प्रमोद जोशी
‘आवाज़-द वॉयस’ के चार साल पूरे होना सुखद समाचार है, वहीं इससे यह आश्वस्ति भी पैदा हुई है कि इस अभियान की बालियाँ फूटने लगी हैं. यह मीडिया-मंच तमाम मामलों में बहुत से समूहों से कहीं अलग और सकारात्मक होने के कारण मेरी निगाहों में आया था. मुझे खुशी है कि धीरे से मैं भी इस परिवार का एक हिस्सा बन गया. पर ज्यादा खुशी इस बात की है कि धीरे-धीरे इसका प्रसार और विस्तार हो रहा है. इसका अलगपन ही इसके लंबे असर की वज़ह बनेगा.
पिछला एक साल दो चुनावों की वजह से भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण था. पहला, लोकसभा का और दूसरा जम्मू-कश्मीर विधानसभा का. दोनों के परिणामों और उनके राजनीतिक-निहितार्थ पर विचार करना एक अलग प्रक्रिया है.
उसपर कोई राय देने का मेरा इरादा यहाँ नहीं है. मेरा आशय भारतीय मुसलमानों और लोकतंत्र में उनकी भूमिका को लेकर है, जो इन दोनों चुनावों का केंद्रीय-विषय भी थी. अक्सर सवाल किया जाता है, भारतीय मुसलमानों का मुस्तकबिल यानी भविष्य क्या है?
इसका एक जवाब है, वही जो देश के दूसरे नागरिकों का है. पर यह सवाल, उनकी पहचान और धार्मिक-अधिकारों के इर्द-गिर्द उलझ जाता है, और इसका जवाब देने में आम मुसलमान से ज्यादा दो तबके आगे रहते हैं. एक,धर्मगुरु और दूसरे राजनेता.
पिछले साल लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के कुछ दिन पहले ‘आवाज़ द वॉयस’के प्रधान संपादक आतिर खान ने इस सवाल के साथ अपने आलेख को शुरू किया कि क्या भारतीय मुसलमानों को चुनावी नतीजों से परेशान होना चाहिए?
उन्होंने आगे लिखा, हम ऐसे देश में रहते हैं जहाँ संविधान के अनुसार सभी समान हैं…भारत की समृद्ध सभ्यतागत विरासत की पृष्ठभूमि में, भारतीय मुसलमानों को चुनाव परिणामों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है…किसी एक राजनीतिक इकाई (पार्टी) के प्रति अटूट निष्ठा की प्रतिज्ञा करने के बजाय, उन्हें बीजेपी और कांग्रेस दोनों को जवाबदेह रखते हुए एक सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाना चाहिए.
आप याद करें तो पाएंगे कि यह सवाल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भी पूछा गया था. खासतौर से पश्चिमी मीडिया इन सवालों को ऐसे पेश करता है, मानों भारतीय मुसलमानों के सामने अस्तित्व और पहचान का संकट है. बात-बात पर एक ‘खतरे’का उल्लेख होता है.
कैसा खतरा? यदि यह मीडिया फोरम भारतीय मुसलमानों के बीच से प्रश्नों पर सार्थक और लोकतांत्रिक-चर्चा कराने में सफल हुआ, तो यह बड़ी बात होगी. विमर्श का मतलब केवल बहसबाज़ी नहीं है, बल्कि सार्थक जानकारियाँ भी हैं.
भारतीय मुसलमानों को लेकर पिछले साल कई किताबें आईं, पर मैं दो का ही ज़िक्र करूँगा. एक, जामिया मिलिया के डॉ मुजीबुर रहमान की ‘शिकवा-ए-हिंद’और दूसरी शेहला रशीद की ‘रोल मॉडल्स.’दोनों का नज़रिया काफी फर्क है, पर एक निष्कर्ष दोनों का मिलता-जुलता है.
मुसलमानों का राजनीतिक भविष्य, सीधे भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर निर्भर करता है. सवाल है कि लोकतंत्र को लेकर मुसलमानों की राय क्या है, उनके फैसले किस आधार पर होते हैं और शिक्षा तथा जागरूकता का उनका स्तर क्या है?टोपी और हिजाब क्या अनिवार्य रूप से उनकी शिक्षा से जुड़े हैं वगैरह.
‘आवाज़-द वॉयस’में मुझे भारतीय मुस्लिम-समाज और संस्कृति से जुड़े बड़े रोचक लेख पढ़ने को मिले. हिंदी के साथ अंग्रेजी, उर्दू, असमिया और मराठी में भी इसका प्रकाशन होने के कारण सामग्री में जबर्दस्त विविधता है.
टेक्स्ट के अलावा डिजिटल पत्रकारिता की दूसरी विधाओं में इसकी सामग्री ने भी मुझे प्रभावित किया है. सिनेमा, संगीत और खेलकूद के अलावा पिछले साल जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के दौरान की गई कवरेज ने राजनीतिक मसलों के साथ-साथ क्षेत्रीय समस्याओं को भी उठाया. इसमें एक तरफ युवा पत्रकारों की भूमिका बढ़ी, वहीं सामान्य दर्शक, श्रोता और पाठक की जानकारी भी.
मेरा सुझाव है कि ‘आवाज़-द वॉयस’अपनी ओर से ऐसे भारतीय मुसलमानों की जानकारी देने वाली श्रृंखला तैयार करे, जिनकी भारतीयता उल्लेखनीय रही हो. जायसी,रहीम, रसखान, अकबर, दारा शिकोह, अमीर खुसरो, मोहम्मद शाह रंगीले से लेकर एपीजे अब्दुल कलाम और उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, डागर बंधु, शकील बदायुनी, कैफी आज़मी,हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी, राही मासूम रज़ा, नौशाद, खय्याम और एआर रहमान से लेकर आमिर, सलमान और शाहरुख खान तक तमाम ऐसे नाम हैं, जिनकी वजह से भारत की पहचान है.
चूंकि आपके दायरे में देश का काफी बड़ा हिस्सा आता है, इसलिए ऐसे तमाम नाम सामने आएँगे, जिनसे सभी लोग परिचित नहीं हों. इसके अलावा हम देश के अलग-अलग इलाकों के मुसलमानों के रहन-सहन, खानपान और पहनावे को लेकर विशेष आलेख प्रकाशित करें, जिससे पता लगे कि भारतीयता के लिहाज से वे इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं.
अविभाजित भारत में दुनिया के मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी निवास करती थी, जो आज का दक्षिण एशिया है. उसकी धड़कनें सुनाई पड़नी चाहिए.अपनी बात पूरी करने के पहले मैं ‘आवाज़-द वॉयस’को इस बात के लिए धन्यवाद दूँगा कि इसके माध्यम से मेरी आवाज़ बहुत दूर तक जा पाई.
यह मीडिया प्लेटफॉर्म तमाम सुरों का संगम है. इसमें मेरा सुर भी मिलकर, हमारा सुर बनता है. यह आवाज़ और दूर तक बल्कि सारी दुनिया तक जानी चाहिए. चार साल के सफर में इसने अपनी पहचान बनाई है. अब इस पहचान की साख और गुणवत्ता को और खुशबूदार बनना चाहिए.
यह खुशबू सारी दुनिया में एक दिन फैलेगी और साबित करेगी कि भारत की रंग-बिरंगी संस्कृति दुनियाभर से निराली है. इस मनोकामना के साथ इस परिवार के सभी सदस्यों को बधाई और अनेकानेक शुभकामनाएं.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)