हरजिंदर साहनी
जब हम फिलस्तीन समस्या की या इजराएल की बात करते हैं तो अक्सर दुनिया भर से वहां बस जाने वाले यहूदियों की बात करते हैं. या फिर उन मुसलमानों की जो ऑटोमन साम्राज्य से बहुत पहले ही वहां बहुसंख्यक थे.
कईं बार हम वहां रहने वाले उन ईसाइयों की भी बात करते हैं जो अपने आप को अरबवासी और फिलस्तीन का नागरिक मानते हैं. लेकिन एक ऐसा समुदाय भी है जिसे अक्सर नजरंदाज कर दिया जाता है.वे यहूदी जो किसी जाईनिस्ट एजेंडे के तहत कहीं बाहर से नहीं आए बल्कि सदियों से फिलस्तीन में ही रहते रहे हैं.
अगर हम 1947 के आबादी के आंकड़ों को देखें तो उस समय पूरे फिलस्तीन में पांच से सात फीसदी ही यहूदी थे. इनमें से ज्यादातर जेरूसलम के आस पास के कुछ नगरों में केंद्रित थे. दुनिया भर के यहूदी जब कभी तीर्थ के लिए जेरूसलम पहुंचते तो उसमें ये स्थानीय यहूदी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे.
इसके अलावा वे अरबी संस्कृति के साथ फिलस्तीनी समाज का एक अभिन्न हिस्सा बनकर रहते थे.वे अपने आप को अरब की संतान मानते थे और उन्हें विशुव कहा जाता था.बाद में जब ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान वहां यहूदी बसाए गए तो इन नए यहूदियों को न्यू विशुव कहा गया. धार्मिक कार्यों में लगे कुछ रब्बी को छोड़ दें तो हिब्रू उनकी भाषा नहीं थी.
वे या तो फिलस्तीन की अरबी भाषा का इस्तेमाल करते थे या फिर आपस में संवाद के लिए यिडिश नाम की एक भाषा का इस्तेमाल करते थे. हालांकि यिडिश जर्मन मूल की भाषा है लेकिन उस समय तक यह सिर्फ फिलस्तीन के यहूदियों की ही भाषा बन कर रह गई थी.
इसलिए जब इजराएल बना तो ये विशुव भी बाकी फिलस्तीनियों की तरह ही एक अनजान देश में पहुंच गए. भले ही उनके धर्म के लोगों की बहुतायत हो गई थी लेकिन अब जो देश बना था उसमें न उनकी अपनी भाषा प्रमुख थी और न उनकी संस्कृति. यहां एक और चीज का जिक्र जरूरी है.
पहले विशवयुद्ध के बाद जब इजराएल बनाने की बात शुरू हुई तो पहली फिलस्तीनी कांग्रेस में इसका जोरदार विरोध हुआ.इसमें जो प्रस्ताव पास हुआ उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि फिलस्तीन में जो यहूदी हमेशा से रहते आए हैं वे हमारे अपने ही हैं और हमारा उनसे कोई विरोध नहीं है. न ही हमें उनकी वफादारी पर ही कोई संदेह है.
साठ और सत्तर के दशक में जब इजराएल ने अपनी आक्रामकता दिखाई और पूरी समस्या को सांप्रदायिक रंग दे दिया तो ज्यादातर विशुव के सामने नए इजराएल को स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था.
हालांकि फिर भी बहुत सारे विशुव ऐसे थे जो इजराएल की जाईनिस्ट विचारधारा के खिलाफ बने रहे. कुछ तो फिलस्तीन मुक्ति संगठन में भी शामिल रहे. इनमें सबसे महत्वपूर्ण नाम है उरी डेविस का.वे हमेशा ही जाईनिज़्म की राजनीति के न सिर्फ विरोधी रहे बल्कि इससे लंबी लड़ाई भी लड़ी.
अपनी इसी सक्रियता के कारण वे फतह की रिवोल्यूशनरी कौंसिल के सदस्य भी चुने गए. डेविस ने ज्यादा से ज्यादा यहूदियों को फतह से जोड़ने की कोशिश भी की. उनका कहना था कि जैसे दक्षिण अफ्रीका में बहुत से गोरे लोगों ने न्याय का पक्ष देखते हुए अफ्रिकन नेशनल कांग्रेस का साथ दिया था वैसे यहूदियों को फतह का साथ देना चाहिए.
ऐसा ही एक और नाम तली फहीमा का है. जिन्हें फिलस्तीनी क्रांतिकारियों का साथ देने के लिए जेल भी जाना पड़ा.हालांकि बाद में जब हमास ने पूरी लड़ाई को सांप्रदायिक रंग दे दिया तो बहुत सी चीजें बदल गई और विशुव लोगों के पास बाहर से आए यहूदियों के साथ खड़े होने के अलावा कोई चारा नहीं बचा.
( लेखक वरष्ठि पत्रकार हैं )