प्रमोद जोशी
इस्लामिक देशों में सऊदी अरब और ईरान के बीच पुरानी प्रतिद्वंदिता है. उसके पीछे ऐतिहासिक कारण भी हैं. पिछले कुछ वर्षों से यह इतनी कटु हो गई थी कि दोनों देशों ने आपसी राजनयिक-संबंध भी तोड़ लिए थे. अब ये रिश्ते चीन की मध्यस्थता में फिर से कायम होने जा रहे हैं. इस्लामिक देशों की एकता और सहयोग की दृष्टि से तथा आने वाले समय की वैश्विक-राजनीति की दृष्टि से यह समझौता महत्वपूर्ण साबित होने वाला है.
बेशक दोनों देशों के दूतावास अगले दो महीनों के भीतर काम करने लगेंगे, पर यह सब जितना आसान समझा जा रहा है, उतना आसान भी नहीं है. इसीलिए इसे लागू करने के लिए दो महीने का समय रखा गया है, ताकि सभी जटिलताओं को सुलझा लिया जाए.
चीन की भूमिका
दोनों देशों के बीच चार दिन की बातचीत के बाद इस बात की घोषणा होने पर पर्यवेक्षकों को हैरत उतनी नहीं हुई, जितनी इसमें चीन की भूमिका को लेकर विस्मय पैदा हुआ है. क्या चीन अब वैश्विक-डिप्लोमेसी में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है? चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने इसे चीन के ग्लोबल सिक्योरिटी इनीशिएटिव (जीएसआई) की देन बताया है.
पिछले सात दशकों से पश्चिम एशिया में अमेरिका ही सबसे बड़ी भूमिका निभाता रहा है. यह पहला मौका है, जब इस भूमिका में चीन सामने आया है. ऐसी बैठक कराने में अमेरिका सबसे समर्थ है, पर ईरान के साथ उसके रिश्ते अच्छे नहीं हैं. फिर भी पश्चिमी पर्यवेक्षक मानते हैं कि संबंध-सुधार की इस प्रक्रिया के पीछे भी अमेरिकी सहमति है, क्योंकि वह पश्चिम एशिया में इसरायल-फलस्तीन झगड़े का निपटारा कराने के लिए ज़मीन तैयार कर रहा है.
अमेरिकी रज़ामंदी
अमेरिका ने समझौते का स्वागत किया है. ह्वाइट हाउस की प्रवक्ता केरिन जीन-पियरे ने कहा कि यमन में युद्ध रोकने की किसी भी कोशिश का अमेरिका समर्थन करता है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति बाइडन ने जुलाई में इस इलाक़े में तनाव कम करने की कोशिश और राजनयिक रिश्तों को मज़बूत करने के कदमों को अमेरिकी विदेश नीति की बुनियाद बताया था. खाड़ी क्षेत्र में तनाव कम करना अमेरिका की प्राथमिकता है हम इस समझौते का समर्थन करते हैं.
दूसरे नज़रिए से देखें, तो यह परिघटना अमेरिका को परेशान करने वाली होनी चाहिए, क्योंकि इससे ईरान को अलग-थलग करने की उसकी कोशिश को धक्का लगेगा. इसके पीछे कौन सी ताकत है और किसकी क्या भूमिका है, इसे स्पष्ट होने में भी कुछ समय लगेगा.
कड़वाहट की वज़ह
2016में प्रतिष्ठित शिया धर्म गुरु निम्र अल-निम्र सहित 47लोगों को आतंकवाद के आरोपों में सऊदी अरब में फाँसी दिए जाने के बाद ईरान और सऊदी रिश्ते खराब हो गए. इसके कारण जब भीड़ ने तेहरान स्थित सऊदी दूतावास पर हमला बोला, तो राजनयिक रिश्ते भी टूट गए. इसके बाद रिश्ते बिगड़ते ही गए और 2019ईरान में बने ड्रोनों ने जब सऊदी तोल-शोधक कारखानों पर हमले किए तो और बिगड़ गए.
इन दोनों देशों की प्रतिद्वंदिता का असर लेबनान, सीरिया, इराक़ और यमन समेत पश्चिम एशिया के कई देशों और समाजों पर पड़ रहा है. इस इलाके में चल रहे सशस्त्र-आंदोलनों में इन देशों के समर्थन से सक्रिय गुटों की भूमिका है. अभी तक अमेरिका और इसरायल की इन रिश्तों को बनाने और बिगाड़ने में भूमिका थी, पर पिछले कुछ समय से चीन और रूस की गतिविधियाँ भी इस इलाके में बढ़ी हैं. इस लिहाज से ताज़ा घटनाक्रम महत्वपूर्ण है.
प्रयासों की पृष्ठभूमि
गत 10मार्च को ईरान की सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के सेक्रेटरी अली शमखानी और सऊदी सुरक्षा सलाहकार मुसाद बिन मुहम्मद अल-ऐबान की बैठक अप्रत्याशित घटना नहीं थी, क्योंकि पिछले कुछ समय से ऐसी खबरें हवा में हैं कि दोनों के बीच अनौपचारिक स्तर पर बातचीत होने लगी है. हैरत इस बैठक के स्थान को लेकर है, जो पश्चिम एशिया के किसी देश में न होकर चीन में था, जिसकी अब तक पश्चिम की राजनीति में बड़ी भूमिका नहीं थी.
इस बैठक में ईरानी और सऊदी प्रतिनिधियों के बीच वांग यी बैठे थे, जो कुछ समय पहले तक चीन के विदेशमंत्री थे. चीन का इन देशों से अभी तक का रिश्ता कारोबारी रहा है और इस बैठक से भी लगता है कि आर्थिक कारणों से सऊदी अरब और ईरान ने चीन को महत्व दिया है.
दूसरे यह ज्यादा आसान था. चीन और ईरान के बढ़ते रिश्ते तभी नजर आने लगे थे, जब जुलाई 2020में दोनों देशों के बीच समझौता होने की घोषणा की गई थी. इसके बाद 2021में 25साल के दीर्घकालीन-सहयोग समझौते पर दस्तखत हुए.
चीन का प्रवेश
ईरान के राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी ने उस समझौते को ऐतिहासिक बताया था. पिछले महीने वे चीन की यात्रा पर भी आए थे. इसके पहले दिसंबर में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग सऊदी अरब की यात्रा पर आए थे. सऊदी अरब का चीन सबसे बड़ा बिजनेस पार्टनर है और दुनिया में पेट्रोलियम का सबसे बड़ा खरीदार. हालांकि सऊदी अरब को अमेरिका का मित्र देश माना जाता है, पर बदलती दुनिया में मित्रों की संख्या बदलती और बढ़ती जा रही है.
कारण केवल आर्थिक ही नहीं हैं. ईरान और सऊदी अरब दोनों ही इस समय अपनी समस्याओं से बाहर निकलना चाहते हैं. सऊदी अरब को समझ में आ रहा है कि उसे पेट्रोलियम के कारोबार से आगे के समय पर विचार करना होगा. इसके लिए उसके शहज़ादे मुहम्मद बिन सलमान ने विज़न-2030के नाम से एक कार्यक्रम बनाया है.
यमन की लड़ाई
इसके अलावा वह यमन के युद्ध से भी बाहर आना चाहता है. 2015से चल रही इस लड़ाई में हजारों मौतें हो चुकी हैं, फिर भी देश के काफी बड़े हिस्से पर हूती शिया-विद्रोहियों का कब्जा है. पिछले वर्ष संरा का अनुमान था कि यमन के युद्ध में तीन लाख 77 हजार लोगों की मौत हो चुकी है. इस दौरान हूतियों ने सऊदी अरब के ऊपर सैकड़ों मिसाइल दागे और सशस्त्र ड्रोनों से हमले किए. इस लड़ाई का परिणाम यह है कि हूती अब ईरान के और करीब चले गए हैं. उन्हें अब ईरान से हथियार, ट्रेनिंग और पैसा मिल रहा है.
सऊदी अरब अब हूतियों के साथ कोई समझौता चाहता है, ताकि उसपर हो रहे मिसाइलों पर ड्रोनों के हमले बंद हों. शायद ईरान-सऊदी समझौता यमन में शांति-स्थापना का रास्ता साफ करे। इस लिहाज से यह एक सकारात्मक कदम होगा. हालांकि इससे यमन का गृहयुद्ध खत्म नहीं हो जाएगा, केवल सऊदी हस्तक्षेप के कारण पैदा हुई स्थिति में बदलाव आएगा.
तल्ख़ी कम होगी
ईरान-सऊदी समझौते के कुछ और परिणाम भी होंगे. मसलन सन 2017से लंदन से चल रहे सैटेलाइट टीवी चैनल ईरान इंटरनेशनल का प्रसारण रुक सकता है. इस चैनल से लगातार ईरान-विरोधी प्रचार होता रहता है. हालांकि चैनल का प्रबंधन इस बात को नहीं मानता कि उसे सऊदी पैसा मिलता है,
पर ईरान की माँग है कि सऊदी सरकार इसका प्रसारण बंद कराए. ईरान की धमकी के बाद लंदन में ब्रिटिश पुलिस ने इस चैनल से जुड़े पत्रकारों की सुरक्षा भी बढ़ाई है. पिछले महीने चैनल ने घोषणा की कि हम अब अपना दफ्तर वॉशिंगटन ले जाएंगे.
चीन की मध्यस्थता से जो समझौता हुआ है, उससे स्थितियों को सामान्य बनाने में मदद मिलेगी और तल्ख़ी कुछ कम होगी, पर दोनों देशों में दोस्ताना रिश्ते बन जाएंगे, ऐसा अभी नहीं कह सकते. ऐतिहासिक विवादों के अलावा 1979में हुई ईरानी क्रांति के बाद से दोनों देशों के बीच सैद्धांतिक-टकराव बढ़ा है.
ईरान के नाभिकीय और मिसाइल कार्यक्रमों को लेकर सऊदी आपत्तियाँ फौरन खत्म होने वाली नहीं हैं. इसी तरह सऊदी-व्यवस्था को लेकर ईरान का अविश्वास भी जल्द ही दूर नहीं हो जाएगा. हाँ, हालात और नहीं बिगड़ेंगे तथा दोनों के बीच बेहतर संवाद स्थापित हो जाएगा.
बदलते रिश्ते
सऊदी अरब के अलावा ईरान के संयुक्त अरब अमीरात के साथ रिश्ते भी सुधर रहे हैं. 2016के बाद ईरान का यूएई के साथ भी राजनयिक-संबंध टूट गए थे, जो पिछले साल फिर से स्थापित हो गए. पिछले साल अबू धाबी पर भी ड्रोन हमले हुए थे. इसके पीछे कारण था ईरान के नाभिकीय-संयंत्रों पर इसरायली हमले. यूएई और इसरायल के रिश्ते 2020में कायम हो गए थे, जिसके कारण ईरान में संदेह बढ़ गया. माना जाता है कि सऊदी अरब और इसरायल के रिश्ते भी सामान्य हो रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षों में सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्तों में भी उतार-चढ़ाव आया है. डोनाल्ड ट्रंप के समय में रिश्ते बेहतर हुए थे, पर पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या के बाद बाइडन-प्रशासन ने हाथ खींच लिया.
चीन पर नज़र
अमेरिका की नज़रें सऊदी-ईरान रिश्तों पर नहीं है, बल्कि चीन पर हैं, जिसने इनके बीच मध्यस्थता की है. अमेरिका देखेगा कि चीन इस इलाके में किस प्रकार की भूमिका निभाना चाहता है. 2021में चीन के तत्कालीन विदेशमंत्री वांग यी ने पश्चिम एशिया में शांति-स्थापना के लिए पाँच-सूत्री कार्यक्रम का प्रस्ताव किया था. अब ईरान-सऊदी बातचीत में मध्यस्थ की भूमिका निभाकर चीन ने एक कदम और बढ़ाया है.
पश्चिमी पर्यवेक्षक मानते हैं कि इस समझौते के पीछे भी अमेरिका की भूमिका है और इसके बुनियादी प्रयास इराक और ओमान में हुए थे. चीन केवल समझौते का मेजबान बना. उनके अनुसार यह सब इसरायली-फलस्तीनी शांति-प्रयास का एक अंग है, जिसमें चीन की कोई भूमिका नहीं है. वह उसका प्रयास करेगा, तो फँस जाएगा.
चीनी मध्यस्थता के बावजूद पश्चिम एशिया में अमेरिकी प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती है. शीतयुद्ध के खत्म होने के बाद से अमेरिका ही एकमात्र बाहरी देश है, जिसका इस इलाके पर असर है. अलबत्ता 2015 में रूस ने सीरिया के युद्ध में राष्ट्रपति बशर अल-असद के पक्ष में हस्तक्षेप करके इस बात की संभावनाएं पैदा की थीं कि उसकी वापसी हो रही है, पर अब यूक्रेन-युद्ध में रूस फँसा हुआ है.
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )