प्रमोद जोशी
हाल में अमेरिकी सांसदों के एक शिष्टमंडल ने तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से धर्मशाला स्थित मुख्यालय में जाकर मुलाकात की थी, जिसे लेकर चीन सरकार ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है.अमेरिका की ओर से तिब्बत को लेकर ऐसी गतिविधियाँ पहले भी चलती रही हैं, पर भारत में पहली बार इतने बड़े स्तर पर ऐसा संभव हुआ है. इससे भारत की तिब्बत-नीति में बदलाव के संकेत भी देखे जा रहे हैं, पर ऐसा भी लगता है कि किसी स्तर पर असमंजस भी है.
उदाहरण के लिए 2016 में सरकार ने चीनी असंतुष्टों के एक सम्मेलन की अनुमति दी, जिसमें दुनिया भर से वीगुर और तिब्बती नेताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन अंतिम समय में उनके वीज़ा रद्द कर दिए गए.इसके बाद 2019 में दलाई लामा के भारत आगमन की 60 वीं वर्षगाँठ के मौके पर कई कार्यक्रमों की योजना बनाई गई, पर एक सरकारी-परिपत्र के मार्फत अधिकारियों से कहा गया कि वे इसमें भाग न लें.
दलाई लामा की राजघाट यात्रा सहित अन्य कार्यक्रमों को रद्द करना पड़ा.इसके बाद 2020 में भाजपा नेता राम माधव ने भारतीय सेना के तहत प्रशिक्षित तिब्बती स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के एक सैनिक के अंतिम संस्कार में सार्वजनिक रूप से भाग लिया, लेकिन बाद में उन्होंने उससे जुड़े अपने ट्वीट को डिलीट कर दिया.
2021 में प्रधानमंत्री ने 2013 के बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से दलाई लामा को शुभकामनाएं दीं, लेकिन विदेश मंत्रालय ने यह भी सफाई दी कि दलाई लामा एक सम्मानित धार्मिक नेता हैं, और उन्हें शुभकामनाएं देना सम्मानित अतिथि के रूप में भारतीय-नीति का अंग है.
बहरहाल, कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि भारत धीरे-धीरे अमेरिका के प्रभाव में आ रहा है, जो बात उसकी स्वतंत्र विदेश-नीति से मेल नहीं खाती है. इस संदर्भ में भारत की ज़मीन से अमेरिकी शिष्टमंडल का तिब्बत के मुद्दे को उठाना खींचता है.
कुछ सवाल
भारत, तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है और दलाई लामा और चीन के बीच की तकरार में शामिल होने से परहेज़ करता है. पर ताजा घटनाक्रम से कुछ सवाल खड़े हुए हैं.कहा जा रहा है कि अमेरिकी शिष्टमंडल की यह निजी यात्रा थी और दलाई लामा के साथ बातचीत में भारत सरकार के प्रतिनिधि की उपस्थिति नहीं थी. हमारे यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और प्रतिनिधिमंडल की यात्रा पर रोक भी लगाई नहीं जा सकती थी.
एक दृष्टिकोण यह भी है कि चीन को कड़ी-निंदा से ज्यादा कुछ देने का समय आ गया है. उसने अप्रैल 2020 के बाद से लद्दाख में जो रुख अपनाया है, वह चिंताजनक है और उसका जवाब देना ज़रूरी है. हमें तिब्बत और ताइवान को लेकर उसपर दबाव बनाना चाहिए. पर ऐसा करते हुए हमें समग्र चीन-नीति पर पुनर्विचार करना होगा. क्या हम ऐसा कर सकेंगे?
दलाई लामा के उत्तराधिकारी
अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने दलाई लामा से मुलाक़ात ऐसे समय पर की है, जब उनका जन्मदिन क़रीब है. 6जुलाई को वे अपना 89वाँ जन्मदिन मनाएंगे. पर महत्वपूर्ण है, उनका भारत आकर भेंट करना, जबकि उसके फौरन बाद इलाज के लिए दलाई लामा खुद अमेरिका गए.
वे चाहते, तो अमेरिका में ही उनसे भेंट कर सकते थे. दलाई लामा की उम्र को देखते हुए अटकलें हैं कि चीन दलाई लामा की संस्था और उनके उत्तराधिकारी का फैसला खुद करना चाहता है.इस मुलाक़ात से पहले चीन ने नाराज़गी जताते हुए चेतावनी वाले अंदाज़ में कहा था कि अगर अमेरिका तिब्बत को चीन का हिस्सा ना मानते हुए , अपनी प्रतिबद्धता का सम्मान नहीं करेगा तो चीन इस पर ‘कड़े क़दम उठाएगा.’
चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लिन चियान ने कहा, "ये सभी जानते हैं कि 14वें दलाई लामा कोई विशुद्ध धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि धर्म की आड़ में चीन विरोधी अलगाववादी गतिविधियों में लिप्त एक निर्वासित राजनीतिक व्यक्ति हैं.''
अमेरिकी विधेयक
लिन ने ख़ास तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से कांग्रेस में पारित चीन-तिब्बत विवाद को सुलझाने की वकालत करने वाले एक्ट का समर्थन ना करने की अपील की है.इस विधेयक के अनुसार अमेरिका तिब्बत के इतिहास, लोगों और संस्थाओं के बारे में चीन की ओर से फैलाई जा रही 'ग़लत सूचना' से निपटने के लिए फंड मुहैया कराएगा. इस बिल में चीन के उस बयानिया का जवाब दिया जाएगा, जिसमें वह तिब्बत पर अपना दावा करता है.
बिल के ज़रिए कोशिश है कि चीन पर दबाव बनाया जाएगा कि वह तिब्बती नेताओं के साथ बात करे जो साल 2010से रुकी हुई है, ताकि तिब्बत पर समझौता हो सके.चीन तिब्बत को अपना भू-भाग मानता रहा है लेकिन तिब्बत ख़ुद को चीन के अधीन नहीं मानता और अपनी आज़ादी की बात करता रहा है. दलाई लामा का कहना है कि हम चीन से आज़ादी नहीं चाहते हैं, लेकिन स्वायत्तता चाहते हैं.
भारतीय दृष्टिकोण
कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण और तिब्बत पर चीनी हमले के समय की भारतीय विदेश-नीति को लेकर देश के भीतर पहले से असहमतियाँ हैं. तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और नेहरू जी के बीच के पत्र-व्यवहार से यह बात ज़ाहिर होती है.तिब्बत की राजधानी ल्हासा में भारत का दूतावास हुआ करता था.
उसका स्तर 1952 में घटाकर कौंसुलर जनरल का कर दिया गया. 1962 की लड़ाई के बाद वह भी बंद कर दिया गया. कुछ साल पहले भारत ने ल्हासा में अपना दफ्तर फिर से खोलने की अनुमति माँगी, तो चीन ने इनकार कर दिया.1959 में भारत ने दलाई लामा को शरण जरूर दी, पर ‘एक-चीन नीति’ यानी तिब्बत पर चीन के अधिकार को मानते रहे.
आज भी यह भारत की नीति है. तिब्बत को हम स्वायत्त-क्षेत्र मानते थे. चीन भी उसे स्वायत्त-क्षेत्र मानता है, पर उसकी स्वायत्तता की परीक्षा करने का अधिकार हमारे पास नहीं है.
कानूनी-स्थिति
चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा रहा है लेकिन तिब्बतियों का कहना है कि तिब्बत कई शताब्दियों तक एक स्वतंत्र राज्य था और चीन का उस पर निरंतर अधिकार नहीं रहा. मंगोल राजा कुबलई ख़ान ने युआन राजवंश की स्थापना की थी और तिब्बत ही नहीं बल्कि चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का विस्तार किया था.
सत्रहवीं शताब्दी में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ संबंध बने. 260 साल के रिश्तों के बाद चिंग-सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया. लेकिन तीन साल के भीतर ही उसे तिब्बतियों ने खदेड़ दिया और 1913में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा की.
1951 में चीनी सेना ने एक बार फिर तिब्बत पर नियंत्रण कर लिया और तिब्बत के एक शिष्टमंडल से एक संधि पर हस्ताक्षर करा लिए, जिसके अधीन तिब्बत की संप्रभुता चीन को सौंप दी गई. 1959में तत्कालीन दलाई लामा भागकर भारत आए और तभी से वे तिब्बत की स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
रुख़ में बदलाव
भारत का रुख़ तिब्बत को लेकर बदलता रहा है. साल 2003के जून महीने में भारत ने ये आधिकारिक रूप से माना कि तिब्बत चीन का हिस्सा है. चीन के उस समय के राष्ट्रपति जियांग ज़ेमिन के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मुलाक़ात के बाद भारत ने तिब्बत को चीन का अंग माना था. तब भी यह कहा गया था कि यह मान्यता परोक्ष ही है.
भारतीय अधिकारियों ने उस वक्त कहा था कि भारत ने पूरे तिब्बत को मान्यता नहीं दी है, जो कि चीन का एक बड़ा हिस्सा है. बल्कि भारत ने उस हिस्से को ही मान्यता दी है जिसे तिब्बत ऑटोनॉमस रीजन (टीएआर यानी स्वायत्त तिब्बत क्षेत्र) माना जाता है.
पिछले महीने केंद्र में मोदी-सरकार की वापसी के बाद खबर थी कि भारत सरकार ने तिब्बत के 30स्थानों के नामों में बदलाव करने का फैसला किया है. ऐसा चीन को जवाब देने के लिए किया गया है, जिसने अरुणाचल के कुछ स्थानों का नया नामकरण किया है.
तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र की वर्तमान सीमाएँ 18 वीं सदी में रेखांकित की गई थीं. इसमें ऐतिहासिक तिब्बत का लगभग आधा हिस्सा शामिल है. इसकी औपचारिक स्थापना 1965 में तिब्बत क्षेत्र को बदलने के लिए की गई थी, जो तिब्बत के विलय के बाद चीन का पूर्व प्रशासनिक प्रभाग था. इसकी स्थापना 1959 के तिब्बती विद्रोह और अठारहवीं सदी से चली आ रही प्रशासनिक ‘काशाग(संसद)’ की बर्खास्तगी के लगभग पाँच साल बाद हुई थीं.
भारतीय सावधानी
हालांकि अमेरिकी शिष्टमंडल की यात्रा को निजी-कार्यक्रम बताया गया, पर उसके सम्मान में विदेश मंत्रालय ने रात्रि भोज दिया और उसके अगले दिन इस शिष्टमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी भेंट की. यह बात 2020के गलवान प्रकरण के बाद से भारतीय नज़रिए में बदलाव की ओर इशारा करती है.
हाल के वर्षों में भारत ने अपने बयानों में ‘एक चीन’ नीति का उल्लेख भी नहीं किया है. हालांकि भारत, धर्मशाला स्थित तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता नहीं देता है, पर 2014 में नरेंद्र मोदी के शपथ-समारोह में निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांगे ने समारोह में भाग लिया. तब चीनी सरकार ने उस बात का विरोध किया था.
उसके बाद 2019 और 2024 के समारोहों में उन्हें नहीं बुलाया गया. भारत सरकार प्रत्यक्षतः तिब्बत की निर्वासित सरकार के समारोहों में शामिल नहीं होती है. उसकी दिलचस्पी खुलकर अमेरिकी नीति के समर्थन में होती, तो वह अमेरिका के साथ इस मसले पर संयुक्त वक्तव्य भी जारी कतर सकती थी.
इसका एक अर्थ है कि भारत हाथ बचाकर चलना चाहता है. दूसरी तरफ तिब्बत ही नहीं, भारत और अमेरिका, दोनों ने हाल में ताइवान को लेकर भी बदले हुए रुख के संकेत दिए हैं. इसे चीन को घेरने की रणनीति का हिस्सा भी माना जा रहा है.
अमेरिकी विधेयक
बहरहाल अमेरिकी शिष्टमंडल का आगमन, भारत-चीन रिश्तों की तुलना में अमेरिका-चीन रिश्तों के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण है. उसके कुछ दिन पहले ही अमेरिकी संसद के दोनों सदनों ने एक अधिनियम पास किया था, जिसमें ‘तिब्बत-चीन समस्या के समाधान को बढ़ावा’ देने की बात कही गई है.
इस विधेयक का अमेरिका के दोनों प्रमुख दलों ने समर्थन किया है. इस अधिनियम में माँग की गई है कि चीन को दलाई लामा के प्रतिनिधियों के साथ तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर बातचीत फिर से शुरू करनी चाहिए, जो 2010के बाद नहीं हुई है. भारत आए अमेरिकी शिष्टमंडल का नेतृत्व अमेरिकी प्रतिनिधि सदन की पूर्व अध्यक्ष नैंसी पेलोसी ने किया था.
उस मौके पर नैंसी पेलोसी ने कहा, यह अधिनियम, चीन के राष्ट्रपति के नाम इस आशय का संदेश है कि तिब्बत की आज़ादी को लेकर हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट है. दलाई लामा कि विरासत हमेशा कायम रहेगी, जबकि चीनी राष्ट्रपति आते-जाते रहेंगे.
चीनी नाराज़गी
इस मुलाक़ात पर चीन ने नाराज़गी जताते हुए चेतावनी वाले अंदाज़ में कहा था कि अमेरिका यदि तिब्बत को चीन का हिस्सा मानने की अपनी प्रतिबद्धता का सम्मान नहीं करेगा, तो चीन इस पर ‘कड़े क़दम उठाएगा.’चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लिन चियान ने कहा, ‘ सब जानते हैं कि 14 वें दलाई लामा कोई विशुद्ध धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि धर्म की आड़ में चीन विरोधी अलगाववादी गतिविधियों में लिप्त निर्वासित राजनीतिक व्यक्ति हैं.’
अंदेशा इस बात का है कि चीन अपनी ओर से दलाई लामा के किसी उत्तराधिकारी की घोषणा कर सकता है और दूसरी तरफ दलाई लामा की ओर से भी किसी उत्तराधिकारी की घोषणा होगी. जटिलताएं उसके बाद बढ़ेंगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)