प्रमोद जोशी
लोकसभा चुनाव के परिणाम आज आने वाले हैं, पर उसके पहले एग्ज़िट पोल के परिणाम आ चुके हैं, जिन्हें लेकर देश के अलावा विदेश में भी प्रतिक्रिया हुई है. रायटर्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय एग्ज़िट-पोलों के परिणाम असमान (पैची) होते हैं.
भारतीय चुनाव के परिणामों को लेकर पश्चिमी देशों में खासी दिलचस्पी है. अमेरिका और यूरोप में भारतीय-लोकतंत्र को लेकर पहले से कड़वाहट है, पर पिछले दस साल में यह कड़वाहट बढ़ी है.एग्ज़िट पोल से अनुमान लगता है कि देश में लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने जा रही है. अंतिम परिणाम क्या होंगे, यह आज (4जून को) स्पष्ट होगा, पर भारतीय लोकतंत्र को लेकर पश्चिमी देशों में जो सवाल खड़े किए जा रहे हैं, उनपर विचार करने का मौका आ रहा है.
पश्चिमी-चिंताएं
2014 और 2019 में भी लोकसभा चुनावों के ठीक पहले पश्चिम के मुख्यधारा-मीडिया ने चिंता व्यक्त की थी. साफ है कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी नापसंद हैं, फिर भी उन्हें पसंद करना पड़ रहा है.
जैसे-जैसे भारत का वैश्विक-प्रभाव बढ़ेगा, पश्चिमी-प्रतिक्रिया भी बढ़ेगी. लोकतांत्रिक-रेटिंग करने वाली संस्थाएं भारत के रैंक को घटा रही हैं, विश्वविद्यालयों में भारतीय-लोकतंत्र को सेमिनार हो रहे हैं और भारतीय-मूल के अकादमीशियन चिंता-व्यक्त करते शोध-प्रबंध लिख रहे हैं.
इस पूरे क्रिया-कलाप पर भारत की आंतरिक-राजनीति की छाया भी है. पश्चिम का एक विद्वत्वर्ग, राजनीति के एक धड़े के साथ खड़ा दिखाई पड़ता है.
अमेरिकी-हित
पिछले साल जून के महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के समय अमेरिकी-मीडिया में इस बात को लेकर बहस थी कि मोदी के नेतृत्व वाले भारत के साथ रिश्ते सुधारना क्या उचित है?उस यात्रा के दौरान मोदी के कटु आलोचक भी अपेक्षाकृत खामोश रहे. कुछ सांसदों ने उनके भाषण का बहिष्कार जरूर किया और एक पत्र भी जारी किया, पर उसकी भाषा संयमित थी. उस संयम का मतलब था कि वे व्यावहारिक-कारणों से खामोश हैं.
तब 'द वाशिंगटन पोस्ट' ने लिखा, मोदी की इस चमकदार-यात्रा का इस धारणा के साथ समापन हुआ कि जब अमेरिका के सामरिक-हितों की बात होती है, तो वे मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों पर मतभेदों को न्यूनतम स्तर तक लाने के तरीके खोज लेते हैं.
मोदी के दूसरे कटु आलोचक 'द न्यूयॉर्क टाइम्स' ने अपने पहले पेज पर अमेरिकी कांग्रेस में 'नमस्ते' का अभिवादन करते हुए नरेंद्र मोदी की फोटो छापी. ऑनलाइन अखबार हफपोस्ट ने लिखा कि नरेंद्र मोदी आलोचना करने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं.
बदलता रसूख
ऐसा नहीं है कि पश्चिमी देशों को वर्तमान सरकार से ही शिकायतें हैं. उनकी शिकायत हमेशा रही है. पचास के दशक में भारत की वैश्विक भूमिका, आदर्शों में थी. आर्थिक और सामरिक क्षेत्र में नहीं. भारतवंशियों की इतनी बड़ी तादाद भी बाहरी देशों में नहीं थी.
लोकसभा के चुनाव-परिणाम आने के ठीक पहले ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट के एशिया डिप्लोमैटिक एडिटर जेरेमी पेज ने सवाल पूछा है, नरेंद्र मोदी तीसरे टर्म में भी प्रधानमंत्री बने, तो पश्चिमी देशों का नज़रिया क्या होगा?
उन्होंने चीन के 1989के तिएन-अन-मन चौक के हत्याकांड का हवाला देते हुए लिखा है, तब अमेरिका ने चीन का समर्थन इस आधार पर किया था कि वह सोवियत संघ के खिलाफ हमारा मददगार होगा. चीन की अर्थव्यवस्था तब गति पकड़ रही थी. व्यावसायिक-हित भी थे. अब भारत के मामले में भी करीब वैसा ही है.
बाँह मरोड़ने में नाकामयाब
इकोनॉमिस्ट के इस लेखक की दृष्टि में भारत की व्यवस्था चीन जैसी एकदलीय नहीं है. बीजेपी का देश पर पूर्ण प्रभुत्व है भी नहीं. 2019में चुनाव में उसे 38फीसदी वोट ही मिले थे. अलबत्ता पश्चिमी राजनेताओं को लगता है कि मोदी के खिलाफ मोर्चाबंदी नाकामयाब है. चीन के बरक्स हमें भारत का समर्थन करना ही होगा, अन्यथा चीन अपनी शासन-पद्धति को दक्षिण के देशों पर लाद देगा.
उनकी तकलीफ अमेरिका के घटते रसूख को लेकर भी है. पश्चिमी लोकतंत्र अंतर्विरोधों में घिरा है. डोनाल्ड ट्रंप फिर से जीत गए, तो क्या होगा? यह अंदेशा मामूली नहीं है. अमेरिकी जीवन और समाज में पिछले पाँच साल में जबर्दस्त कटुता बढ़ी है. यह कटुता यूरोप के देशों में भी दिखाई पड़ रही है.
चीनी-उभार
दिसंबर, 2021 में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘डेमोक्रेसी समिट’ का आयोजन किया था, जिसके जवाब में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा कि असली और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र चीन में है. अमेरिकी विद्वान अपनी व्यवस्था को ही लोकतंत्र मानते हैं. वे नहीं समझ पाते हैं कि वे जैसे लोकतंत्र की बात कर रहे हैं, जरूरी नहीं है कि वह भारतीय समाज के खून में भी हो.
हम मानते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है, पर इकोनॉमिस्ट के डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत को उतना अच्छा स्थान नहीं दिया जाता, जितना हम चाहते हैं. पश्चिम में हमारी आलोचना हो रही है. वैसे ही जैसे 1975-77की इमर्जेंसी के दौर में हुई थी.
बावजूद इसके सच यह भी है कि हर पाँच साल में सफलता के साथ आयोजित होने वाला हमारा आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है. इस सफलता के बावजूद लोकतंत्र को लेकर सवाल हैं, तो उनकी पड़ताल हमें ही करनी होगी.
लोकतंत्र का मृत्यु लेख
अगस्त 2022 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक लेख छापा, जिसका शीर्षक था ‘मोदीज़ इंडिया इज़ ह्वेयर ग्लोबल डेमोक्रेसी डाइज़.’ यह लेख तब प्रकाशित हुआ, जब हम अपनी स्वतंत्रता के 75वर्षों का उत्सव मना रहे थे. क्या यह ह्वाइट सुप्रीमेसी की अभिव्यक्ति नहीं थी? इसी अखबार ने भारत के चंद्रयान का कार्टून बनाकर मजाक उड़ाया था और बाद में माफी भी माँगी थी.
2021 में जब भारत कोविड-19के हमले की मार झेल रहा था, वैश्विक-स्तर पर दो तरह की प्रवृत्तियाँ देखने को मिलीं. भारत ने अमेरिका, ब्रिटेन, रूस और चीन के समांतर अपनी वैक्सीन भी बनाई, जो सफलता की कथा थी, पर पश्चिमी देशों में जलती चिताओं की तस्वीरें छप रही थीं, जो विफलता की कहानी को रेखांकित करना चाहती थीं.
नागरिक अधिकारों और अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर भारत की आंतरिक राजनीति में बहस है. पश्चिमी-मीडिया के निष्कर्ष भारतीय मीडिया को पढ़ने से ही बने हैं. यानी कि भारतीय मीडिया सरकार की आलोचना भी करता है. क्या किसी अलोकतांत्रिक-व्यवस्था में ऐसा संभव है ?
सोरोस का आह्वान
पिछले साल फरवरी में टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस ने अपने चेहरे पर से पर्दा हटाते हुए कहा कि हम भारतीय लोकतंत्र के पुनरुत्थान के लिए कोशिशें कर रहे हैं. कैसा पुनरुत्थान, क्या हमारा लोकतंत्र सोया हुआ है?
बाद में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने सोरोस को जवाब दिया. ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र के दौरान जयशंकर ने कहा कि सोरोस की टिप्पणी ठेठ 'यूरो अटलांटिक नज़रिये' वाली है. वे न्यूयॉर्क में बैठकर मान लेते हैं कि पूरी दुनिया की गति उनके नज़रिए से तय होगी.
जयशंकर ने कहा, ये लोग नैरेटिव बनाने पर पैसा लगा रहे हैं. वे मानते हैं कि उनका पसंदीदा व्यक्ति जीते तो चुनाव अच्छा है और हारे, तो कहेंगे कि लोकतंत्र खराब है. गजब है कि यह सब कुछ खुले समाज की वकालत के बहाने किया जाता है. भारत के मतदाता फैसला करेंगे कि देश कैसे चलेगा.
लोकतंत्र क्या होता है ?
हम अपनी खामियों को स्वीकार करके, उन्हें दुरुस्त करने की बात करें, तो समझ में आता है, पर हम पर यह आरोप लगे कि भारत में लोकतंत्र मर रहा है, तो यह अनुचित है. देश के ही लोग बाहर जाकर यह प्रचार करें, तो और भी गलत है. ध्यान दें यह चीन नहीं, भारत है जो इस प्रचार की भी अनुमति दे रहा है.
कुछ साल पहले, जब हम भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर बहस कर रहे थे एक अख़बार में खबर छपी कि चीन के लोग मानते हैं कि भारत के विकास के सामने सबसे बड़ा अड़ंगा है, लोकतंत्र. कई चीनी अख़बारों ने इस आशय की टिप्पणियाँ कीं कि भारत का ‘छुट्टा लोकतंत्र’ उसके पिछड़ेपन का बड़ा कारण है.
चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की निरंकुश राजनीतिक व्यवस्था है. हमें वैसी व्यवस्था नहीं चाहिए, पर अपने किस्म का अनुशासन जरूर चाहिए. प्रश्न है कि पश्चिमी देशों को भारत के (या मोदी के) लोकतंत्र से क्या शिकायत है?
आग लग जाएगी !
अमेरिकी चुनावों में कटुता बहुत ज्यादा बढ़ी है. भारत में यह पहले से थी. इसबार के चुनाव में विरोधी गठबंधन ‘इंडिया’ ने संविधान और लोकतांत्रिक-संस्थाओं का सवाल भी उठाया है. कहा गया कि ‘400पार’ का नारा संविधान को बदलने (या खत्म करने) के लिए दिया गया है.
राहुल गांधी ने कहा, बीजेपी ने 400 पार का नारा दिया है…लेकिन बिना ईवीएम मैनेज किए, बिना मैच फिक्सिंग के और बिना मीडिया-सोशल मीडिया को खरीदे 180भी पार नहीं होने जा रहा है. इनके सहारे वह चुनाव जीती, तो संविधान बदल देगी, देश में आग लग जाएगी. आरक्षण खत्म हो जाएगा वगैरह.
ये बातें लोकतांत्रिक-व्यवस्था को लेकर भय पैदा करने वाली हैं. बेशक, संविधान को लेकर बहस है, पर उसे खत्म करने की बात किसने की? भारत की जनता ऐसा नहीं चाहती और बीजेपी ने ऐसा कहा भी नहीं. संविधान में संशोधन सौ से ज्यादा हो चुके हैं. इससे संविधान खत्म नहीं हुआ. देश में एक अदालत है, जो उसकी रक्षा करती है.
चुनाव-प्रचार के दौरान विरोधी दलों ने सीबीआई और ईडी को ‘देख लेंगे’ की धमकी दी. ईवीएम को लेकर संदेह पैदा किया. व्यवस्था में छिद्र हैं, तो उन्हें सुधारने की कोशिश होनी चाहिए. ये छिद्र आज पैदा नहीं हुए हैं. याद करें, सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सरकारी तोता जब कहा था, तब किसकी सरकार थी.
राष्ट्रीय-लक्ष्य
लोकतांत्रिक भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य दिए हैं. ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन. यह काम सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा और इसमें क्षेत्र, जाति, धर्म और लिंग का भेदभाव नहीं होगा.
ये लक्ष्य पूरी तरह हासिल हुए या नहीं हुए, इसे लेकर कई तरह की राय हैं, पर इन लक्ष्यों को लेकर मतभेद नहीं हैं. सामाजिक-आधार पर मोदी-सरकार की आलोचना करने वालों को भी मानना होगा कि उज्ज्वला से लेकर अन्न-वितरण और गाँवों में पक्के मकानों की व्यवस्था सबके लिए है, जाति-धर्म-संप्रदाय को ध्यान में रखे बगैर.
बहुरंगी समाज की चुनौती
भारतीय समाज दुनिया का सबसे बहुरंगी समाज है. उसे एक बनाकर रखने की चुनौतियाँ हैं. हमने जिस राजनीतिक-व्यवस्था को अपनाया है, वह स्वदेशी नहीं है. एक परंपरागत बहुरंगी समाज जब अपने अतीत को साथ लेकर भविष्य की वैश्विक-व्यवस्था से जुड़ता है, तो विसंगतियाँ भी पैदा होती हैं.
बड़ी संख्या में हमारे आधुनिक-विचारक पश्चिम में शिक्षित और दीक्षित हैं. महात्मा गांधी और नेहरू से लेकर सावरकर तक. पर हम सोरोस के विचारों से नियंत्रित नहीं होंगे. यह बात पूरे पश्चिमी-अमले को समझनी चाहिए.
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )