प्रमोद जोशी
प्रधानमंत्री की इस हफ्ते की अमेरिका-यात्रा कई मायनों में पिछली यात्राओं से कुछ अलग होगी. इसकी सबसे बड़ी वजह है राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ताबड़तोड़ नीतियों के कारण बदलते वैश्विक-समीकरण. उनके अप्रत्याशित फैसले, तमाम दूसरे देशों के साथ भारत को भी प्रभावित कर रहे हैं.
दूसरी तरफ यह भी लगता है कि शायद दोनों के रिश्तों का एक नया दौर शुरू होने वाला है, पर सामान्य भारतीय मन अमेरिका से निर्वासित लोगों के अपमान को लेकर क्षुब्ध है. हम समझ नहीं पा रहे हैं कि यह कैसा दोस्ताना व्यवहार है?
ट्रंप मूलतः कारोबारी सौदेबाज़ हैं और धमकियाँ देकर सामने वाले को अर्दब में लेने की कला उन्हें आती है. शायद वे कुछ बड़े समझौतों की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे है.
वर्चस्व का स्वप्न
ट्रंप का कहना है कि दुनिया ने अमेरिका की सदाशयता का बहुत फायदा उठाया, अब हम अपनी सदाशयता वापस ले रहे हैं. असल भावना यह है कि हम बॉस हैं और बॉस रहेंगे. इस बात से उनके गोरे समर्थक खुश हैं, जिन्हें लगता है कि देश के पुराने रसूख को ट्रंप वापस ला रहे हैं.
ट्रंप ने न केवल अवैध रूप से अमेरिका में प्रवेश करने वालों के बाबत आसपास के देशों को धमकाया है, बल्कि चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल से भी हटने को कहा है. उनके दबाव में पनामा ने ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल से हटने की घोषणा भी कर दी है.
आए दिन वे नए-नए कार्यकारी आदेश जारी कर रहे हैं, जिनसे दुनिया में हड़कंप है. इसी फितूर में उन्होंने कहा है कि हम गज़ा पर कब्ज़ा कर लेंगे. उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन और संरा मानवाधिकार परिषद से हटने की घोषणा कर दी है. इतना ही नहीं उन्होंने अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत (आईसीसी) पर पाबंदियाँ लगा दी हैं.
पहले उन्होंने ब्रिक्स को लेकर टिप्पणी की और अब जी-20में दक्षिण अफ्रीका की भूमिका को लेकर अपने रोष को व्यक्त किया है. वे उस वैश्वीकरण के खिलाफ हैं, जिसकी पहल अमेरिका ने ही की थी. विनिर्माण को अमेरिका में वापस लाना चाहते हैं, ताकि लोगों के खोए रोज़गार वापस मिलें.
स्तब्ध भारत
प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान दोनों के रिश्तों से जुड़ी तमाम बातें होंगी, पर देखना होगा कि वे निर्वासित भारतीयों का मामला किसी किस तरह उठता है. पिछले गुरुवार को संसद में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा, भारत यह सुनिश्चित करने के लिए अमेरिका के साथ बात कर रहा है कि निर्वासितों के साथ बुरा व्यवहार न हो.
विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने भी कहा है कि आने वाले लोगों के साथ दुर्व्यवहार को लेकर हमने अमेरिका को अपनी चिंता से अवगत करा दिया है. भारत सरकार इसे बहुत बड़ा मसला मानकर नहीं चल रही है और 104की वापसी के बाद उसने 96और भारतीयों को वापस लेने पर सहमति जता दी है, जो शीघ्र वापस आएँगे.
भारत को अब किसी न किसी रूप में अमेरिका के सामने अपनी नाराज़गी व्यक्त करनी होगी. ऐसा आंतरिक-राजनीति में हो रहे कोलाहल को शांत करने के लिए भी ज़रूरी है.
भारतीय मीडिया में निर्वासन के तौर-तरीके को लेकर काफी कवरेज हुई है, पर दोनों देशों के बीच बातचीत के विषय दूसरे होंगे. इनमें आपसी-व्यापार, रक्षा, नाभिकीय-ऊर्जा और हाईटेक-सहयोग, हिंद-प्रशांत और पश्चिम एशिया के मसले सबसे ऊपर होंगे.
भारत-अमेरिका व्यापार
ट्रंप की सबसे बड़ी दिलचस्पी कारोबार में है. वे अपने पसंदीदा अमेरिकी व्यवसायों के पक्ष में सौदेबाज़ी करेंगे. ऐसा लगता है कि आने वाले समय में भारत को अपने आयात-शुल्कों पर पुनर्विचार करना होगा, बेशक हम अपने हितों की रक्षा करते हुए ही ऐसा कर सकेंगे. इस पृष्ठभूमि में नरेंद्र मोदी की यह यात्रा काफी महत्वपूर्ण है.
भारत में भारी मशीनरी जैसे पूँजीगत माल के लिए औसत शुल्क 7.5प्रतिशत है, जबकि चीन में 1.7प्रतिशत और वियतनाम में 2.3प्रतिशत है. पूँजीगत माल के आयात पर टैक्स नुकसानदेह होता है, क्योंकि इससे उद्योगों की स्थापना महँगी हो जाती है.
यह भी सच है कि भारत में व्यापार-अवरोध, उदारीकरण से पहले के दौर से चले आ रहे हैं. नब्बे के दशक के बाद से इन अवरोधों को यथासंभव दूर करने के उपाय होते रहे हैं. कृषि-उत्पादों के आयात को रोकने के लिए भारत कोटा, निगरानी प्रणाली और दूसरे तरीकों को अपनाता है.
इन गैर-टैरिफ बाधाओं पर भी लगता है अब बात करने का समय आ गया है. भारत कोयला, स्टील और कागज़ के व्यापार पर कोटा जैसे नियंत्रण लागू करता है. इसी तरह, टेलीविज़न और एयर कंडीशनर जैसी उपभोक्ता-सामग्री के आयात की मात्रा पर आयात निगरानी रखी जाती है.
दुनिया के प्रमुख निर्माता काफी माल चीन से मँगाते हैं. अमेरिका ही नहीं, यूरोप के अनेक देशों के पूँजीपतियों ने चीन में निवेश कर रखा है. इनमें ट्रंप-समर्थक एलन मस्क भी शामिल हैं. वैश्विक विनिर्माण उत्पादन का लगभग एक तिहाई हिस्सा चीन बनाता है. वह इस समय दुनिया का कारखाना बना हुआ है.
वियतनाम, मैक्सिको और थाईलैंड जैसे देश चीन से मशीनरी और कच्चा माल मँगाते हैं और पैमाने पर अमेरिका को निर्यात करते हैं. भारत को भी इस दिशा में सोचना होगा.
विस्तार की संभावनाएँ
दोनों देशों के पास व्यापार का विस्तार करने का एक बड़ा अवसर है. पिछले कार्यकाल की शुरुआत में, ट्रंप ने भारत के साथ व्यापक व्यापार समझौते पर बातचीत करने की अपनी इच्छा जाहिर की थी, पर समझौता हो नहीं हो पाया.
उस दौरान अमेरिका ने भारतीय माल पर टैरिफ बढ़ाया और जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस (जीएसपी) के तहत मिलने वाली सुविधाएं खत्म कर दीं. इस व्यवस्था को 1974में अमेरिकी संसद ने विकासशील देशों के साथ संबंधों को सुधारने के लिए बनाया था.
जीएसपी के तहत भारत जैसे देशों से आयातित सैकड़ों उत्पादों पर टैरिफ नहीं लगता है. शर्त यह होती है कि लाभार्थी देश अमेरिकी उत्पादों के लिए पर्याप्त बाजार पहुँच प्रदान करेंगे. जीएसपी पर अमेरिका-भारत वार्ता 2017में तब शुरू हुई थी, जब अमेरिकी चिकित्सा उपकरण और डेयरी उद्योग ने भारत के प्रतिबंधित बाजार को लेकर अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय (यूएसटीआर) में याचिका दायर की थी.
यूएसटीआर ने बाद में आईटी उत्पादों सहित अन्य क्षेत्रों को भी इसमें शामिल कर लिया. बातचीत 2019की शुरुआत तक जारी रही, लेकिन सफलता नहीं मिली और यूएसटीआर ने मार्च 2019में भारत के जीएसपी लाभों को समाप्त कर दिया.
छोटा समझौता
यह लाभ खत्म होने के बाद दोनों देशों ने एक ‘छोटे’ व्यापार समझौते पर बातचीत जारी रखी. फरवरी 2020में, जब ट्रंप ने भारत की यात्रा की, तब भारतीय अधिकारियों ने संकेत दिया कि वे इसके लिए तैयार हो सकते हैं. उस समय ट्रंप अपने कार्यकाल के आखिरी पड़ाव में आ गए थे.
वे चाहते थे कि या तो कोई बड़ा सौदा हो, या कुछ भी नहीं. बहरहाल दोनों देशों ने तब से व्यापार संबंधी परेशानियों को हल करने पर ध्यान केंद्रित किया है. ट्रंप को व्यापार घाटा पसंद नहीं, जो इस समय भारत के पक्ष में करीब 45रब डॉलर है.
बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका ने कोई भी महत्वपूर्ण नया व्यापार समझौता नहीं किया. उन्होंने व्यापार-वार्ता के लिए एक अलग मॉडल को विकसित करने की कोशिश की, जिसमें अमेरिकी श्रमिकों पर बाजार के खुलने के दुष्प्रभाव और 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था का हल हो.
आईपीईएफ में भागीदारी
बाइडेन-प्रवर्तित इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रॉस्पैरिटी (आईपीईएफ) में भारत शामिल हुआ, पर उसके चार स्तंभों में से एक यानी व्यापार में भाग लेने से इनकार कर दिया.ये चार स्तंभ हैं: 1. व्यापार, 2. सप्लाई चेन, 3. स्वच्छ ऊर्जा, डीकार्बोनाइजेशन और बुनियादी ढाँचा, और 4. कर और एंटी-करप्शन. इसके भागीदारों को सभी चार स्तंभों में शामिल होने की आवश्यकता नहीं है. भारत ने सप्लाई चेन स्तंभ पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, पर व्यापार में शामिल होने का फ़ैसला नहीं किया है.
भारत ने शेष तीन स्तंभों पर बातचीत में भाग भी लिया, जिसके परिणामस्वरूप सिद्धांतों से जुड़े समझौते हुए. व्यापार स्तंभ, जिसमें भारत को छोड़कर सभी देश शामिल हैं, आम सहमति नहीं बन पाई.
भारत ने हाल में ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात और ईएफटीए देशों (आइसलैंड, लिख्टेंश्टाइन, नॉर्वे और स्विट्जरलैंड) सहित अन्य देशों के साथ कई मुक्त व्यापार सौदों पर हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन अपने सबसे बड़े और सबसे महत्वपूर्ण साझेदार, अमेरिका के साथ तरज़ीही व्यापार की व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया है.
इस दौरान दोनों देशों के बीच डब्ल्यूटीओ में सात लंबित विवादों को सुलझाया गया है, लेकिन बड़े व्यापार सौदे का विचार ज़मीन पर उतर नहीं पाया.
चाबहार का मसला
भारत पर विपरीत प्रभाव डालने वाली एक घटना और हुई है. ट्रंप ने ईरान के चाबहार बंदरगाह को प्रतिबंधों में मिली छूट को ख़त्म या संशोधित करने के लिए कहा है. इस आदेश पर ट्रंप के दस्तखत होने के बावज़ूद भारत सरकार ने कोई टिप्पणी नहीं की है, पर यह विषय प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान उठेगा.
मूलतः यह आदेश ईरान सरकार पर अधिकतम आर्थिक दबाव डालने के इरादे से जारी किया गया है. इसमें विदेशमंत्री मार्को रूबियो और वित्तमंत्री स्कॉट बेसेन्ट को निर्देश दिया गया है कि वे ईरान को धन-प्राप्ति के रास्ते बंद कर दें.
भारत ने ईरान और अफगानिस्तान के साथ 2016के त्रिपक्षीय समझौते के तहत चाबहार बंदरगाह पर शाहिद बेहश्ती टर्मिनल विकसित किया है. ट्रंप के पिछले कार्यकाल में ईरान से तेल-आयात को शून्य करने माँग को भारत ने स्वीकार कर लिया था, जिससे उन प्रतिबंधों से राहत मिली थी, जो नवीनतम आदेश के कारण लागू हो जाएँगे.
चाबहार का विकास बंदरगाह और ज़मीन के रास्ते अफ़गानिस्तान की पूर्वी सीमा तक भारत से व्यापार के लिए खाद्य सहायता और सामान की आवाजाही को सुविधाजनक बनाना है. इस दौरान तालिबान के साथ भारत संपर्क स्थापित कर रहा है.
बहरहाल ट्रंप के आदेश से फौरन यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि उनका इरादा शत्रुतापूर्ण है. शायद यह सब कुछ समझौतों की सौदेबाज़ी के इरादे से किया जा रहा है.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)