साकिब सलीम
‘वो हमसफर था मगर उससे हमनवाई न थी’ पिछले दो दशकों में दक्षिण एशिया में यकीनन सबसे लोकप्रिय गजल है. कुर्त-उल-ऐन बलूच द्वारा गाई गई इस गजल को लोकप्रिय पाकिस्तानी टेलीविजन श्रृंखला हमसफर के शीर्षक ट्रैक के रूप में इस्तेमाल किया गया था. इस श्रृंखला ने फवाद खान और माहिरा खान को भारत में प्रसिद्धि दिलाई और गजल भी लोकप्रिय हो गई.
गजल का आनंद लेते समय, अधिकांश श्रोता इसे एक परेशान रिश्ते के बाद साथी से अलग होने पर एक प्रेमी के विलाप के रूप में लेते हैं. वास्तव में, वे पूरी तरह गलत नहीं हैं, केवल इतना है कि इस गजल में दर्शाए गए साथी इंसान नहीं हैं.
यह गजल पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से अलग होने के बाद पाकिस्तान (पश्चिमी पाकिस्तान) के नजरिए से लिखी गई है. नसीर तुराबी ने यह गजल 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना के अपने भारतीय समकक्षों के सामने आत्मसमर्पण करने की खबर सुनकर लिखी थी. एक प्रतिबद्ध पाकिस्तानी देशभक्त, तुराबी को बहुत दुःख हुआ और उसने गजल लिखी.
Quratulain Baloch
तुराबी याद करते हैं, ‘‘दरअसल, मैंने यह गजल ढाका के पतन के बाद लिखी थी. 16 दिसम्बर 1971 को प्रातः 11 बजे अपने कार्यालय में ढाका के पतन का समाचार पाकर मैं रोने लगा और मेरी आंखों से आँसू बह निकले. उस भावनात्मक क्षण में मैंने गजल लिखना शुरू किया.’’
गजल को अगर ठीक से सुना जाए, तो उसका इरादा साफ होता है. आरंभिक वाक्य, ‘‘वो हमसफर था मगर उससे हमनवाई ना थी (वह एक सहयात्री था, लेकिन हम आपस में बात नहीं करते थे या हमारी राय एक जैसी नहीं थी) उसके बाद ‘के धूप-छांव का आलम रहा जुदाई ना थी’ (रिश्ता बना रहा, उजाले और अंधेरे के विपरीत, फिर भी हमने अपने रास्ते कभी अलग नहीं किए), यह स्पष्ट रूप से 1947 और 1971 के बीच पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान के बीच अशांत राजनीतिक संबंधों के बारे में है. पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान कथित तौर पर एक ही देश थे, फिर भी राजनीतिक व्यवस्था ने कभी भी पूर्व की आवाज नहीं सुनी.’’
Naseer Turabi
गजल का एक और शेर बंगाली लोगों पर पाकिस्तानी सेना की ज्यादतियों का सूक्ष्म तरीके से स्वीकारोक्ति है. तुराबी लिखते हैं, ‘‘अदावतें थी, तगाफुल था, रंजिशें थीं, बहुत. बिछड़ने वाले में सब कुछ था बेवफाई ना थी (हमारे बीच दुश्मनी, नफरत, लापरवाही और उदासीनता थी. इस सब के बावजूद, जो चला गया, वह विश्वासघाती नहीं था).’’ वह मानते हैं कि पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान दुश्मन थे और एक-दूसरे के प्रति नफरत रखते थे, फिर भी वह उन्हें विश्वासघाती कहने के लिए तैयार नहीं हैं. पाकिस्तानी सेना द्वारा भेदभाव और यातना के सामने, बांग्लादेश की मांग स्वाभाविक परिणाम थी.
तुराबी बताते हैं कि 1947 में, बंगाली नेतृत्व पूरी तरह से मोहम्मद अली जिन्ना की पाकिस्तान योजना से सहमत था, लेकिन 25 वर्षों के भीतर चीजें ऐसी हो गईं कि यह विश्वास करना कठिन था कि बांग्लादेश नेतृत्व ने कभी पाकिस्तान के विचार पर सहमति जताई थी. यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि शेख मुजीबुर रहमान इस विचार के खिलाफ होने से पहले 1947 में पाकिस्तान आंदोलन के नेताओं में से एक थे.
‘‘कभी ये हाल के दोनों में यक़दीली थी बहुत. कभी ये मरहला जैसे के आशनाई ना थी.’’ (एक समय था, जब दोनों में आपस में प्यार था. अब हम एक ऐसे मुकाम पर हैं, ऐसा लगता है जैसे कभी दोस्ती थी ही नहीं). यह केवल धार्मिक पहचान पर एक देश आधारित पाकिस्तान प्रोजेक्ट की विफलता की हकीकत बयां करता है. इस्लाम पर आधारित भाईचारा दो दशकों के भीतर ख़त्म हो गया और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने उस पर कब्जा कर लिया.