हरजिंदर
बीस साल पहले फ्रांसीसी भाषा का एक शब्द काफी चर्चा में आया था- लाईसिटे. वैसे इसका अर्थ तकरीबन वही होता है जिसे राजनीति शास्त्र की मौजूदा भाषा में धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है. हालांकि वहां इस नाम पर जो हुआ वह धर्मनिरपेक्षता की हमारी परिभाषाओं से काफी अलग है.
साल 2004 के मार्च महीने में फ्रांस की संसद ने एक कानून पास किया. इस कानून के पास होने के बाद स्कूलों में हिजाब, अबाया और स्कार्फ पहनने पर पूरी तरह रोक लगा दी गई. तर्क यह था कि किसी को भी ऐसे प्रतीक पहनने की इजाजत नहीं होनी चाहिए जिससे उनका धर्म स्पष्ट रूप से सामने दिखता हो. कहा गया कि ये प्रतीक हटेंगे तो बहुत सारे पूर्वग्रह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगेंगे.
यहां हमने सिर्फ हिजाब, अबाया और स्कार्फ का नाम लिया है, वैसे धार्मिक प्रतीकों पर लगने वाली यह रोक काफी व्यापक थी और महिलाओं और पुरूषों दोनों पर ही लागू होती थी और बहुत से धर्मों के ऐसे प्रतीकों से जुड़ी थी. लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में वे पाबंदियां रहीं जो महिलाओं के लिबास से जुड़ी हुई थीं.
इस नीति के समर्थकांे का कहना था इससे महिलाएं सार्वजनिक जीवन में ज्यादा सक्रिय हो सकेंगी और उनका सषक्तीकरण भी होगा.इसी के विपरीत एक दूसरा तर्क भी था. यह कहा गया कि खासकर पश्चिम एशिया से आए समुदाय के लोग अपने परिवार की लड़कियों को षिक्षा वगैरह के लिए स्कार्फ और अबाया की शर्त के साथ ही भेजते हैं.
इस पाबंदी के बाद हो सकता है कि वे लोग अपने परिवार की लड़कियों को पढ़ने के लिए भेजना ही बंद कर दें.इस कानून को एक और तरह से भी देखा गया। यह कानून दरअसल उस माहौल का भी नतीजा था जो 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों का नतीजा था.
इसके बाद पश्चिम के देशों में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं दिखाई दीं उन्हें इस्लामफोबिया कहा जाता है. पूर्वाग्रह तो बढ़े ही साथ ही इस्लाम के अनुयाइयों को हर जगह षक की नजर से देखा जाने लगा. उन्हें लेकर काूनन बनाने के मांग भी होने लगी। फ्रांस के इस कानून को इसी इस्लामफोबिया का ही नतीजा माना गया.
अब जब बीस साल हो चुके हैं तो इस कानून के क्या नतीजे मिले इसे लेकर पूरे फ्रांस में कोई चर्चा भले ही न हो लेकिन कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं.सच यह है कि इस कानन के नतीजों को लेकर किसी भी तरह के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
हमें यह नहीं पता कि नए कानून लागू होने के बाद कितने परिवारों ने अपनी बच्चियों को पढ़ने भेजने से इनकार कर दिया. दूसरी तरफ सरकारी आंकड़ों से भी यह स्पश्ट नहीं है कि इस वजह से कितनी महिलाओं को सचमुच में सषक्तीकरण हुआ.
इसके बाद एक दिलचस्प चीज पेरिस ओलंपिक के समय देखने को मिली। फ्रांस के नियम कायदों की वजह से उसके किसी भी खिलाड़ी को ऐसे लिबास की इजाजत नहीं थी। जबकि ओलंपिक समिति के नियम किसी भी खिलाड़ी को किसी खास लिबास की वजह से नहीं रोकते इसलिए दूसरे देषों की खिलाड़ी वे सब पहन रहीं थीं, जिसकी फ्रांस में इजाजत नहीं.
फेमिनिस्ट आंदोलन से जुड़ी जिन महिलाओं ने षुरू में इनका समर्थन किया था उनके नजरिये में भी बदलाव दिख रहा है.दिक्कत यह भी है कि जिसे इस्लामफोबिया कहा जाता है वह लगातार बढ़ रहा है. स्कूलों के लिए बनाए गए कानून का दायरा उनसे बाहर भी लगातार बढ़ता जा रहा है. इस बार फ्रांस की फुटबाॅल फेडरेषन ने यह नियम लागू कर दिया कि मुस्लिम खिलाड़ी रमजान में रोजा नहीं रख सकेंगे.
बीस साल में इस तरह के फेसले लगातार दिख रहे हैं. न वे पूर्वाग्रह घट रहे हैं और न वह बराबरी बढ़ रही है जिसकी की बात दो दषक पहले की गई थी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)