ज़ाहिद ख़ान
साहिर लुधियानवी को अपनी नज़्मों से पूरे मुल्क में ख़ूब मक़बूलियत मिली. अवाम का ढेर सारा प्यार मिला. कम समय में इतना सब मिल जाने के बाद भी साहिर के लिए रोज़ी-रोटी का सवाल वहीं ठिठका हुआ था. मुल्क की आज़ादी के बाद अब उन्हें नई मंज़िल की तलाश थी.
साहिर की ये तलाश फ़िल्मी दुनिया पर जाकर ख़त्म हुई. वे सपनों की नगरी मुंबई आ गए. मायानगरी में जमना उनके लिए आसान काम नहीं था. संघर्ष के इस दौर में आजीविका के लिए साहिर ने कई छोटे-मोटे काम किए.
साहिर की लिखावट बहुत अच्छी थी. इसी लिखावट का फ़ायदा उन्हें यह मिला कि निर्माता, फ़िल्म की पटकथा को उनसे लिखवाने लगे, ताकि हीरो-हीरोइन उसे सही तरह से पढ़ सकें.
पटकथा के पेजों के हिसाब से साहिर अपना मेहनताना लेते थे. इस काम का फ़ायदा उन्हें यह हुआ कि वे कई फ़िल्म निर्माताओं के सीधे संपर्क में आ गए. मौक़ा देखकर वे उन्हें अपनी रचनाएं भी सुना दिया करते. आख़िरकार वह दिन भी आया, जब उन्हें फ़िल्मों में गीत लिखने का मौक़ा मिला.
‘आज़ादी की रात’ (साल 1949) वह फ़िल्म थी, जिसमें उन्होंने पहली बार गीत लिखे. इस फ़िल्म में उन्होंने चार गीत लिखे. लेकिन अफ़सोस न तो ये फ़िल्म चली और न ही उनके गीत पसंद किए गए. बहरहाल फ़िल्मों में कामयाबी के लिए उन्हें ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा.
साल 1951 में आई ‘नौजवान’ उनकी दूसरी फ़िल्म थी. एसडी बर्मन के संगीत से सजी इस फ़िल्म के सभी गाने सुपर हिट साबित हुए. फिर नवकेतन फ़िल्मस की फ़िल्म ‘बाज़ी’ आई, जिसने साहिर को फ़िल्मी दुनिया में बतौर गीतकार स्थापित कर दिया. इत्तिफ़ाक़ से इस फ़िल्म का भी संगीत एसडी बर्मन ने तैयार किया था.
आगे चलकर एसडी बर्मन और साहिर लुधियानवी की जोड़ी ने कई सुपर हिट फ़िल्में दीं. ‘सज़ा’, ‘जाल’, ‘बाज़ी’, ‘टैक्सी ड्राइवर’, ‘हाउस नं. 44’, ‘मुनीम जी’, ‘देवदास’, ‘फ़ंटूश', ‘पेइंग गेस्ट’ और ‘प्यासा’ वह फ़िल्में हैं, जिनमें साहिर और एसडी बर्मन की जोड़ी ने कमाल का गीत-संगीत दिया है. फ़िल्म ‘प्यासा’ को भले ही बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाबी न मिली हो, लेकिन इसके गीत ख़ूब चले. ये गीत आज भी इसके चाहने वालों के होठों पर ज़िंदा हैं.
फ़िल्मी दुनिया में साहिर को बेशुमार दौलत और शोहरत मिली. एक वक़्त ऐसा भी था कि उन्हें अपने गीत के लिए पार्श्व गायिका लता मंगेशकर से एक रुपया ज़्यादा मेहनताना मिलता था.
हिंदी फ़िल्मों में साहिर लुधियानवी ने दर्जनों सुपरहिट गाने दिए. उनके इन गानों में भी अच्छी शायरी होती थी.
साहिर के आने से पहले हिंदी फ़िल्मों में जो गाने होते थे, उनमें शायरी कभी-कभार ही देखने में आती थी. लेकिन जब फ़िल्मी दुनिया में मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी और साहिर आए, तो फ़िल्मों के गीत और उनका अंदाज़ भी बदला. गीतों की ज़ुबान बदली. हिंदी, उर्दू से इतर गीत हिंदुस्तानी ज़ुबान में लिखे जाने लगे.
इश्क़-मुहब्बत के अलावा फ़िल्मी नग़मों में समाजी-सियासी नज़रिया भी आने लगा. इसमें सबसे बड़ा बदलाव साहिर ने किया. अपने शायराना गीतों को फ़िल्मों में रखने के लिए उन्होंने कई बार फ़िल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से लड़ाई भी की.
अपने फ़िल्मी गीतों की किताब ‘गाता जाए बंजारा’ की भूमिका में साहिर लिखते हैं,‘‘मेरी हमेशा यह कोशिश रही है कि यथा संभव फ़िल्मी गीतों को सृजनात्मक काव्य के नज़दीक ला सकूं और इस तरह नए सामाजिक और सियासी नज़रिये को आम अवाम तक पहुंचा सकूं.’’ साहिर की ये बात सही भी है.
उनके फ़िल्मी गीतों को उठाकर देख लीजिए, उनमें से ज़्यादातर में एक ख़याल मिलेगा, जो श्रोताओं को सोचने को मजबूर करता है. ‘‘वो सुबह तो आएगी’’ (फ़िल्म—फिर सुबह होगी), ‘‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर’’, ‘‘ये तख़्तों ताजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो’’ (फ़िल्म—प्यासा), ‘‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमां बनेगा’’ (फ़िल्म—धूल का फूल), ‘‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को’’ (फ़िल्म—साधना) वग़ैरह ऐसे उनके कई गीत हैं, जिसमें ज़िंदगी का एक नया फ़लसफ़ा नज़र आता है. ये फ़िल्मी गीत अवाम का मनोरंजन करने के अलावा उन्हें तालीमयाफ़्ता और बेदार भी करते हैं. उन्हें एक सोच, नया नज़रिया मुहैया करते हैं. एक अच्छे लेखक, शायर की शिनाख़्त भी यही है.
साहिर एक ग़ैरतमंद शायर थे. अपने स्वाभिमान से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. फ़िल्मी दुनिया में अब तो ये जैसे एक रिवायत बन गई है कि पहले संगीतकार गीत की धुन बनाता है, फिर गीतकार उस धुन पर गीत लिखता है. पहले भी ज़्यादातर संगीतकार ऐसा ही करते थे, लेकिन साहिर लुधियानवी अलग ही मिट्टी के बने हुए थे. वे इस रिवायत के बरख़िलाफ़ थे.
अपने फ़िल्मी करियर में उन्होंने हमेशा गीत को धुन से ऊपर रखा. पहले गीत लिखा और फिर उसके बाद उसका संगीत बना. उनके फ़िल्मी करियर में सिर्फ़ एक गीत ऐसा है, जिसकी धुन पहले बनी और गीत बाद में लिखा गया. ओपी नैयर के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘नया दौर’ का ‘‘मांग के साथ तुम्हारा, मैंने मांग लिया संसार’’ वह गीत है. अपनी फ़िल्मी मसरूफ़ियतों की वजह से साहिर लुधियानवी अदब की ज़्यादा ख़िदमत नहीं कर पाए. लेकिन उन्होंने जो भी फ़िल्मी गीत लिखे, उन्हें कमतर नहीं कहा जा सकता.
उनके गीतों में जो शायरी है, वह बेमिसाल है. जब उनका गीत ‘‘वह सुबह कभी तो आएगी....’’ आया, तो यह गीत मेहनतकशों, कामगारों और नौजवानों को ख़ासा पसंद आया. इस गीत में उन्हें अपने जज़्बात की अक्कासी दिखी. मुंबई की वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने इस गीत के लिए साहिर को बुलाकर उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया और कहा, ‘‘यह गीत हमारे सपनों की तस्वीर पेश करता है और इससे हम बहुत उत्साहित होते हैं.’’
ज़ाहिर है कि एक गीत और एक शायर को इससे बड़ा मर्तबा क्या मिल सकता है. ये गीत है भी ऐसा, जो लाखों लोगों में एक साथ उम्मीदें जगा जाता है,
वह सुबह कभी तो आएगी
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर, यह भूख के और बेकारी के
टूटेंगें कभी तो बुत आख़िर, दौलत की इजारेदारी के
जब एक अनोख़ी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी.
वह सुबह हमीं से आएगी
जब धरती करवट बदलेगी, जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे
इस गीत के अलावा फ़िल्म ‘नया दौर’ के एक और गीत में मेहनतकशों को आह्वान करते हुए उन्होंने लिखा,
साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जाएगा
मिलकर बोझ उठाना
आज़ादी के बाद मुल्क के सामने अलग तरह की चुनौतियां थीं. इन चुनौतियों का सामना करते हुए साहिर ने कई अच्छे गीत लिखे. लेकिन उनके सभी गीतों में एक विचार ज़रूर मिलेगा. जिस विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी, उसी विचार को उन्होंने अपने गीतों के ज़रिए आगे बढ़ाया.
उनका एक नहीं, कई ऐसे गीत है, जिसमें उनकी विचारधारा मुखर होकर सामने आई है. फ़िल्मी दुनिया में भी रहकर उन्होंने अपनी विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया. मेहनतकशों और वंचितों के हक़ में हमेशा साथ खड़े रहे.
अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है
रूह गंगा की, हिमालय का वतन आज़ाद है
दस्तकारों से कहो, अपनी हुनरमन्दी दिखायें
उंगलियां कटती थीं जिस की, अब वो फ़न आज़ाद है.
हम तरक़्क़ी के रास्ते पै मीलों चले-इस तिरंगे तले
और आगे बढ़ेंगे अभी मन चले-इस तिरंगे तले
साहिर लुधियानवी को फ़िल्मों में जहां भी मौक़ा मिला, उन्होंने अपनी समाजवादी विचारधारा को गीतों के ज़रिए ख़ूब आगे बढ़ाया. साहिर लुधियानवी साम्रज्यवाद और पूंजीवाद के साथ-साथ साम्प्रदायिकता के भी सख़्त मुख़ालिफ़ थे. अपनी नज़्मों और फ़िल्मी नग़मों में भी उन्होंने फ़िरक़ापरस्ती और तंगनज़र सोच का हमेशा विरोध किया. अपने एक गीत में वे हिन्दोस्तानियों को एक प्यारा पैग़ाम देते हुए लिखते हैं,
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा
मालिक ने हर इन्सान को इन्सान बनाया
हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया
साहिर लुधियानवी महिला-पुरुष समानता के बड़े हामी थे. औरतों के ख़िलाफ़ होने वाले किसी भी तरह के अत्याचार और शोषण का उन्होंने अपने फ़िल्मी गीतों में जमकर प्रतिरोध किया.
हिन्दुस्तानी समाज में औरतों के क्या हालात हैं, जहां इसका उनके गीतों में बेबाक चित्रण मिलता है, तो वहीं इन हालात के ख़िलाफ़ एक ग़ुस्सा भी है. साल 1958 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘साधना’ में साहिर द्वारा रचित निम्नलिखित गीत को औरत की व्यथा-कथा का जीवंत दस्तावेज़ कहा जाए, तो अतिश्योक्ति न होगा,
औरत ने जनम दिया मर्दों को
मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
महिलाओं की मर्यादा और गरिमा के ख़िलाफ़ जो भी बातें हैं, साहिर ने अपनी गीतों में इसका पुर—ज़ोर विरोध किया. औरतों के दुःख-दर्द को वे अच्छी तरह से समझते थे. यही वजह है कि उनके गीतों में इसकी संजीदा अक्कासी बार-बार मिलती है. फ़िल्म 'देवदास' के एक गीत में वो लिखते हैं,
मैं वह फूल हूं कि जिसको
गया हर कोई मसल के
मेरी उम्र बह गई है मेरे आँसुओं में ढल के.
साल 1957 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘प्यासा’ में साहिर ने खोखली परंपराओं, झूठे रिवाजों और नारी उत्पीड़न को लेकर जो सवाल खड़े किए है, वह आज भी प्रासंगिक हैं.
ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के
कहां हैं? कहां हैं? मुहाफ़िज़ ख़ुदी के?
वहीं फ़िल्म ‘‘वह सुबह कभी तो आएगी’ में वे दुनिया की इस आधी आबादी के लिए पूरी आज़ादी का तसव्वुर कुछ इस तरह से करते हैं,
दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जायेगा
चाहत को न कुचला जाएगा
ग़ैरत को न बेचा जायेगा
अपनी काली करतूतों पर जब यह दुनिया शर्माएगी.
‘तल्ख़ियां’, ‘परछाईयां’, ‘आओ कि कोई ख़्वाब बुने’ आदि किताबों में जहां साहिर लुधियानवी की ग़ज़लें और नज़्में संकलित हैं, तो ‘गाता जाए बंजारा’ किताब में उनके सारे फ़िल्मी गीत एक जगह मौज़ूद हैं. इन गीतों में भी ग़ज़ब की शायरी है. उनके कई गीत आज भी लोगों की ज़ुबान पर चढ़े हैं.
साहिर को अवाम का ख़ूब प्यार मिला और उन्होंने भी इस प्यार को गीतों के मार्फ़त अपने चाहने वालों को बार-बार सूद समेत लौटाया. उर्दू अदब और फ़िल्मी दुनिया में साहिर लुधियानवी के बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया. जिसमें भारत सरकार का पद्मश्री अवार्ड भी शामिल है.
आज भले ही साहिर लुधियानवी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी ग़ज़लें, नज़्में और नग़में मुल्क की फ़िज़ा में गूंज-गूंजकर इंसानियत और भाईचारे का पाठ पढ़ा रहे हैं. ऐसे शानदार शायर, गीतकार कभी मरते नहीं, बल्कि मरकर अमर हो जाते हैं.