एक शख्सियत जिसकी आज दुनिया को सबसे ज्यादा जरूरत है

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 16-10-2023
yasir arafat
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आज अगर हम 1983 में नई दिल्ली में हुए गुट निरपेक्ष सम्मेलन को याद करें तो सिर्फ तीन चेहरे हैं जो स्मृति में उभरते हैं- एक है इंदिरा गांधी जो उस समय भारत की प्रधानमंत्री थीं.दूसरे हैं क्यूबा के तत्कालीन राष्ट्रपति फिडेल कास्त्रो जिन्होंने इंदिरा गांधी को अध्यक्षता की कुर्सी पर बिठाया था.और तीसरा नाम था यासर आराफात का.आराफात इस सम्मेलन में उस फिलीस्तीन का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो उस समय दरअसल कहीं था ही नहीं.

उस समय तक दुनिया फिलस्तीन को आराफात की कोशिशों और उम्मीदों में ही देखती थी.ऐसा बहुत कम होता है जब कोई व्यक्ति किसी देश का प्रतीक बन जाता है, शीत युद्ध के लंबे दौर में यासर आराफात ही फिलस्तीन के प्रतीक थे.और तब तक बने रहे जब तक यह देश अस्तित्व में नहीं आ गया.

इस समय जब इज़राएल ने गाज़ा पर भीषण जवाबी हमला बोला है तो सबसे जरूरी जिस शख्स को याद करना जरूरी है वह यासर आराफात ही है.आज भी फिलस्तीन और इज़राएल के बीच तनाव की एकमात्र उम्मीद वह रास्ता ही है जो आराफात ने अपनाया था.

अपनी सक्रियता के शुरुआती दौर में जब आराफात अभी यूनिवर्सिटी से निकले ही थे तो वे भी यही मानते थे कि फिलस्तीन बंदूक की नली से ही हासिल होगा.पर जल्द ही उनकी समझ में आ गया कि जटिल समस्याओं को समाधान जंग से नहीं डिप्लोमेसी और बातचीत से ही निकल सकता है.

अपने इस विश्वास को लेकर उन्होंने फिलस्तीन समस्या को पूरी दुनिया में लगातार चर्चा का विषय बनाए रखा.जल्द ही उन्हें पूरी दुनिया में वह सम्मान मिलने लगा जो अक्सर बहुत से देशों के शासनाध्यक्षों को भी नहीं मिलता.एक समय में उनकी गिनती दुनिया में सबसे ज्यादा दौरे करने वाले विश्व नेताओं में होती थी.कहा जाता है कि वे एक हफ्ते में तकरीबन दस देशों की यात्रा कर लेते थे.

लेकिन आराफात की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने फिलस्तीन के मुक्ति आंदोलन को उसकी कट्टरता से बाहर निकाला.उन्हें व्यवहारिक स्तर पर समाधान खोजने और फैसले लेने के लिए तैयार किया.वे खुद विचारों से समाजवादी थे लेकिन उन्होंने अपना समाजवाद किसी पर थोपा नहीं और सबसे बड़ी बात यह थी कि उन्होंने फिलस्तीन की लड़ाई को कभी सांप्रदायिक नहीं बनने दिया.

नब्बे का दशक आते-आते उन्हें यह समझ में आ गया था कि इज़राएल का अस्तित्व स्वीकार किए बिना कोई रास्ता नहीं निकल सकता.उन्होंने दो देशों के फार्मूले को स्वीकार किया और इसी का नतीजा था 1993का वह समझौता जब फिलस्तीन फिर एक बार अस्तित्व में आया.

हालांकि तमाम कोशिशों के बावजूद आराफात एक मामले में जरूर असफल रहे कि उन्होंने फिलस्तीनी चरमपंथ को तो काफी कुछ किनारे कर दिया,लेकिन वे उसे पूरी तरह खत्म नहीं कर पाए.हमस जैसे संगठन भी उनके जीवन के अंतिम दौर में उभरे.

इसी सब का नतीजा है गाज़ा और आस-पास के इलाकों में हो रही ताजा जंग जिसमें हजारों निर्दोष लोग मारे जा रहे हैं.हालात शायद इतने खराब न होते अगर आज यासर आराफात हमारे बीच होते.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )


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