फ़हमी साहब नहीं रहे

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 22-10-2024
Fahmi sahab is no more
Fahmi sahab is no more

 

मशहूर शायर फ़हमी बदायूनी का 72 साल की उम्र में 20 अक्टूबर को इंतकाल हो गया. बदायूं के अपने घर में उन्होंने आखिरी साँस ली. उनके जाने से हिंदी-उर्दू साहित्य का बड़ा नुकसान हुआ है. दुनियाभर में बसे उनके चाहने वाले इस सदमे से अभी उभरे नहीं है. हर कोई अपने तरीके से उन्हें खिराजे अकीदत पेश कर रहा है. पुणे में रहने वाले एक नौजवान शायर प्रखर गर्ग ने फहमी की दूसरी किताब 'दस्तकें निगाहों की' को मंजर ए आम पर लाने में बड़ी भूमिका निभाई है.  फ़हमी बदायूनी को उन्होंने कुछ यूँ याद किया...   

कल फ़हमी साहब भी चले गए. उनके जाने का दुख शायद इसलिए भी ज़्यादा है, क्योंकि मैंने उन्हें सुनकर ये जाना-समझा था कि शायरी किसे कहते हैं. वो दिल्ली की दिसंबर की सर्दियाँ, मुशायरा और फ़हमी साहब. मुझे याद है, कैसे मैं उन्हें स्टेशन से लेकर आया, और टैक्सी में पूरा रास्ता चुप रहा. ग्रीन रूम में उनके साथ बैठा रहा और चुप रहा.

सर्दी के मारे बहुत सारे कपड़ों ने उनके छोटे-पतले क़द को इस तरह ढका हुआ था, जैसे एक जादूगर के स्टेज पर आने से पहले वो चीज़ ढँकी हुई होती है, जिसमें सारा जादू क़ैद होता है.जब तक उनकी बारी आई, मैं थक कर ऑडियंस में जगह ले चुका था. उस दिन मैंने ऑडियंस में होने में मज़े लूटे हैं.

मैंने जाना कि शायरी असल में किस चिड़िया का नाम है. ये भी कि जादूगर किसे कहते हैं. मुशायरा ख़त्म हुआ और उनके आसपास इतनी भीड़ जम गई कि उनसे हाथ भी ना मिला पाया. लेकिन ये फ़ैसला उसी दिन उसी पल हुआ कि उनके साथ उनकी किताब पर काम करना है. उनकी तस्वीर बनवाई, लेकिन कभी भेज नहीं पाया. 

जान में जान आ गई यारों 
वो किसी और से ख़फ़ा निकला

(इस शेर ने उस दिन जो वाह-वाह लूटी थी, उसका कोई सानी नहीं था. वो मुशायरा किसी शायर का मुशायरा नहीं हुआ था, इस शेर का मुशायरा हुआ था.)

फिर क़िस्मत का ज़ोर था और मैं था. ‘दस्तकें निगाहों की’ के नाम से फ़हमी साहब की दूसरी किताब मैंने डिजाइन की. उसे प्रिंट करवाया. इसका संपादन किया. ‘डार्लिंग शायर’ के नाम से, उन्हें समर्पित एक नाटक की रचना की, उसका मंचन दिल्ली में किया, और उसी कार्यक्रम में उनके साथ स्टेज पर खड़ा होकर, उस किताब का विमोचन किया. वो दिन वो थे जब मुझे ये तक मालूम था कि कौनसी ग़ज़ल किस पन्ने पर है.

शकील जमाली साहब ने उस किताब के दीबाचे में लिखा था “पहला मिसरा पढ़ कर या सुनकर यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है कि दूसरे मिसरे में इज़हार का यह ऊँट किस करवट बैठेगा, या मज़मून क्या रुख़ लेगा.” ये बात किसी से छुपी तो नहीं है. उसका हर एक शेर वो है कि हाय-हाय.

उसने ख़त का जवाब भेजा है 
चार लेकिन है एक हाँ के साथ

एक दोस्त कह रहे हैं कि शायर और लेखक के मरने का सोग मनाना फ़िज़ूल है, क्योंकि जिस तरह से उसने ज़िंदगी की धज्जियाँ उड़ाई हैं, उसका इनाम ये शायरी ही है. ऐसी कमाल शायरी भले एक ज़िंदगी के बदले कैसे ही मिलेगी. लेकिन उनके जाने से मानों एक तार टूट गया है. उसके टूटना मेरा अपना दुख है, और उनका चला जाना, पूरी अदबी दुनिया का. किताब के सिलसिले में उनसे मिला, लेकिन उससे अलग कभी बात नहीं हुई. 

रात अपना अजीब आलम था 
आप होते तो आप भी रोते 

एक वही शख़्स रहे जिनसे मिला सिर्फ़ कुछ ही दफ़ा, और ज़िंदगी भर का रिश्ता क़ायम रहा. ज़िंदगी में बड़े लंबे अरसे से एक ‘उस्ताद’ की कमी महसूस कर रहा हूँ, और उनके जाने से ऐसा लग रहा है जैसे अब उम्मीद करना भी फ़िज़ूल है. 

अब तो मैं जो भी काम करता हूँ 
वो तेरा इंतज़ार होता है

फ़हमी साहब की शायरी वो शय है, जो सुनी कम और दिखाई ज़्यादा देती है, ख़्वाब बनकर, आँखों के अंदर, जैसे हर एक शेर वो लम्हा था जिसमें सदियाँ जी गई. हर सुनने वाले की अपनी अलग दुनिया के अलग ख़्वाब बुने हैं फ़हमी साहब ने. मिसाल के तौर पर ये शेर देखिए, 

उसने चूमा था एक बार मुझे 
तितलियों से बचाओ यार मुझे

और उसी के साथ वही शांत स्वभाव और नज़रिया जैसे कोई कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता. ये दो शेर देखिए,

हर तरफ़ देखकर नहीं चलते 
फिर भी हम बेख़बर नहीं चलते 
मैं तो बाज़ार में ही मर जाता
तेरे सिक्के अगर नहीं चलते 

दोनों शेर इतनी दूर गिरते हैं कि सुनने वाला चयन करने में ही परेशान हो जाए. ये पढ़कर वाक़ई लगता है कि उनके लहजे का ऊँट किस तरफ़ करवट लेगा, कोई नहीं जानता. उनका असल नाम पुत्तन ख़ान था. रिटायर्ड अध्यापक थे.

आम ज़िंदगी की आम मुश्किलें थीं, लेकिन अंदाज़-ए-बयाँ वो कि सोचने वाला ग़म का सोचकर भी मुस्कुरा दे. ज़िंदगी से इस तरह बातें करना, ज़िंदगी को महबूब बना लेना, फ़हमी साहब का फ़न था. वे ज़िंदगी से ज़िंदगी के इशारों में बात किया करते थे. 

कहने को क्या कुछ नहीं कह सकते उनके बारे में, लेकिन उनका एक शेर है, जो सिर्फ़ उनकी ही नहीं बल्कि हर शायद की संपूर्ण शायरी का सरमाया कहा जा सकता है–

तुमको मालूम था मैं शायर हूँ
क्यों बनाया था राज़दार मुझे!

हमारे डार्लिंग शायर को अलविदा, एक कलंदर शायर को अलविदा !!!