हरजिंदर साहनी
हर चुनाव की तरह ही इस बार भी सारा राजनीतिक विमर्ष एक ही बिंदु पर आकर टिक गया है। भारत में ही नहीं दुनिया भर में इस बात की चर्चा है कि इस बार मुस्लिम मतदाताओं का रुख क्या होगा। कारनेगी एंडोमेंट फाॅर इंटरनेषनल पीस से लेकर दुनिया भर के कईं थिंक टेंक इस बात का विष्लेशण करने में रात-दिन एक कर रहे हैं.
विपक्ष भी यह मान कर चल रहा है कि अगर मुस्लिम मतदाता सारे वोट उनके हवाले कर देंगे तो उनकी नाव आसानी से पार लग जाएगी.सारी राजनीति और बयानबाजी इसी को लेकर लग रही है। मुस्लिम समुदाय से जुड़ी छोटी-छोटी बातें भी बड़ी सुर्खी बनने लगी हैं.
जब नागरिकता संषोधन अधिनियम का नोटीफिकेषन जारी होता है तो दुनिया भर के अखबार छापने लगते हैं कि इस बार चुनाव का फेसला इसी से हो जाएगा.फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी होती है तो एक यू-ट्यूब चैनल पर यह चर्चा होती है कि देष के मुस्लिम इस बारे में क्या सोचते हैं.
पिछले हफ्ते पष्चिम बंगाल के कूच बिहार में भारतीय जनता पार्टी की एक रैली में अल्ला-हू-अकबर का नारा लगा तो यह एक राश्ट्रीय स्तर की खबर बन गई.राजनीतिक रैलियों में इस तरह से धर्म का छौंका लगाने की कोषिषें कोई नई बात नहीं हैं लेकिन इन दिनों इस सबकी चर्चा कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है.
अगर हम भाजपा की बात ही करें तो पिछले काफी समय में पार्टी मुस्लिम समुदाय का विष्वास जीतने के लिए कुछ-कुछ करती दिखाई दी है. कभी वह सूफी संवाद के आयोजन करती है, तो कभी सद्भावना सम्मेलन होते हैं. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पसमांदा को लेकर काफी कुछ कह चुके हैं.
लेकिन इन तमाम कोषिषों के बाद भी पार्टी को मिलने वाले मुस्लिम समुदाय के वोटों पर कोई बहुत बड़ा असर पड़ा हो ऐसा कहा नहीं जा सकता.इसे आप भाजपा की सीमा भी मान सकते हैं या इससे मुस्लिम समुदाय के कोई और राय भी बना सकते हैं पर सच यही है कि किसी समाज के बारे में ऐसी एकतरफा सोच हमें कहीं नहीं ले जाती.
अखबारों में छपने वाली और टीवी पर दिखने वाली इस तरह की खबरों का विष्लेशण करें तो दो तरह की बातें नजर आती हैं. कुछ खबरें यह कहती नजर आती हैं कि मुस्लिम समुदाय के लोग एकजुट होकर एक साथ, एक ही तरफ वोट करने वाले हैं और विरोधी दलों ने उनके वोट हासिल करने के लिए कमर कस ली है.
दूसरी तरफ हमें ऐसी खबरें भी मिलती हैं कि मुस्लिम वोट किस तरह से बंट रहे हैं. किस तरह से विभिन्न दल उन्हें हासिल करने के लिए आपस में ही भिड़ रहे हैं.इन दोनों ही तरह की खबरें एक साथ सच नहीं हो सकतीं. या तो मुस्लिम समुदाय के सारे वोट एक-मुष्त एक ही जगह पड़ेंगे या फिर उनमें बंटवारा होगा. ठीक वैसे ही जैसे हिंदु समुदाय के या सिख समुदाय को वोटों का होता है. कहीं वे जाति के आधार पर पड़ते हैं, कहीं क्षेत्र के आधार पर और कहीं पसंद नापसंद के आधार पर.
चुनाव विष्लेशण में भले ही यह हाइपोथीसिस बना ली जाए कि एक मजहब के लोगों का एक वोट बैंक होता है, पर हकीकत में ऐसा नहीं होता.मुस्लिम समुदाय के लोगों की अपनी एक सामूहिक सोच हो सकती है, बाकी समुदायों की तरह ही उनके अपने आग्रह और पूर्वाग्रह हो सकते हैं.
लेकिन सिर्फ इसी की वजह से उन सबका राजनीतिक व्यवहार एक जैसा होगा, मुस्लिम समुदाय के बारे में यह मानना उतना ही गलत होगा जितना कि वह किसी और समुदाय के बारे में होगा.