गौहर रजा की शायरी: ‘पतझड़’ एक दिन ‘वसंत’ को रास्ता देगा

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 17-07-2024
Gauhar Raza's book launch
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साकिब सलीम

गौहर रजा उर्दू साहित्य में दो अलग-अलग वजहों से खास जगह रखते हैं. सबसे पहले, यकीनन वे शांति स्वरूप भटनागर के बाद दूसरे ऐसे भारतीय वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी का संग्रह प्रकाशित किया है. संयोग से, रजा वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) में कार्यरत थे, जिसके संस्थापक अध्यक्ष भटनागर थे.

मुझे एहसास हुआ कि इन दोनों वैज्ञानिक कवियों के बीच और भी बहुत कुछ समानता है, जब मैंने उनकी तीसरी कविता संग्रह गवाही पढ़ी, जिसे अंजुमन तरक्की उर्दू (हिंद) ने प्रकाशित किया है और जिसे 8 जुलाई 2024 को लॉन्च किया गया.

भटनागर ने 1946 में अपनी दिवंगत पत्नी के नाम पर लाजवंती प्रकाशित की. लाजवंती की मृत्यु के बाद, भटनागर ने उसका बक्सा खोला और उसमें कागजों का एक संग्रह मिला, जिस पर उन्होंने कई वर्षों से कविताएँ लिखी थीं. ये कविताएं प्रकाशित हुईं और कई कविताएँ उन्हें समर्पित भी की गईं.

दरअसल, भटनागर ने अपनी एक कविता में लिखा है, ‘‘मेरी बीवी ने कहा एक दिन जो मैं होती किताब तेरे दीद-ए-शौक से हर वक्त रहती फैजयाब (एक दिन मेरी बीवी ने कहा, अगर मैं किताब होती, तो तुम हमेशा मुझे जुनून से देखते.) इस तरह लाजवंती एक किताब बन गई.

भटनागर लिखते हैं, ‘‘अब लाजवंती एक किताब है और इसके पन्ने हमेशा मैं ही खोलूंगा. क्योंकि मेरी बीवी चाहती थी कि उसका माथा किताब के पन्ने हो, जिसे मैं पन्ने पलटते हुए छू सकूं.’’

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कविताएं पढ़ने पर हमें पता चलता है कि भटनागर की तरह रजा भी अपनी पत्नी शबनम हाशमी के लिए अपने प्यार, सम्मान और प्रशंसा को नहीं छिपाते. शबनम को समर्पित अपनी एक कविता अनहद चेहरे में रजा लिखते हैं, ‘‘मजनू होना, लैला होना, सबके बस की बात नहीं है.’’ उन्होंने कहा कि वे दोनों प्रेमियों की जमात से हैं, जिन्हें हमेशा प्यार करने के लिए निशाना बनाया जाता रहा है. मजनू को हर उस व्यक्ति की तरह सजा मिली, जो प्यार की बात करता है और तथाकथित मानदंडों का ‘सम्मान’ किए बिना प्यार करके समाज को चुनौती देता है.

भटनागर के लिए तेज बहादुर सप्रू ने लिखा, “उर्दू साहित्य में आपकी (भटनागर की) विशेषज्ञता विज्ञान में आपकी महारत से कम नहीं है.” उनके विचार में, भटनागर की कविता में विशिष्ट दर्शन और काव्य कौशल दिखाई देता है. भाषा को दिल्ली उर्दू साहित्य का सबसे शुद्ध रूप में माना जाता था. इसके अलावा, सप्रू ने 1946 में प्रकाशित इस पुस्तक को हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में देखा.

बेशक रजा ने पिछले तीन दशकों में खुद को एक प्रतिष्ठित उर्दू शायर के रूप में साबित किया है और यह तर्क देना मुश्किल है कि सीएसआईआर में एक वैज्ञानिक के रूप में उनकी उपलब्धियां अधिक विशिष्ट हैं या उनकी कविताएं. प्रो. सादिक-उर-रहमान किदवई उनकी भाषा को वर्तमान समय का प्रतिनिधि कहते हैं. भटनागर की तरह उनकी अधिकांश कविताएं हिंदू-मुस्लिम एकता और समाज में दरार पैदा करने वाली राजनीति को समर्पित हैं.

1946 में भटनागर ब्रिटिश सरकार, कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और अन्य भारतीय दलों के खिलाफ लिख रहे थे. 2024 में रजा वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ लिख रहे हैं. विभाजनकारी राजनीति और हिंसा की आलोचना में पक्षपाती होने के लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता. 1970 के दशक से ही उनकी कविताएं किसी भी गलत नीति या उत्पीड़न के खिलाफ लिखी जाती रही हैं. किसी समय कांग्रेस सत्ता में थी और उनकी कलम उसकी नीतियों के खिलाफ लिख रही थी और अब भाजपा उनकी आलोचना का शिकार हो रही है.

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पंजाब में हिंसा, सफदर हाशमी की हत्या और 1990 के दशक के आर्थिक उदारीकरण पर उनकी कविताएं इस तथ्य की गवाही देती हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रजा एक वैज्ञानिक हैं. भटनागर ने अपनी एक कविता में सृष्टि, रसायन विज्ञान और दर्शन के विचार को समाहित किया है.

इसी तरह, हम रजा की कविताओं में सृष्टि, ‘बिग बैंग’ आदि के विचार पर चर्चा पाते हैं. अपनी एक कविता ‘हदों के बाहर’ में रजा ने एक बिंदु से सृष्टि और फैलते ब्रह्मांड की कल्पना की है.

वे लिखते हैं कि ऐसे समय की कल्पना करना कठिन है जब समय भी नहीं था और पदार्थ का होना अभी बाकी था. अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं था. मनुष्य का मस्तिष्क कैसे समझ सकता है कि यह सारा ब्रह्मांड एक छोटे से बिंदु में समाया हुआ है? इतने महत्वपूर्ण वैज्ञानिक सिद्धांत को कविता के रूप में समझाने के लिए एक वैज्ञानिक की प्रतिभा और एक कवि की कला की जरूरत होती है.

दूसरी विशिष्टता यह है कि वे प्रगतिशील लेखक आंदोलन के प्रतिनिधि कवि हैं. इस आंदोलन के ध्वजवाहक अली सरदार जाफरी, फैज अहमद फैज, साहिर लुधियानवी आदि थे. प्रो. किदवई कहते हैं, ‘‘उर्दू शायरी की परंपरा में जिस तरह से प्रगतिशील साहित्य ने हस्तक्षेप किया, यह किताब (रजा की गवाही) उससे खुद को एक नई भाषा के साथ जोड़े रखती है जिसे आज की पीढ़ी भी समझ सकती है.’’

सोवियत संघ के विघटन के बाद लिखी गई कविता ‘बहार लौट आएगी’ (वसंत लौटेगा) अन्य प्रगतिशील कवियों की तरह मार्क्सवादी समाजवाद में उनके विश्वास का प्रमाण है. उन्हें उम्मीद है कि एक दिन, समाजवादी विचार दुनिया पर राज करेंगे और लोग आर्थिक और सामाजिक असमानताओं से मुक्त दुनिया में रहेंगे.

अपनी कविता ‘जर्द पत्तों का बन’ में वह फैज अहमद फैज से प्रेरणा लेते हैं, जिन्होंने इसी शीर्षक से एक कविता लिखी थी, जिसमें उन्होंने 1950 के दशक के पाकिस्तान को सूखे पत्तों का जंगल कहा था.

सांप्रदायिक हिंसा, नफरत और विभाजनकारी राजनीति में उछाल को देखते हुए रजा इसे एक मोड़ देते हैं और कहते हैं कि युवा दिनों में कविता पढ़ते हुए उन्हें लगता था कि फैज का देश (पाकिस्तान) सूखे पत्तों का जंगल है, लेकिन हम ऐसे नहीं थे. लेकिन, अब जब उनके अपने देश में पतझड़ आ गया है, तो उन्हें एहसास हुआ कि उनका देश भी इससे अलग नहीं है.

कविता एक आशावादी नोट पर समाप्त होती है कि यह पतझड़ बीत जाएगा और वसंत का रास्ता देगा. रजा के लेखन में यह गुण देखने को मिलता है. नफरत, हिंसा, पितृसत्ता, सामाजिक असमानता की राजनीति के बारे में बात करते हुए भी वे भविष्य के लिए बेहद आशावादी बने रहे.