्दों पर स्पष्टता और सहयोग सुनिश्चित करना होगा.
बढ़ती आबादी और प्रवासन के मद्देनजर दीर्घकालिक शहरी नियोजन की आवश्यकता है.इसके साथ ही, विभिन्न समुदायों के बीच सामाजिक सद्भाव बनाए रखना भी एक महत्वपूर्ण चुनौती है जिस पर नई सरकार को ध्यान देना होगा.
इन चुनौतियों के बावजूद, दिल्ली के भविष्य के लिए आशा की किरण है.केंद्र और राज्य सरकार के बीच बेहतर तालमेल से कई लंबित परियोजनाओं को गति मिल सकती है.नागरिकों की सक्रिय भागीदारी और सरकार की प्रतिबद्धता से दिल्ली एक विकसित,स्वक्षयऔर समृद्ध राजधानी बन सकती है.यह समय है जब सभी हितधारक मिलकर काम करें और दिल्ली को एक वैश्विक मानकों वाला शहर बनाने की दिशा में आगे बढ़ें.
(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं.यह इनके विचार हैं)