इस देश और खास तौर पर कश्मीर के मुसलमानों ने बता दिया है कि उनके इस्लाम में दहशतगर्दी के लिए कोई जगह नहीं और उनके लिए हिन्दुस्तान उतना ही अहम है
अरविंद
पहलगाम हमले के विरोध में कश्मीर में रैलियां निकाली गईं, मस्जिदों के दरवाजे पीड़ितों की मदद के लिए खोले गए और पहली बार हमलावरों को ‘दहशतगर्द’ यानी आतंकवादी कहकर संबोधित किया गया. श्रीनगर की जामा मस्जिद के इमाम ने अपनी तकरीर में कहा: ‘हमला करने वाले दहशतगर्द हैं, और उनका इस्लाम से कोई रिश्ता नहीं.’ इसे कश्मीरी समाज का नया चेहरा बताया गया.
क्या वाकई, यह कश्मीर के मुसलमानों का नया चेहरा है या उन्होंने उस फेस-पैक को उतार फेंका है जो अरसे से उनके चेहरे से चिपक गया था? इसके साथ ही पहलगाम हमले का एक वायरल पक्ष यह है कि एक व्यक्ति ने कलमा पढ़कर अपनी जान बचाई. दोनों बातों में सीधे तौर पर कोई रिश्ता नहीं दिखता, लेकिन शायद ऐसा नहीं है.
इससे पहले कि इन बातों को आगे बढ़ाएं, एक बात पर गौर करना चाहिए. कश्मीर का नाम लेते समय कुछ साल पहले तक कौन सी तस्वीर जेहन में उभरती थी ? कश्मीर की सड़कों पर सुरक्षा बलों के खिलाफ नारेबाजी करते और पत्थर बरसाते लोग या फिर किसी ऑपरेशन में मारे गए किसी ‘उग्रवादी’ के जनाजे में शामिल इतने लोग कि कैमरे के फ्रेम में न समाएं !
तब आपकी मेमोरी से प्रोसेस होकर इन तस्वीरों के जेहन में उभरने में कितना वक्त लगता था ? जवाब होगा- सेकंड भी नहीं. अब जब कश्मीर का नाम लेते हैं तो क्या होता है ?
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कौन सी तस्वीर उभरती है ? अगर आप उन चंद लोगों में हैं जिनके जेहन में अब भी उसी तरह की उग्रवाद समर्थक और सुरक्षा बल विरोधी तस्वीर उभरती है, तो भी ईमानदारी से बताएं क्या ये तस्वीरें पहले की तरह ही स्विच ऑन करने की तर्ज पर फट से आपके जेहन में आकार ले पाती हैं ?
शर्तिया इसका जवाब होगा- नहीं. अब इसमें 2-4 सेकंड तो लगते ही होंगे. यह छोटा सा अंतराल कश्मीर के मुस्लिम समाज की जटिलताओं की गांठें खोलता है और इस देश के मुसलमानों को आगाह करता है कि उन्हें किस तरह आगे की राह तय करनी है
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बहुत पानी बह गया झेलम में
जब पहलगाम में आतंकवादी पर्यटकों को मार रहे थे तो वहीं पर असम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर देबाशीष भट्टाचार्य ने कुछ लोगों को कलमा पढ़ते देखा और पाया कि आतंकवादी उन लोगों को कुछ नहीं कर रहे.
इत्तेफाक से उन्हें कलमा आती थी और उन्होंने भी उसे जोर-जोर से पढ़ना शुरू कर दिया. क्यों ? इसलिए कि देबाशीष देख रहे थे कि ऐसा करने वाले मारे नहीं जा रहे और उन्हें लगा कि ऐसा करके वह भी अपनी जान बचा सकते हैं.
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि देबाशीष का इस्लाम पर कोई यकीन था या नहीं या कि वह आस्तिक थे भी क्या ? बात बस इतनी थी कि कलमा पढ़ने से बचा जा सकता है और उन्होंने खुद को बचा लिया.
कश्मीर के आम लोगों ने दशकों वैसे ही माहौल में लंबा समय काटा है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान ने दशकों तक कश्मीर की वादियों को सुलगाए रखा और आतंकवाद को औजार के तौर पर इस्तेमाल किया. उसकी साजिशें काफी हद तक कामयाब भी रहीं. आतंकवादियों का खौफ ऐसा कि चुनाव
औपचारिकता बनकर रह गए, गिनती के लोगों की भागीदारी से इसकी सांसें बस चलती रहीं. कोई आतंकवादी मारा जाता तो उसके जनाजे में हर घर से लोगों का शिरकत करना जरूरी होता.
अगर सुरक्षा बल आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन करते तो उनपर पत्थर बरसाना ही होता था. जिस घर से हुक्मउदूली की जाती, उसपर निशान लगा दिया जाता और फिर उसके लोगों को निशाना बनाया जाता. यानी कश्मीर के लोगों के सामने जान जाने का खौफ हमेशा बना रहता था.
खास तौर पर 2006 के बाद तो आतंकवादियों और उनके पाकिस्तानी हैंडलरों का हौसला जितना बुलंद था, कश्मीर के लोगों का मनोबल बिल्कुल जमीन सूंघ रहा था. फर्ज कीजिए अगर आप अपने मोहल्ले के गुंडे को शहर के कोतवाल के साथ गलबहियां करते देख लें तो आपकी हालत क्या होगी.
कुछ वैसा ही हुआ कश्मीर के लोगों के साथ। जम्मू –कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के खूंखार आतंकवादी यासिन मलिक की पीएमओ से मिले न्योते के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात होती है और उसकी तस्वीरों ने आतंकवाद के खिलाफ सिर उठाने की कश्मीरियों की रही-सही हिम्मत भी टूट गई. अब उनके सामने
आतंकवादियों की बात मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. कुल मिलाकर ज्यादातर लोगों की कमोबेश वैसी ही स्थिति थी जैसी देबाशीष भट्टाचार्य की. दोनों मामलों में फर्क केवल स्केल का रह जाता है.
इसके साथ ही समाचार के पूरे फ्लो पर आतंकवादियों का कब्जा हुआ करता था. यह भी सुनिश्चित किया जाता कि बाहर यानी जम्मू-कश्मीर के बाहर क्या छपना है, किस तरह की फोटो भेजी जानी है. यह पूरा सिस्टम बना दिया गया था और कभी-कभार ही दिल्ली वगैरह से आए किसी पत्रकार की रिपोर्ट इनसे इतर कुछ कह पाती.
लेकिन अब स्थिति अलग है. घाटी में जो इको-सिस्टम बना हुआ था, वह टूट चुका है और आम लोगों के बीच जो खौफ था, वह अब नहीं रहा. यही वजह रही कि कश्मीर में अलग-अलग तरीके से आतंकवाद के खिलाफ भावनाएं अभिव्यक्त होती दिखीं.
लेकिन पाकिस्तान ने कश्मीर में जो विष-बेल लगाई थी, उसकी जड़ों में कहीं न कहीं जान अब भी बची हुई है. कारण, पहलगाम का हमला बिना स्थानीय मदद के नहीं हो सकता था और अब तक जांच-पड़ताल से ऐसे कई लोगों की लिप्तता की बात सामने आ रही है.
काम अभी बाकी
आतंकवादियों ने पहलगाम में लोगों का धर्म पूछकर मारा. क्यों? इसलिए कि बेशक हमला पहलगाम में हो रहा था, लेकिन इस एक तीर से कई निशाने साधे गए थे. पहला निशाना कश्मीर था जहां बरसों की मेहनत के बाद अमन-चैन-खुशहाली की बहाली हो पाई थी.
दूसरा निशाना पूरा देश था जहां हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को चौड़ा करके पूरे हिन्दुस्तान में जगह-जगह दबाव बिंदुओं को उस स्थिति में ले जाना था कि यहां-वहां, जहां-तहां ज्वालामुखी का लावा फूट पड़े.
इसमें शक नहीं कि दोनों समुदायों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, लेकिन बड़ी जिम्मेदारी मुसलमानों की है, क्योंकि पाकिस्तान ने उनके कंधे पर ही बूंदक रखकर चलाई है.
बेशक आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता, लेकिन क्या इससे इनकार किया जा सकता है कि इस तरह की तमाम घटनाओं की तरह पहलगाम में इंसानियत का खून बहाने वालों का धर्म भी इस्लाम ही था ?
इसीलिए कश्मीर समेत इस देश के मुसलमानों के सामने बड़ी जिम्मेदारी है. हाल ही में वक्फ संशोधन कानून के खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन का गवाह बने कश्मीर ने पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले को ‘आतंकवादी’ कहकर साफ कर दिया है कि उसके लिए देश की अहमियत क्या है.
पूरे देश में भी कई जगहों पर मुस्लम समुदाय के लोगों ने रैलियां निकालीं, पहलगाम हमले को दहशतगर्दी बताया और अपनी पहली निष्ठा देश के प्रति जताई. लेकिन यह याद रखना होगा कि आने वाले समय में इस तरह के तमाम मौके आएंगे, जब आपको इम्तेहान से गुजरना होगा.
क्यों? इसलिए कि किसी देश के भीतर उसी के समाज को तोड़कर युद्ध छेड़ने में परंपरागत युद्ध की तुलना में बहुत कम खर्च होता है और पाक सेनाअध्यक्ष आसिम मुनीर की भाषा बोलने वाले, भारत के बहुरंगी समाज में फॉल्ट लाइन को चौड़ा कर अपना उल्लू सीधा करने वाले आते रहेंगे और इन सभी के निशाने पर होंगे इस देश के मुसलमान.
इसलिए हमारे मुसलमानों के सामने इम्तेहान के मौके और भी आएंगे. अगर आज इस्लाम को आतंकवादियों के मजहब के तौर पर जाने जाने लगा है तो इसकी सबसे बड़ी वजह पाकिस्तान है और पूरे समुदाय के माथे से इस कलंक को मिटाने की कुव्वत अगर किसी में है तो वे हैं हिन्दुस्तान के मुसलमान.
( लेखक स्तंभकार और बलूचिस्तान मामलों के जानकार हैं. )