प्रमोद जोशी
भारत और चीन के संबंधों को लेकर पिछले कुछ महीनों में हुई गतिविधियों से यह स्पष्ट संकेत मिला है कि दोनों देशों के बीच बिगड़े संबंध अब सुधार की दिशा में बढ़ रहे हैं, पर यह साफ नहीं है कि सुधार की पहल भारत की ओर से हुई या चीन की ओर से. या फिर दोनों देश अपने अनुभवों को देखते हुए समझौते की मेज पर आए हैं.
एक महीने पहले 21अक्तूबर को दोनों देशों ने एलएसी पर टकराव के दो बिंदुओं, देपसांग मैदानों और डेमचोक में गश्त व्यवस्था पर एक समझौता किया है. उसे देखते हुए लगता है कि वहाँ अप्रेल 2020से पहले की स्थिति या तो बहाल हो गई है, या जल्द हो जाएगी.
उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच रूस के कज़ान शहर में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के हाशिए पर मुलाकात हुई. इन दोनों बातों के अलावा विदेशमंत्री एस जयशंकर ने बताया कि दोनों देशों ने रिश्तों को सुधारने की दिशा में कुछ नए कदम उठाने का फैसला किया है.
चीनी नज़रिया
हाल में भारतीय पत्रकारों की एक टीम को बुलाकर चीन ने उन्हें अपना दृष्टिकोण समझाने की कोशिश की. अंग्रेजी के एक अखबार की रिपोर्ट के अनुसार, ‘चीनी अधिकारियों, व्यापारिक समुदाय के सदस्यों, तथा सरकारी थिंक टैंकों और मीडिया संगठनों के साथ हुई बैठकों का यह संदेश स्पष्ट था कि चीन रिश्तों को आगे बढ़ाना चाहता है.’
‘अधिकारियों ने अपनी ‘इच्छा-सूची’ बताई: देशों के बीच ‘सीधी उड़ानें’ फिर से शुरू करना, राजनयिकों और विद्वानों सहित चीनी नागरिकों पर वीजा प्रतिबंधों में ढील, चीनी मोबाइल ऐप पर प्रतिबंध हटें, चीनी पत्रकारों को भारत से रिपोर्टिंग करने दी जाए और चीनी सिनेमाघरों में अधिक भारतीय फिल्में दिखाने की अनुमति मिले आदि.’
अब 24 नवंबर को चीन के सरकारी मीडिया ‘ग्लोबल टाइम्स’ में प्रकाशित एक आलेख में कहा गया है, ‘प्रासंगिक सीमा बिंदुओं टकराव दूर करने के प्रयास द्विपक्षीय संबंधों में सुधार को बढ़ावा देने की दिशा में पहला कदम मात्र है.’
‘ग्लोबल टाइम्स’ ने लिखा है, ‘चीन-भारत संबंध अब भी उस स्थिति में नहीं लौटे हैं, जिसमें वे 2020में गलवान घाटी संघर्ष से पहले थे… हमें उम्मीद है कि द्विपक्षीय सहयोग से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर भारत, जल्द ही ठोस और सकारात्मक कदम उठाएगा.’
इसमें लिखा है, ‘कुछ लोगों का तर्क है कि भारत के रवैये में मौजूदा बदलाव आंशिक रूप से ‘लोकतंत्र’ और ‘मानवाधिकारों’ के मुद्दों पर अमेरिका, कनाडा और अन्य के साथ इसके बढ़ते मतभेदों के साथ-साथ सीमा पर सर्दियों में सेना की तैनाती के संसाधन की खपत को कम करने के विचारों के कारण है. इसने चीन के साथ संबंधों को सुधारने में नई दिल्ली की ईमानदारी पर संदेह पैदा किया है.’
आलेख के अनुसार, ‘चीन के प्रति भारतीय नीतियों की पिछली असंगतियों को देखते हुए, ये संदेह बेवजह नहीं हैं. चीन का मुकाबला करने के लिए अमेरिका पर निर्भर रहना और चीन और भारत के बीच युद्ध अपरिहार्य है जैसी गलत अवधारणाओं को समाप्त करने के अलावा, भारत को द्विपक्षीय संबंधों के स्थिर और स्वस्थ विकास को बढ़ावा देने के लिए चीन के साथ काम करने की भी आवश्यकता है.’
दोनों की ज़रूरत
चीनी प्रचार से हटकर संज़ीदगी से देखें, तो पाएँगे कि संबंध-सुधार दोनों की व्यावहारिक चिंताओं की देन है. सीमा पर तनाव कम करना और आर्थिक-रिश्तों को बढ़ाना दोनों की जरूरत है. खासतौर से चीन के साथ भारत व्यापार-घाटे को कम करना चाहता है.
चार साल पहले वैश्विक-राजनीति में चीन का जो दबदबा था, वह आज नहीं है. गलवान प्रकरण उस वक्त हुआ, जब दुनिया महामारी की चपेट में थी. उस परिघटना ने और अमेरिका के साथ उसके बढ़ते कारोबारी दबाव ने चीन की स्थिति को कमज़ोर किया है.
भारत को आर्थिक संवृद्धि को तेज करने के लिए चीनी वस्तुओं और भारत में चीनी-निवेश की ज़रूरत है. चीन भी पश्चिमी देशों के साथ बिगड़ते संबंधों के बीच भारत को मूल्यवान व्यापार भागीदार के रूप में देखता है.फौजी नज़रिए से भी भारत नहीं चाहता कि उसे चीन और पाकिस्तान के साथ दो-मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़े.
वहीं चीन इस समय ताइवान और दक्षिण चीन सागर में फँस गया है. इस बात ने भी चीन पर भारत से रिश्तों को सुधारने का दबाव डाला है. लद्दाख क्षेत्र में सेना की तैनाती का बोझ दोनों देशों पर कम होगा.
विवाद बने रहेंगे
ऐसा नहीं है कि दोनों देशों के सीमा-विवाद एक झटके में सुधर जाएँगे. अभी अरुणाचल के क्षेत्र के विवाद खत्म नहीं हुए हैं. अरुणाचल में गश्त के अधिकार को लेकर टकराव शुरू हो सकता है. चीन के साथ तमाम विवादों के बावजूद पिछले एक दशक में आर्थिक-सहयोग बढ़ा है, पर भारत का अविश्वास आसानी से दूर नहीं होगा.
कज़ान की मुलाकात के बाद ब्राजील के रियो डी जेनेरो में जी-20शिखर सम्मेलन के दौरान विदेशमंत्री एस जयशंकर और उनके चीनी समकक्ष वांग यी ने संबंधों में अगले कदम पर चर्चा की, जिसमें कैलाश मानसरोवर यात्रा तीर्थयात्रा को फिर से शुरू करना, सीमा पार नदियों पर डेटा साझा करना, भारत और चीन के बीच सीधी उड़ानें और मीडिया एक्सचेंज शामिल हैं.
दोनों मंत्रियों ने इस बात पर भी सहमति व्यक्त की कि विशेष प्रतिनिधियों और विदेश सचिव-उपमंत्री तंत्र की बैठक शीघ्र ही होगी. जयशंकर ने एक्स पर एक पोस्ट में लिखा, रियो में जी-20शिखर सम्मेलन के दौरान सीपीसी पोलित ब्यूरो के सदस्य और चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात की…हमने भारत-चीन सीमा क्षेत्रों में हाल ही में हुई सैन्य वापसी में हुई प्रगति पर गौर किया. और अपने द्विपक्षीय संबंधों में अगले कदमों पर विचारों का आदान-प्रदान किया.
धौंस में नहीं आएँगे
पिछले चार वर्षों के दौरान चीन को भी समझ में आ गया कि भारत, धौंस में नहीं आने वाला. जयशंकर ने कहा कि हम बहुध्रुवीय एशिया सहित बहुध्रुवीय विश्व के लिए दृढ़ता से प्रतिबद्ध हैं. जहाँ तक भारत का सवाल है, हमारी विदेशनीति सिद्धांतबद्ध और सुसंगत रही है, जो स्वतंत्र विचार और कार्रवाई से चिह्नित है. हम प्रभुत्व स्थापित करने के लिए एकतरफा दृष्टिकोण के खिलाफ हैं. भारत अपने रिश्तों को दूसरे देशों के चश्मे से नहीं देखता है.
कुछ पर्यवेक्षकों के मन में अब भी कई प्रकार के संदेह हैं. बहरहाल वे मानते हैं कि तनाव कम करने के लिए डिसइंगेजमेंट पहला कदम होगा. इसके बाद सेना हटाने और तनाव कम करने के कदम उठाने होंगे. फिर दोनों देशों को उन जगहों पर अपनी सेना तैनात करनी होगी जहाँ वे 2020 में तनाव बढ़ने से पहले थे.
पहला कदम
भारत और चीन के बीच सीमा प्रबंधन के प्रमुख तत्वों में से एक गश्त से जुड़ा है. चूँकि ज़मीन पर कोई भौतिक रेखा नहीं है जो नक्शों के अनुरूप हो, इसलिए सैनिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे बेस पर लौटने से पहले वहाँ तक जाएँ, जिसे भारतीय दृष्टि में अपना नियंत्रण-क्षेत्र माना जाता है.
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार दोनों पक्ष देपसांग मैदान और डेमचोक क्षेत्र में एक-दूसरे के गश्त के अधिकार बहाल करने पर सहमत हो गए हैं-ये वे क्षेत्र हैं जहाँ समस्याओं को विरासत के मुद्दे कहा जाता है, जो 2020 के चीनी घुसपैठ से पहले की हैं. इसका मतलब है कि भारतीय सैनिक देपसांग मैदानों में गश्त बिंदु (पीपी) 10 से 13 तक और डेमचोक के चार्डिंग नाले में गश्त कर सकते हैं. डेमचोक और देपसांग में गश्त और चराई की गतिविधियाँ मई 2020 से पहले की तरह फिर से शुरू होंगी.
बड़े मतभेद जारी रहेंगे
वैश्विक-राजनीति और आपसी व्यापार को लेकर दोनों देशों के मतभेद तो 2020 से पहले भी थे. वे एक झटके में तो दूर हो नहीं सकते. चीन के सामने भू-राजनीतिक चुनौतियाँ हैं. अमेरिका और जापान के साथ उसका तनाव बढ़ रहा है और सबसे बड़ी बात उसकी अर्थव्यवस्था गिरावट का सामना कर रही है. भारत के साथ सीमा पर गतिरोध से उसे कोई लाभ नहीं मिला है.
इसके साथ ही भारत पिछले साढ़े चार वर्षों में चीन के साथ अपने कड़वे अनुभवों को भी नजरंदाज़ नहीं कर सकता. दोनों देशों के बीच इस दौरान अविश्वास बढ़ा है. रिश्ते फिर से बनाए जा सकते हैं, पर पूर्वी लद्दाख में जो हुआ, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि 2020के पहले दोनों देशों के बीच विश्वास का जो स्तर था, उसकी वापसी फौरन नहीं हो सकती.
देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में सुझाव दिया है कि भारत में चीन के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देनी चाहिए. इस विषय पर फैसला करने के पहले सरकार को तमाम सवालों पर विचार करना होगा.
चीन-पाकिस्तान रिश्ते
चीन के साथ रिश्तों को लेकर जब भी बात होगी, उसके पाकिस्तान के साथ रिश्तों और भारत के साथ उसके सीमा-विवादों पर भी विचार करना होगा. पाक-अधिकृत कश्मीर से होते हुए चीन ने 1970 के दशक में कराकोरम हाइवे बनाया. सत्तर के दशक में चीन ने पाकिस्तान को परमाणु-उपकरण दिए.
फिर 2015 में चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर शुरू हुआ. सच यह है कि अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद से चीन और पाकिस्तान दोनों बौखला गए. चीन ने उसके बाद अपनी गतिविधियाँ बढ़ाईं, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है 2020 का गलवान युद्ध.
हाल में चीन ने पाकिस्तान को भी ब्रिक्स में शामिल करने की कोशिश की, जिसका भारत ने विरोध किया है. इस सिलसिले में ध्यान देने वाली बात है कि रूस भी पाकिस्तान को शामिल कराना चाहता है.
चीन और रूस दोनों ब्रिक्स को पश्चिमी देशों के मुकाबले का गठबंधन बनाना चाहते हैं. जनवरी 2024 में मिस्र, ईरान, इथियोपिया और यूएई को ब्रिक्स का सदस्य बनाया गया. हालांकि सऊदी अरब को भी शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था, लेकिन अभी उस दिशा में प्रगति नहीं हुई है. इन कोशिशों का स्पष्ट स्वरूप आने वाले वर्षों में ही दिखाई पड़ेगा.
वैश्विक-राजनीति
पीएम मोदी ने रूस के कज़ान में ब्रिक्स के 16वें शिखर सम्मेलन के समापन सत्र में जो कुछ भी कहा, उससे भारत की नीति स्पष्ट हो गई है. उन्होंने कहा कि भारत ब्रिक्स में नए सदस्यों का स्वागत करता है, लेकिन इससे जुड़े हर फ़ैसले सर्वसम्मति से होने चाहिए.
उन्होंने कई ऐसी बातें कहीं, जो पुतिन और शी जिनपिंग को असहज किया होगा. संयुक्त राष्ट्र और वर्ल्ड बैंक जैसे वैश्विक संस्थानों को रूस और चीन पश्चिम परस्त संगठन कहते हैं. ऐसे में ब्रिक्स के मंच से मोदी का यह कहना शी जिनपिंग और पुतिन को भी अच्छा नहीं लगा होगा. ब्रिक्स को चीन-परस्त संगठन बनाना भारत को भी मंज़ूर नहीं.
पीएम मोदी ने यह भी कहा कि ब्रिक्स को अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार के लिए आवाज़ उठानी चाहिए. इसके अर्थ को समझने की कोशिश करें. भारत संरा सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग कर रहा है, लेकिन चीन समर्थन नहीं करता है.
मोदी ने यह भी कहा कि आतंकवाद विरोधी लड़ाई और आतंकवाद के वित्त पोषण में हमें एक आवाज़ में बोलना चाहिए. ऐसे मुद्दों पर दोहरा मानदंड नहीं होना चाहिए. भारत ने कई बार संयुक्त राष्ट्र में 26/11को मुंबई में हुए हमले से जुड़े लश्कर के साजिद मीर को संयुक्त राष्ट्र में आतंकवादी घोषित कराने की कोशिश की तो चीन ने रोक दिया.
भारत ब्रिक्स का संस्थापक देश है और किसी भी नए सदस्य को शामिल करने में भारत की भी सहमति ज़रूरी है. पीएम मोदी ने कहा, जोहानेसबर्ग में हमने जिस प्रक्रिया और सिद्धांत को स्वीकार किया था, उसका पालन होना चाहिए.
ब्रिक्स में भारत ऐसे देशों को शामिल करने से परहेज करेगा, जिनकी चीन से वफ़ादारी पिछलग्गू के स्तर की है. भारत नहीं चाहेगा कि ब्रिक्स एक ऐसा मंच बने जहाँ चीन का दबदबा हो.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)