शानी के कालजयी उपन्यास ‘काला जल’ की ‘सल्लो आपा’, संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ की ‘रेको’, हो या फिर ‘जनाज़ा’, ‘युद्ध’ कहानी का ‘वसीम रिज़वी’ ये किरदार पाठकों की याद में गर आज भी बसे हुए हैं, तो अपनी विश्वसनीयता की वजह से.
शानी ने इन किरदारों को सिर्फ़ गढ़ा नहीं है, बल्कि किरदारों में जो तपिश दिखाई देती है, वह उनके तजुर्बे से मुमकिन हुई है. ‘काला जल’ की ‘सल्लो आपा’ को तो कथाकार राजेन्द्र यादव ने हिंदी उपन्यासों के अविस्मरणीय चरित्रों में से एक माना है.
हिंदी में मुस्लिम बैकग्राउंड पर जो सर्वश्रेष्ठ कहानियां लिखी गई हैं, उनमें ज़्यादातर शानी की हैं. ‘युद्ध’, ‘जनाज़ा’, ‘आईना’, ‘जली हुई रस्सी’, ‘नंगे’, ‘एक कमरे का घर’, ‘बीच के लोग’, ‘सीढ़ियां', ‘चेहलुम’, ‘छल’, ‘रहमत के फ़रिश्ते आएंगे’, ‘शर्त का क्या हुआ’, ‘एक ठहरा हुआ दिन’, ‘एक काली लड़की’, ‘एक हमाम में सब नंगे’ वग़ैरा कहानियों में शानी ने बंटवारे के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज के दुख-तकलीफ़ों, डर, भीतरी अंतर्विरोधों, यंत्रणाओं और विसंगतियों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से दर्शाया है.
शानी की कहानियों में प्रमाणिकता और पर्यवेक्षित जीवन की अक्कासी है. लिहाज़ा ये कहानियां हिंदी साहित्य में अलग ही मुक़ाम रखती हैं.
उन्होंने वही लिखा,जो देखा और भोगा. पूरी साफ़—गोई, ईमानदारी और सच्चाई के साथ वह सब लिखा जो, अमूमन लोग कहना नहीं चाहते. भाषा इतनी सरल और सीधी कि लगता है, मानो लेखक ख़ुद पाठकों से सीधा रू-ब-रू हो. कोई भी विषय हो, वे उसमें गहराई तक जाते थे और इस तरह विश्लेषित करते थे, जैसे कोई मनोवैज्ञानिक मन की गुत्थियों को परत-दर-परत उघाड़ रहा हो.
बस्तर जैसे धुर आदिवासी अंचल के जगदलपुर में जन्मे शानी को बचपन से ही पढ़ने का बेहद शौक़ था. पाठ्यपुस्तकों की बजाय उनका मन साहित्य में ज़्यादा रमता था.
बहरहाल, बचपन का यह जुनून शानी की ज़िंदगी की क़िस्मत बन गया. शानी ने ख़ुद इस बारे में एक जगह लिखा है, ‘‘जो व्यक्ति सांस्कृतिक, साहित्यिक या किसी प्रकार की कला संबधी परंपरा से शून्य बंजर सी धरती बस्तर में जन्मे, घोर असाहित्यिक घर और वातावरण में पले-बड़े, बाहर का माहौल जिसे एक अरसे तक न छू पाए, एक दिन वह देखे कि साहित्य उसकी नियति बन गया है.’
’ जवान होते ही शानी का साबिक़ा ज़िंदगी की कठोर सच्चाईयों से हुआ. निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म और पढ़ाई पूरी नहीं करने के चलते, उनकी शुरुआती ज़िंदगी बेहद संघर्षमय गुज़री. जीवन के अस्तित्व के लिए उन्होंने कई नौकरियां बदलीं.
मगर ज़िंदगी की कश्मकश के इस दौर में भी अदब से उनका नाता बरकरार रहा. शानी की अच्छी कहानियां और उपन्यास का जन्म प्रतिकूल हालात में हुआ. शानी का पहला कहानी संग्रह ‘बबूल की छांव’ साल 1956 में आया और महज़ साल साल के छोटे से अंतराल में उनकी सभी ख़ास कृतियां साहित्यिक पटल पर आ चुकी थीं.
कहानी संग्रह ‘डाली नहीं फूलती’-1959, ‘छोटे घेरे का विद्रोह’-1964, और उपन्यास ‘कस्तूरी’-1960, ‘पत्थरों में बंद आवाज’-1964, ‘काला जल’-1965 में आ कर धूम मचा चुके थे. यही नहीं उनका दिल को छू लेने वाला संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ भी इन्हीं गर्दिश के दिनों में लिखा गया.
ज़िंदगी के जानिब शानी का नज़रिया किताबी नहीं बल्कि अनुभवसिद्ध था. यही वजह है कि वे ‘युद्ध’, ‘जनाज़ा’, ‘बिरादरी’, ‘जगह दो रहमत के फ़रिश्ते आएंगे’, ‘हमाम में सब नंगे’, ‘जली हुई रस्सी’ जैसी दिलो-दिमाग़ को झिंझोड़ देने वाली कहानियां और 'काला जल' जैसा कालजयी उपन्यास हिंदी साहित्य को दे सके. शानी के कथा संसार में मुस्लिम समाज का प्रमाणिक चित्रण तो मिलता ही है, बल्कि हिंदु-मुस्लिम संबंधों पर भी कई मर्मस्पर्शी कहानियां हैं, जो कि भुलाए नहीं भूलतीं.
उनकी कहानी ‘युद्ध’ को तो हिंदी आलोचकों ने हिंदू-मुस्लिम संबंधों के सर्वाधिक प्रमाणित और मार्मिक साहित्यिक दस्तावेज़ों में से एक माना है. समाज में बढ़ता विभाजन हमेशा शानी की अहम चिंताओं में एक रहा. वे ख़ुद, अपनी ज़िंदगानी में भी इन सवालों से जूझे थे.
लिहाज़ा उन्होंने कई कहानियों में हिंदू-मुस्लिम संबंधों के नाज़ुक सवालों को बड़ी ईमानदारी और संजीदगी से उठाया है. कथानक और तटस्थ ट्रीटमेंट इन कहानियों को ख़ास बनाता है.
मसलन कहानी ‘युद्ध’ भय और विषाद के मिश्रित माहौल से शुरू होती है और आख़िर में पाठकों के सामने कई सवाल छोड़ जाती है. फिर कहानी का विलक्षण अंत भला कौन भूल सकता है ?
शानी कहानी के अंत में किरदारों के मार्फ़त कुछ नहीं कहलाते और न ही अपनी ओर से कुछ कहते हैं. बस ! एक लाईन में कहानी बहुत कुछ बयान कर जाती है. इस लाईन पर ग़ौर फ़रमाएं,‘‘दालान में टंगे आईने पर बैठी एक गौरैया हमेशा की तरह अपनी परछाई पर चोंच मार रही थी.’’
संस्मरण ‘शाल वनों के द्वीप’ शानी की बेमिसाल कृति है. हिंदी में यह अपने ढंग की बिल्कुल अल्हदा और अकेली रचना है. इस रचना को पढ़ने में उपन्यास और रिपोर्ताज़ दोनों का मज़ा आता है.
किताब की प्रस्तावना में शानी इसे न तो यात्रा वर्णन मानते हैं और न ही उपन्यास. बल्कि बड़ी विनम्रता से वे इसे कथात्मक विवरण मानते हैं. समाज विज्ञान और नृतत्वशास्त्र से अपरिचित होने के बावजूद उन्होंने जिस तरह मनुष्यता की पीढ़ा और उल्लास का शानदार चित्रण किया है, वह पाठकों को चमत्कृत करता है. हिंदी साहित्य में आदिवासी जीवन को इतनी समग्रता से शायद ही किसी ने इस तरह देखा हो.
जहां तक शानी की भाषा का सवाल है, उनकी भाषा सरल एवं सहज है. हिंदी में वे उर्दू-फ़ारसी अल्फ़ाज़ के इस्तेमाल से परहेज़ नहीं करते. स्वाभाविक रूप से जो शब्द आते हैं, उन्हें वे वैसा का वैसा रख देते हैं.
हिंदी और उर्दू में वे कोई फ़र्क़ नहीं करते. इस मायने में देखें, तो उनकी भाषा हिंदी-उर्दू से इतर हिंदुस्तानी है. शानी ने कुल मिलाकर छह उपन्यास लिखे ‘कस्तूरी’, ‘पत्थरों में बंद आवाज़’, ‘काला जल’, ‘नदी और सीपियॉं’, ‘सांप और सीढ़ियां’, ‘एक लड़की की डायरी’.
इनमें ‘काला जल’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है. यह उपन्यास भारतीय मुस्लिम समाज का महा—आख्यान है. जिसमें आज़ादी से ठीक पहले और बंटवारे के बाद के निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज के सुख-दुःख, वेदना, परेशानियां और उनके असीम संघर्ष दिखाई देते हैं.
हिंदी साहित्य में भारतीय मुस्लिम समाज और संस्कृति को बेहतर समझने के लिए जिन तीन उपन्यासों का ज़िक्र अक्सर किया जाता है, ‘काला जल’ उनमें से एक है.
इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों ने एक सुर में सराहा. 'काला जल' की व्यापक अपील और लोकप्रियता के चलते ही इस पर बाद में टेलीविजन धारावाहिक बना, जो उपन्यास की तरह ही काफ़ी मक़बूल हुआ. इस उपन्यास का भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और रूसी भाषा में भी अनुवाद हुआ.
शानी की संपूर्ण कहानियां ‘सब एक जगह’ संग्रह में दो खंडों में संकलित हैं. ‘एक शहर में सपने बिकते हैं’ उनका निबंध संग्रह है. इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि सदाबहार फ़िल्म ‘शौक़ीन’ के संवाद भी शानी के लिखे हुए हैं.
शानी ने कथा साहित्य के अलावा साहित्यिक पत्रकारिता की और यहां भी वे कामयाब रहे. ‘साक्षात्कर’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ पत्रिकाओं के वे संस्थापक संपादक थे. अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘कहानी’ का भी उन्होंने संपादन किया.
मध्यप्रदेश सरकार ने शानी के साहित्यिक अवदान का मूल्यांकन करते हुए, अपने सर्वोच्च सम्मान ‘शिखर सम्मान’ से नवाज़ा. दिल्ली दूरदर्शन ने उन पर पैंतालीस मिनिट का एक वृतचित्र बनाया.
शानी के मा'नी भले ही दुश्मन हो, लेकिन वे सही मायने में इंसान—दोस्त लेखक थे. उनके संपूर्ण कथा साहित्य का पैग़ाम इंसानियत और मुहब्बत है. हिंदी कथा साहित्य में इंसानी जज़्बात को पूरी संवेदनशीलता और ईमानदारी से पेश करने के लिए शानी हमेशा याद किए जाएंगे.