देस-परदेस: म्यांमार के फौजी-शासन के खिलाफ बगावत और देश टूटने का खतरा

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  onikamaheshwari | Date 07-01-2025
Country and abroad: Revolt against Myanmar's military rule and the danger of the country breaking up
Country and abroad: Revolt against Myanmar's military rule and the danger of the country breaking up

 

प्रमोद जोशी

बांग्लादेश के सत्ता-परिवर्तन और मणिपुर तथा पूर्वोत्तर के अन्य क्षेत्रों में चल रही गतिविधियों के बरक्स म्यांमार में चल रहे संघर्ष पर ध्यान देने की जरूरत आन पड़ी है. वहाँ बड़ी तेजी से स्थितियाँ बदल रही हैं. गत 9 दिसंबर को, अराकान आर्मी (एए) ने महत्वपूर्ण पश्चिमी शहर माउंगदाव में आखिरी चौकियों पर कब्जा करके बांग्लादेश के साथ 271 किलोमीटर लंबी सीमा पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया. माउंगदाव, म्यांमार के अराकान राज्य का उत्तरी इलाका है और बांग्लादेश के कॉक्स बाजार इलाके से सटा हुआ है.

रखाइन में अराकान आर्मी की यह जीत म्यांमार से अलग स्वतंत्र देश बनाने की दिशा में भी बढ़ सकती है. इस प्रांत में 17 में से 14 शहरों-कस्बों पर उसका कब्जा हो गया है. देश के लगभग बीस प्रतिशत कस्बों और कस्बों पर उनका नियंत्रण है.

यह घटनाक्रम भारत को भी प्रभावित करेगा. भारत की ‘एक्ट ईस्ट नीति’की देहरी पर म्यांमार पहला देश है. वहाँ की गतिविधियाँ हमारे पूर्वोत्तर को भी प्रभावित करती हैं. इस इलाके पर चीन के प्रभाव को देखते हुए भी वहाँ की आंतरिक गतिविधियों पर निगाहें रखना जरूरी है.

दुनिया की बेरुखी

अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी अब म्यांमार में दिलचस्पी लेना कम कर दिया है. केवल आसियान कोशिश करता है, पर वह भी बहुत सफल नहीं है. कुछ साल पहले तक अमेरिका की सरकार, म्यांमार में लोकतंत्र की प्रबल समर्थक नज़र आती थी. उसने पिछले एक दशक में लोकतंत्र समर्थक समूहों को 1.5 अरब  डॉलर से अधिक दिए हैं. पर अब उसने भी अपने हाथ खींच लिए हैं.

यों भी यूरोप और पश्चिम एशिया के युद्ध, अमेरिका की नज़र में म्यांमार की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. थाईलैंड, भारत और चीन वहाँ की सैनिक-सरकार की पराजय के परिणामों को लेकर भी चिंतित होंगे. सरकार गिरी, तो इलाके में अस्थिरता फैलेगी, और म्यांमार में वैसा ही हो जाएगा, जैसा नब्बे के दशक में सोमालिया में हुआ था. शरणार्थियों का एक बड़ा समूह पलायन करेगा.

2017-18 में म्यांमार के सशस्त्र समूहों ने रोहिंग्या समुदाय पर हमले करके करीब साढ़े सात लाख लोगों को बांग्लादेश की ओर खदेड़ दिया था. इस समय बांग्लादेश भी अराजकता से घिरा है, इसलिए समस्या जटिल हो जाएगी.

फौजी-सरकार संकट में

देश में तकरीबन वैसे ही हालात बन रहे हैं, जैसे सीरिया में थे. इस दौरान चीन ने वहाँ की सैनिक सरकार और विद्रोहियों दोनों के साथ संपर्क बना रखा है. सैनिक-सरकार संकट में है. सैनिकों को भोजन, वेतन और अन्य बुनियादी चीजें उपलब्ध कराने में उसे कठिनाई हो रही है.

सीरिया की तरह म्यांमार में भी शीर्ष सैन्य-कमांडरों के बीच समन्वय की कमी है और अराजकता है. जुंटा नेता मिन आंग लाइंग ने बार-बार बड़ी संख्या में वरिष्ठ अधिकारियों को हटाया और बदला है, जिससे सेना की रणनीति को लेकर अनिश्चय है.

जिस तरह सीरिया में कई प्रमुख विद्रोही समूह हैं, उसी तरह म्यांमार में भी कई विद्रोही ग्रुप हैं. इनमें जिनमें से कुछ ने अतीत में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ाइयाँ भी लड़ी है. अब वे एकजुट हैं और अपने लक्ष्य, जुंटा को हराने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.

विद्रोही-गठबंधन

तीन बड़े समूहों ने मिलकर ब्रदरहुड एलायंस बना रखा है, जिसमें अराकान आर्मी भी शामिल है. अराकान आर्मी के अलावा, इसमें म्यांमार नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस आर्मी या कोकांग समूह और ता'आंग नेशनल लिबरेशन आर्मी शामिल हैं.

पिछले साल अक्तूबर में, कोकांग समूह ने, ता’आंग नेशनल लिबरेशन आर्मी और अराकान आर्मी के साथ मिलकर उत्तरी शान राज्य के लाशियो शहर पर कब्जा कर लियाथा. चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे में लाशियो महत्वपूर्ण स्थान है.

आधुनिक म्यांमार के इतिहास में यह पहली बार है कि सेना की कोई क्षेत्रीय कमान विद्रोहियों के हाथों में चली गई. इसके बाद 20 दिसंबर को, अराकान सेना ने रखाइन प्रांत में सेना की पश्चिमी क्षेत्रीय कमांड पर भी कब्ज़ा कर लिया.

इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि अगर फौजी शासन की पराजय हो जाती है, तो ये सशस्त्र समूह एक-दूसरे से नहीं लड़ेंगे. देश में किसी ऐसे व्यक्ति की कमी है जो देश को एकजुट रख सके. आंग सान सू ची ऐसी नेता हो सकती थीं, पर वे अब वह उनहत्तर वर्ष की हैं, जेल में हैं, और बीमार भी.

चीनी दिलचस्पी

रखाइन प्राकृतिक गैस से समृद्ध इलाका है, जिसमें प्रमुख चीनी परियोजनाएँ शामिल हैं, जिनमें अरबों डॉलर का निवेश हुआ हैं. इनमें तेल और प्राकृतिक गैस पाइपलाइनें तथा चीन के स्थल-रुद्ध (लैंडलॉक्ड) युन्नान प्रांत से हिंद महासागर तक का कॉरिडोर शामिल है.

चीन अपनी परियोजनाओं को हर शर्त पर लागू कराना चाहता है, जबकि ‘वन बेल्ट, वन रोड’ कार्यक्रम की चीनी शर्तों को लेकर म्यांमार में चिंताएँ हैं.खबरें हैं कि अराकान आर्मी ने चीनी-परियोजनाओं की सुरक्षा का वचन दिया है.

चीन कोशिश कर रहा है कि राजनीतिक-समझौता हो जाए. ब्रदरहुड एलायंस के कुछ सहयोगी भी बातचीत के लिए तैयार हो गए हैं. दूसरी तरफ चीन का सुझाव मानकर फौजी सरकार इस साल चुनाव की तैयारी भी कर रही है, पर लगता नहीं कि आसानी से हालात सुधरेंगे.

आसियान की भूमिका

म्यांमार के पड़ोसी देश समाधान तलाश रहे हैं. हाल में इस पर चर्चा करने के लिए थाईलैंड के बैंकॉक में बैठकें हुई हैं. गत 19-20 दिसंबर को हुई बैठक में चीन भी शामिल था जिसमें बांग्लादेश, भारत, लाओस और थाईलैंड शामिल थे. भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री इस बैठक में शामिल होने गए थे।

इस बैठक में म्यांमार के उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री थान स्वे ने सैनिक-शासन की ओर से चुनाव की रूपरेखा पेश की. विद्रोही समूहों ने योजना को खारिज कर दिया है. उन्होंने इसकी वैधता पर सवाल उठाया और कहा कि क्या गारंटी है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे?

20 दिसंबर को आसियान देशों के प्रतिनिधियों की बैठक हुई, जिसमें म्यांमार को छोड़कर अन्य देश शामिल थे, क्योंकि तख्तापलट के बाद से आमतौर पर सैन्य शासन द्वारा नियुक्त लोगों को उच्च स्तरीय बैठकों में भाग लेने नहीं दिया जाता है.

पृष्ठभूमि

1948 में ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिलने के बाद से म्यांमार अपने बहुजातीय समाज के साथ राष्ट्रीय-एकता को कायम करने की कोशिश कर रहा है. 1962 में तख्तापलट के बाद से ज्यादातर वहाँ सेना का नियंत्रण है. आत्मनिर्णय के लिए लड़ रहे जातीय अल्पसंख्यक समूहों के साथ भी वह लड़ती रही है.

पिछले कुछ वर्षों से वहाँ रोहिंग्या समस्या भी सामने आई है. रोहिंग्या, मुसलमानों का समूह है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार रोहिंग्या लोग दुनिया के सब से उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समूहों में से एक है. म्यांमार के 1982 के राष्ट्रीयता क़ानून के तहत रोहिंग्या समुदाय को नागरिकता से रोक दिया गया है.

इनकी कुल संख्या दस लाख से अधिक है. जून और अक्तूबर, 2012 में हिंसा, प्रतिशोध और दंगों की दो लहरों के बाद सदियों पुराना संघर्ष तेज हो गया. इसमें एक लाख से अधिक रोहिंग्या आंतरिक रूप से विस्थापित हो गए और सैकड़ों मारे गए.

अगस्त 2017 में रखाइन प्रांत में टकराव नाटकीय रूप से बढ़ गया. खुद को अराकान रोहिंग्या सॉल्वेशन आर्मी कहने वाले उग्रवादियों के एक समूह ने सेना और पुलिस चौकियों पर हमले किए, जिनमें सत्तर से ज़्यादा लोग मारे गए. इनमें बारह सुरक्षा बल के जवान भी शामिल थे. जवाब में, सेना ने क्रूर कार्रवाई की, जिसके कारण अगस्त 2017 से अब तक सात लाख से ज़्यादा लोग सीमा पार करके बांग्लादेश भाग गए.

लोकतंत्र का आगमन

लंबा लोकतांत्रिक-आंदोलन चलाने के बाद मार्च 2016 में सू ची के नेतृत्व में नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की सरकार बनी. यह सरकार भी रोहिंग्या लोगों की स्थिति को सुधार नहीं पाई और न उन्हें वोट देने का अधिकार दिला पाई.

अगस्त 2016 में एक राष्ट्रीय शांति सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसका उद्देश्य सेना और कई सशस्त्र जातीय समूहों के बीच दशकों से चल रही लड़ाई को समाप्त करना था.  

उसी महीने, आंग सान सू ची ने रखाइन में तनाव को दूर करने के लिए समीक्षा करने और सिफारिशें देने के लिए पूर्व संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान की अध्यक्षता में नौ-व्यक्ति आयोग के गठन की घोषणा की. अगस्त 2017 में इसकी रिपोर्ट आ भी गई, पर कुछ हुआ नहीं.

चुनाव और तख्तापलट

इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए लोकतांत्रिक-सरकार को पुष्ट करने की जरूरत थी. यह काम नवंबर 2020 के चुनावों पर निर्भर करता था. इसमें आंग सान सू ची की पार्टी को भारी सफलता मिली, पर फरवरी 2021 की शुरुआत में, सेना ने उनका तख्तापलट कर दिया.

लोकतांत्रिक-सरकार के वरिष्ठ नेताओं को हिरासत में ले लिया गया. इनमें सू ची भी शामिल थीं. एनएलडी ने नवंबर में हुए चुनाव में भारी जीत हासिल की थी. नवगठित संसद का अधिवेशन 1 फरवरी से होना था. सेना ने कहा, चुनाव में धाँधली हुई है, जो हमें मंजूर नहीं.

म्यांमार का कथित लोकतंत्र यों भी चूं-चूं का मुरब्बा है. वहाँ के संविधान के अनुसार संसद की चौथाई सीटें सेना के लिए आरक्षित हैं. ‘दोहरी या संकर प्रणाली’ खासी अलोकतांत्रिक है. असली ताकत ‘तात्मादाव’ यानी सेना के पास है.

फौजी-लोकतंत्र!

इस संविधान की रचना भी 2008 में सेना ने ही की थी. इस ‘लोकतांत्रिक’ व्यवस्था में सेना और जनता के चुने हुए प्रतिनिधि मिल-जुलकर सरकार चलाते थे. संसद के दोनों सदनों की 25 प्रतिशत सीटों पर सेना का अधिकार है. इनके अलावा प्रांतीय सदनों में यह आरक्षण एक तिहाई सीटों का है.

तीन अहम मंत्रालय, गृह, रक्षा, और सीमा मामले सेना के पास हैं. सेना-समर्थक राजनीतिक दल ‘यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी’ (यूएसडीपी) को खुलकर खेलने और सेना को आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार भी है.  

बहरहाल चुनाव में एनएलडी ने संसद के दोनों सदनों में 397 सीटें जीतीं, जो जरूरी बहुमत के आँकड़े 322 से काफी अधिक थी. सेना-समर्थित यूएसडीपी को 28 और अन्य दलों को 44 सीटें मिलीं.

हार नहीं पची

इस भारी पराजय को सेना पचा नहीं पाई. विडंबना है कि 2015 के चुनाव में भारी बहुमत से जीतने के बावजूद सू ची राष्ट्रपति नहीं बन पाईं. उनके लिए एक विशेष पद बनाया गया. उनकी पार्टी संसद में वह सांविधानिक संशोधन भी पास नहीं करा पाई, जो उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकता था.  

संविधान के अनुसार जिस व्यक्ति का जीवनसाथी या बच्चे विदेशी होंगे, वह सर्वोच्च पद नहीं ले सकता. सू ची के दिवंगत पति ब्रितानी नागरिक थे और उनके दोनों बेटे ब्रिटिश नागरिक हैं.

म्यांमार में सेना की भूमिका उसके स्वतंत्रता संग्राम के दौरान से ही है. सू ची म्यांमार की आज़ादी के नायक जनरल आंग सान की बेटी हैं. 1948 में ब्रिटिश राज से आज़ादी से पहले ही जनरल आंग सान की हत्या कर दी गई थी. सू ची उस वक़्त सिर्फ दो साल की थीं.

सू ची को मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली महिला के रूप में देखा गया, जिन्होंने फौजी शासकों को चुनौती देने के लिए अपनी आज़ादी त्याग दी. साल 1991 में नजरबंदी के दौरान सू ची को नोबेल शांति पुरस्कार से अलंकृत किया गया था.2015 में उनके नेतृत्व में एनएलडी ने एकतरफा चुनाव जीता था. म्यांमार के इतिहास में 25 साल में हुआ वह पहला चुनाव था जिसमें लोगों ने खुलकर हिस्सा लिया.

  (लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)

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