ज़ाहिद ख़ान
प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी, उर्दू अदब की आबरू थे. उर्दू अदब के वे जैसे इनसाइक्लोपीडिया थे. उर्दू अदब की तारीख़ और अहम शख़्सियतों के बारे में उन्हें मुंह ज़बानी याद था. पूछने भर की देर होती, और उनके अंदर से अनेक किस्से बाहर निकलकर शक्ल लेने लगते. साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ और दिल को छूती हुई उनकी आवाज़ सुनने वालों पर एक अलग ही जादू करती थी.
उर्दू का क़दीम ज़माना और तरक़्कीपसंद तहरीक गोया कि वे उर्दू अदब से जुड़े हर मरहले, मौज़ू के आधिकारिक विद्वान थे. उम्र के आख़िरी पड़ाव पर भी उनकी याददाश्त में कोई कमी नहीं आई थी. किसी भी अदबी महफ़िल की भी जान होते थे. हिंदी—उर्दू से इतर वे हिंदुस्तानी ज़बान में अपनी बात कहते थे, जो हर एक को आसानी से समझ में आती थी.
उनके अदबी कारनामों की फ़ेहरिस्त काफी लंबी है. उर्दू् अदब में जदीदियत मौज़ू पर शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के बाद प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी का तारीख़ी काम था. साल 1976—77 में मशहूर नक़्क़ाद अहमद सुरूर की सरपरस्ती में उन्होंने इस मौज़ू पर डी. लिट किया था. 'जदीदियत की फ़ल्सफ़ियाना असास' और 'जदीदियत और नई शायरी' इस मौज़ू पर उनकी अहमतरीन किताबें हैं.
प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी के कई तआरुफ़ थे. शायर, ड्रामा निगार, अफ़साना निगार, तर्जुमा निगार, तनक़ीद निगार और हिंदी—उर्दू के ऐसे बेदार दानिश्वर जिनके इल्म और अदबी स्थापनाओं का सभी लोहा मानते थे. ऐसी अज़ीम शख़्सियत का बीते साल, आज ही के दिन 6 मई को इंतिकाल हो गया था. 82 साल की उम्र में वे हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गए थे.
फ़िराक़ गोरखपुरी, एजाज़ हुसैन और एहतेशाम हुसैन जैसे उस्तादों की सरपरस्ती में शमीम हनफ़ी की तालीम—ओ—तर्बीयत हुई. ग्रेजुएशन के बाद वे कुछ साल 1965 से 1969 तक मध्य प्रदेश के इंदौर में भी रहे. वहां उन्होंने एक कॉलेज में लेक्चरशिप की. इंदौर में ही उन्होंने अपना पहला ड्रामा 'आख़िरी कश' लिखा. जो काफ़ी मक़बूल हुआ. शमीम हनफ़ी के लिखने की शुरुआत हिंदी से हुई, बाद में वे पूरी तरह से उर्दू में आ गए.
उर्दू के बड़े आलोचक आले अहमद सुरूर के बुलावे पर अलीगढ़ यूनीवर्सिटी पहुंचे. वहां पहुंचते ही उन्हें सीनियर फेलोशिप मिल गई. उन्होंने डी. लिट किया. डी. लिट के बाद यूनीवर्सिटी में ही लेक्चरर हो गए. अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में भी प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी का क़याम ज्यादा नहीं रहा. बीसवीं सदी के आठवें दशक में वे दिल्ली आ गए और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में बरसों तक उर्दू के प्रोफ़ेसर एमेरिटस रहे.
जामिया में ही रहते हुए उन्होंने यूनिवर्सिटी की मैगज़ीन ‘जामिया’ का कई सालों तक सम्पादन किया. यहीं से रिटायर होकर, दिल्ली को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया. प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी एक कामयाब कॉलम निगार भी थे. उनके कॉलम, मुल्क के मुख़्तलिफ़ अख़बारों में छपते रहे.
उनका कॉलम लिखने का सिलसिला साल 1963 से शुरू हुआ और तक़रीबन आधी सदी तक मुसलसल चला. उन्होंने कॉलम लेखन को कभी अपना पेशा नहीं बनाया. मौज़ू के ऐतबार से यह कॉलम सियासी और अदबी होता था. शमीम हनफ़ी का कहना था, ''ये कॉलम उनके सामाजिक सरोकारों के दस्तावेज़ थे.'' लेकिन ये ऐसी अदबी तख़्लीक थी, जो उनकी अदबी तनक़ीद के बेहद करीब थीं. प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी के 98 मज़ामीन की एक किताब 'ये किस ख़्वाब का तमाशा है' के नाम से शाया हुई है.
वे शायरी पर हमेशा फ़िक्शन को तरज़ीह देते थे. प्रेमचंद, सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, गुलाम अब्बास और हयातुल्लाह अंसारी के अदब को उन्होंने खूब पढ़ा था. इनकी तहरीरें वे खोज—खोजकर पढ़ते थे. गुलाम अब्बास को वे कृश्न चंदर से बड़ा राइटर मानते थे. बलराज मैनरा, सुरेंद्र प्रकाश, नैयर मसूद, अमीक़ हनफ़ी, कुर्तुल—एन हैदर, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी, अली सरदार जाफ़री, ज़फ़र आगा, इंतज़ार हुसैन, अहमद मुश्ताक़, ज़ाहिद डार वगैरह कई हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी अदीबों से उनके ज़ाती तअल्लुक़ात थे.
उर्दू अदबी हल्कों में प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी की मौजूदगी लाज़िमी होती थी. उर्दू अदब के अलावा वे हर मसले पर अपना खुलकर तबादिला-ए-ख़यालात करते थे. मुल्क के सियासी, समाजी और मआशी यानी हर शोबे पर उनकी गहरी नज़र थी. किसी का भी डर उन्हें उनकी राय ज़ाहिर करने से नहीं रोक पाता था. हिंदी—उर्दू की सांझा संस्कृति के वे झंडाबरदार थे. उनकी नज़र में उर्दू ज़बान का मिज़ाज भी मुश्तरका तहज़ीब का रहा है.
उर्दू अदब के साथ—साथ वे हिंदी अदब के भी उतने ही शैदाई थे. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर सिंह और राजेन्द्र यादव से उनकी दोस्ती रही. उर्दू शायरी के अलावा वे हिंदी में केदारनाथ सिंह, राजेश जोशी, अशोक वाजपेई और विजय कुमार की कविताओं के मुरीद थे. हिंदी—उर्दू में वे किसी तरह का फर्क नहीं करते थे. उनकी नज़र में हिंदी—उर्दू का झगड़ा सिर्फ सियासी था. उनका मानना था कि अच्छी उर्दू लिखने के लिए हिंदी को जानना बेहद ज़रूरी है, तो वहीं अच्छी हिंदी लिखने के लिए उर्दू की जानकारी लाज़िमी है. दोनों ज़बानों के लिखने—पढ़ने वालों को एक—दूसरे की ज़बान से अच्छी वाक़फ़ियत ज़रूरी है.
मुल्क में उर्दू की मौजूदा दशा पर उनका कहना था,''बंटवारे के बाद उर्दू को काफी नुकसान पहुंचा है. पहले स्कूलों से उर्दू गायब हो गई, ख़ास तौर से हिंदी क्षेत्र से.'' उनके मुताबिक ''सरहद के इस पार और उस पार जो लिखा जा रहा है, अगर दोनों को साथ रखें तब उर्दू अदब की पूरी तसवीर बनती है. यहां जो हिंदी शायरी हम पढ़ते हैं, वह उसकी पूरी तसवीर होती है.'' प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी हिंदुस्तान की सांझा संस्कृति के पैरोकार थे.
आज मुल्क में जो इकहरी संस्कृति थोपी जा रही है, उसके वे बरख़िलाफ़ थे. उनका मानना था, ''आप मुसलमानों को अलग भी कर दें, तो भी भारत में एक संस्कृति कभी नहीं थी. दक्षिण की संस्कृति अलग है, तो पूरब की अलग. बंगालियों की तरह पंजाबी नहीं रहते. इसके बावजूद एक सहिष्णुता थी सबके भीतर.'' मुल्क के बड़े समुदायों के बीच कैसे एकता और आपसी समन्वय कायम हो ?, इसके बारे में उनका ख़याल था,''एक समाधान है, राजनीति के असर से आजादी. अलगाववाद की राजनीति को इजाज़त नहीं होनी चाहिए. चाहे उसके लिए हमें कानून बनाना पड़े.''
आज जो आपस में इख़्तिलाफ़ हैं. एक—दूसरे के बीच जो कटुता है, उसके पीछे की वजह भी उन्होंने शिनाख़्त कर ली थी. शमीम हनफ़ी का साफ़ तौर पर मानना था,''एक बेहद बारीक दीवार खड़ी हो गई है. पढ़े-लिखे लोग भी कहने लगे हैं कि कुछ भी हो, राष्ट्रहित तो एक चीज होती है. ऐसा लगता है कि भारत और पाकिस्तान दोनों में आत्महत्या की प्रवृत्ति पैदा हो गई है. हम अपने आपको तबाह करने पर तुले हैं.''
अपनी पूरी ज़िंदगानी में शमीम हनफ़ी की अदबी तनक़ीद की तीस से ज़्यादा क़िताबें प्रकाशित हुईं. अनेक क़िताबों के सम्पादन समेत उन्होंने चार नाटक ‘मिट्टी का बुलावा’, ‘बाज़ार में नींद’, 'ज़िंदगी की तरफ़' और ‘मुझे घर याद आता है’ लिखे. अनुवाद की चार किताबों के अलावा बच्चों के लिए भी लिखा. ‘आख़िरी पहर की दस्तक’ उनकी शायरी का मजमुआ है. चित्रकला और रूपंकर कलाओं में शमीम हनफ़ी की गहरी दिलचस्पी थी.
'उर्दू का तहज़ीबी तनाज़ुर और मआसिर तहज़ीबी सूरत-ए-हाल', 'अदब, अदीब और मुआशरती तशद्दुद', 'ग़ालिब की तख़्लीक़ी हिस्सियत', 'ग़ज़ल का नया मंज़र नामा', 'दुकान—ए—शीशा गरां', 'मीराजी और उनका निगार ख़ाना', 'आधुनिक उर्दू कहानी का सफ़र', ‘इंफरादी शउर और इंतज़ामी ज़िंदगी’, ‘नई शेरी रवायत’, ‘उर्दू कल्चर और तक़सीम की रवायत’, ‘मंटो हक़ीक़त से अफ़साने तक’,'कहानी के पाँच रंग', 'इक़बाल का हर्फ़—ए—तमन्ना', 'नई शेरी रिवायत', 'हम—सफ़रों के दरमियां' और 'हम—नफ़्सों की बज़्म में' जैसी बेमिसाल क़िताबें शमीम हनफ़ी की बेजोड़ कलम से निकली थीं. प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी उर्दू के बड़े तनक़ीद निगार के अलावा हिंदुस्तानी तहज़ीब के आला आलिम थे.
अदब में वे पश्चिम के अंधानुकरण के ख़िलाफ़ थे. उनका मानना था कि ''हमारी परंपराएं अलग हैं और पश्चिम की परंपरा अलग. पश्चिम की जदीदियत और हमारी जदीदियत में बेशक फ़र्क़ होगा.'' उर्दू अदब में प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी के ना भुलाए जाने वाले योगदान को देखते हुए, उन्हें देश-विदेश के अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया. भारतीय ज्ञानपीठ का 'ज्ञानगरिमा मानद अलंकरण','आलमी फ़रोग़—ए—उर्दू अदब अवार्ड' और 'गालिब अवार्ड' उन्हें मिले अहम अवार्ड हैं. उर्दू अदब में प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी जैसी आला दर्जे की शख़्सियत की कमी शायद ही कभी पूरी हो.उनकी रुख़्सती से जैसे उर्दू महफ़िल की रौनक़ ही चली गई.