अख़्तर-उल-ईमान जन्मदिन विशेष: जिनकी नज्में कहानियां भी कहती हैं और आपसे सवाल भी करती हैं...

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  onikamaheshwari | Date 12-11-2022
अख़्तर-उल-ईमान जन्मदिन विशेष: जिनकी नज्में कहानियां भी कहती हैं और आपसे सवाल भी करती हैं...
अख़्तर-उल-ईमान जन्मदिन विशेष: जिनकी नज्में कहानियां भी कहती हैं और आपसे सवाल भी करती हैं...

 

ज़ाहिद ख़ान

अख़्तर-उल-ईमान अपने दौर के संज़ीदा शायर और बेहतरीन डायलॉग राइटर थे. अक्सर लोग उन्हें फ़िल्मी लेखक के तौर पर याद करते हैं, मगर यह भूल जाते हैं कि फ़िल्मों में आने से पहले वो एक नामचीन शायर थे, और ताउम्र बेहद संज़ीदगी से शायरी करते रहे. तरक़्क़ीपसंद तहरीक से भी उनका वास्ता रहा और आखि़र तक ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ में सरगर्म रहे. वे एक आला नज़्म निगार थे. उर्दू अदब में जदीद नज़्मों की इब्तिदा उन्होंने ही की. उनकी नज़्मों में सीधी-सादी शायरी नहीं, बल्कि उनमें एक मुकम्मिल कहानी होती है, जो ख़त्म होते-होते पाठकों के जे़हन में अनगिनत सवाल छोड़ जाती हैं. वे एक यथार्थवादी और आधुनिक शायर थे. उनकी नज़्मों में सिर्फ़ इश्क-मुहब्बत ही नहीं, आम आदमी की ज़िंदगी की जद्दोजहद भी साफ दिखलाई देती है.

12 नवंबर, 1915 को पश्चिमी उतर प्रदेश के ज़िला बिजनौर की एक छोटी सी बस्ती क़िला पत्थरगढ़ में एक गरीब परिवार में जन्मे अख़्तर-उल-ईमान का बचपन बेहद गु़र्बत में बीता। उनकी शुरुआती तालीम अनाथालय के एक स्कूल में हुई. मैट्रिक के बाद उनका ग्रेजुएशन नई दिल्ली के ऐंगलो अरबिक कॉलेज में हुआ. अख़्तर-उल-ईमान एक जज़्बाती इंसान थे. सत्रह-अठारह साल की उम्र में ही उन्होंने शायरी शुरू कर दी थी. थोड़े से ही अरसे में अपनी रूमानी नज़्मों की बदौलत वे कॉलेज में अलग से पहचाने जाने लगे. उनके ख़ास दोस्त उन्हें ब्लैक जापान अख़्तर-उल-ईमान कह कर पुकारते. पढ़ाई और शायरी के अलावा उनकी दिलचस्पी सियासत में भी थी. स्टूडेंट पॉलिटिक्स में वे खुलकर हिस्सा लेते थे. आगे चलकर उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से फारसी में एमए किया. अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में ही पढ़ाई के दौरान अख़्तर-उल-ईमान, तरक़्क़ीपसंद शायरों के संपर्क में आए और उनकी शायरी में एक अलग रुझान पैदा हुआ. पढ़ाई मुकम्मल करने के बाद, एक बार फिर उनके सामने रोजी-रोटी का सवाल था. उन्होंने मेरठ और दिल्ली में छोटी-छोटी नौकरियां कीं. कुछ दिन दिल्ली रेडियो स्टेशन में भी रहे, मगर कहीं भी उनका स्थायी ठिकाना नहीं रहा. आखि़रकार, अख़्तर-उल-ईमान का लेखन ही काम आया. दोस्तों की मदद से उन्हें पूना के शालीमार पिक्चर्स में बतौर कहानीकार और संवाद लेखक की नौकरी मिल गई. शालीमार पिक्चर्स में उस वक़्त जोश मलीहाबादी, सागर निज़ामी, कृश्न चंदर और भरत व्यास जैसे आला दर्जे के अदीब पहले ही इकट्ठा थे, अख़्तर-उल-ईमान भी उस ग़िरोह का हिस्सा हो गए. शालीमार पिक्चर्स के जब सितारे ग़र्दिश में आए, तो वे मुंबई चले आए. अख़्तर-उल-ईमान ने बचपन से ही खू़ब गरीबी झेली थी, करियर बनाने के लिए उन्होंने जी-जान लगा दी. कुछ ही दिनों में उन्होंने डायलॉग राइटर के तौर पर अपनी पहचान बना ली. एक ज़माना था, जब हिंदी सिनेमा के बड़े बैनर की फ़िल्में उन्हें ही मिलती थीं और इन फ़िल्मों की कामयाबी में भी अख़्तर-उल-ईमान के धारदार डायलॉग का हाथ होता था. फ़िल्मों में लिखे उनके डायलॉग थिएटर से निकलकर दर्शकों के घर तक जाते थे.
 
अख़्तर-उल-ईमान की एक तरफ फ़िल्मों में स्टोरी और डायलॉग राइटर के तौर पर धूम मची हुई थी, तो दूसरी ओर वे शायरी में भी मशगूल थे. तमाम मसरूफ़ियत के बाद भी उन्होंने शायरी से किनारा नहीं किया. शायरी में वे फै़ज़ अहमद फै़ज़, मुईन अहसन जज़्बी, मजाज़, मख़दूम, और मीराजी से ज़्यादा मुतास्सिर थे। या यूं कहें, मीराजी का ही उन पर ज़्यादा असर था. यही वजह है कि उनकी शायरी भी व्यक्तिवादी और प्रतीकवादी है. आगे चलकर उनकी शायरी ने सामाजिकता को एक अलग एंगल से छुआ. ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में प्रोफेसर एहतेशाम हुसैन ने अख़्तर-उल-ईमान की शायरी की खू़बियों की निशानदेही करते हुए लिखा है, ‘‘उन्होंने अपनी शायरी में व्यक्तिगत अनुभूतियों, वेदनाओं तथा संघर्षों को वाणी प्रदान की है, उसमें उनकी सामाजिक चेतना भी उभर आयी है. अपने धीमे स्वर में बड़ी ख़ू़बसूरती से दिल की आग बाहर उंड़ेल देते हैं.’’ मिसाल के तौर पर उनकी बेहद चर्चित नज़्मों में से एक ‘एक लड़का’ नज़्म पर नज़र डालिए, ‘‘मैं उस लड़के से कहता हूँ वो शोला मर चुका जिस ने/कभी चाहा था इक ख़ाशाक-ए-आलम फूँक डालेगा/ये लड़का मुस्कुराता है ये आहिस्ता से कहता है/ये किज़्ब-ओ-इफ़्तिरा है झूट है देखो मैं ज़िंदा हूँ.’’
 
अख़्तर-उल-ईमान ने ग़ज़ल की बजाय नज़्म ही ज़्यादा लिखीं. उर्दू अदब में उनकी पहचान नज़्म निगार की है. ‘ज़िदगी का वक़्फ़ा’, ‘आखि़री मुलाकात’, ‘डासना स्टेशन का मुसाफ़िर’, ‘बिंत-ए-लम्हात’, ‘यादें’, ‘तन्हाई में’, ‘नया आहंग’, ‘उम्र-ए-गुरेज़ा के नाम’, ‘अहद-ए-वफ़ा’, ‘जिंदगी के दरवाज़े पर’ और ‘मताअ-ए-राएगां’ वगैरह उनकी मशहूर नज़्मे हैं. नज़्म ‘यादें’ में अख़्तर-उल-ईमान की यादों का तसव्वुर है, ‘‘लो वो चाह-ए-शब से निकला पिछले-पहर पीला महताब/ ज़ेहन ने खोली रुकते रुकते माज़ी की पारीना किताब/यादों के बे-म’अनी दफ़्तर ख़्वाबों के अफ़्सुर्दा शहाब/सब के सब ख़ामोश ज़बाँ से कहते हैं ऐ ख़ाना-ख़राब.’’ ज़िंदगी के छोटे-छोटे लम्हे, तअस्सुरात उनकी शायरी में बड़े ही बारीकी से नुमायां होते हैं। कई मर्तबा इन नज़्मों में कुदरत का बयान भी तफ़सील से आता है. मिसाल के तौर पर उनकी नज़्म ‘काले सफ़ेद परों वाला परिंदा और मेरी एक शाम’ को देखिए, ‘‘जब दिन ढल जाता है, सूरज धरती की ओट में हो जाता है/और भिड़ों के छत्ते जैसी भिन-भिन/बाज़ारों की गर्मी, अफ़रा-तफ़री/मोटर, बस, बर्क़ी रेलों का हंगामा थम जाता है/चाय-ख़ानों नाच-घरों से कम-सिन लड़के/अपने हम-सिन माशूक़ों को/जिन की जिंसी ख़वाहिश वक़्त से पहले जाग उठी है/ले कर जा चुकते हैं/बढ़ती फैलती ऊँची हिमाला जैसी तामीरों पर ख़ामोशी छा जाती है.’’ इसी तरह उनकी ‘अजनबी’ नज़्म में भी कुदरत के नज़ारों का बयान है. ‘‘तू है कच्ची कोंपल अब तक जिसके लोच में प्यार/और मैं गर्मी सर्दी चक्खे डाली पर तनहा इक पात.’’ ‘जाने शीरीं’, ‘मुहब्बत’, ‘अहदे वफ़ा’ आदि अख़्तर-उल-ईमान की नज़्मों में मुहब्बत के नाजु़क-नाजुक अहसास हैं.
 
अख़्तर-उल-ईमान अपनी शायरी पर खु़द तन्क़ीद करते थे. एक किताब की भूमिका में उन्होंने अपनी शायरी के बारे में लिखा है, ‘‘यह शायरी मशीन में नहीं ढली, एक ऐसे इंसान के ज़ेहन की रचना है, जो दिन-रात बदलती हुई सामाजिक, आर्थिक और नैतिक मूल्यों से दो-चार होता है. जहां इंसान ज़िंदगी और समाज के साथ बहुत से समझौते करने पर मजबूर है, जिन्हें वो पसंद नहीं करता. समझौते इसलिए करता है कि उसके बिना ज़िंदा रहना मुम्किन नहीं और उनके खि़लाफ़ आवाज़ इसलिए उठाता है कि उसके पास ज़मीर नाम की एक चीज़ है.’’ ज़ाहिर है कि ये आवाज़ तन्हा अख़्तर-उल-ईमान के ज़मीर की ही आवाज़ नहीं, बल्कि उनके दौर के हर संवेदनशील शख़्स के ज़मीर की आवाज़ है. समाज में जो उन्होंने महसूस किया, उसे ही अपनी शायरी में ढाल दिया। यही वजह है कि अख़्तर-उल-ईमान की शायरी यथार्थ की बेहद खुरदुरी ज़मीन पर खड़ी दिखाई देती है. जाने-माने शायर और नक़्क़ाद फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में अख़्तर-उल-ईमान की नज़्मों के बारे में लिखा है, ‘‘उनकी नज़्में बड़ी संभली-संभली और मंदगति से चलती हैं, पाठक को साथ लेते हुए, रास्ते के कांटे-कंकड़ों से बचाते हुए, अंत में वे उसे उस मंजिल पर ले जाती हैं, जहां पहुंच कर पाठक को किसी प्रकार की थकान नहीं रहती, बल्कि वह एक तरह की ताज़गी महसूस करता है.’’ अख़्तर-उल-ईमान की बाज़ नज़्में बड़ी तवील है, जिनमें वे एक कामयाब क़िस्साग़ो की तरह पूरे मंज़र को बयां करते चले जाते हैं. ‘डासना स्टेशन का मुसाफ़िर’, ‘दिल्ली की गलियां तीन मंज़र’ इन नज़्मों की कटगरी में शुमार होती हैं.
  
अख़्तर-उल-ईमान ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत साल 1948 में फ़िल्म ‘झरना’ से की लेकिन ‘कानून’ वह  फ़िल्म थी, जिसने उन्हें फ़िल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया. डायरेक्टर बीआर चोपड़ा की इस फिल्म की कामयाबी के पीछे इसके डायलॉग का भी हाथ था. आगे चलकर उन्होंने बीआर चोपड़ा और उनके भाई यश चोपड़ा की अनेक फ़िल्मों के डायलॉग लिखे. अपने पचास साल के फ़िल्मी करियर में अख़्तर-उल-ईमान ने 100 से ज़्यादा फिल्मों के संवाद लिखे. जिनमें नग़मा, रफ़्तार, ज़िंदगी और तूफ़ान, मुग़ल-ए-आज़म, वक़्त, हमराज़, दाग़, आदमी, पाकीज़ा, पत्थर के सनम, गुमराह, मुजरिम, मेरा साया, आदमी और इंसान, चांदी-सोना, धरम पुत्र, और अपराध जैसी कामयाब फ़िल्में शामिल हैं. ‘वक़्त’ और ‘धरमपुत्र’ के लिए वो बेहतरीन संवाद लेखन के फ़िल्मफ़ेयर ऐवार्ड से नवाज़े गए. फ़िल्म 'वक़्त' में उनका लिखा यह डायलॉग ''जिनके घर शीशे के हों, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते.'' तो आज भी सिने प्रेमियों के ज़ेहन में ज़िंदा है। उन्होंने एक फ़िल्म ‘लहु पुकारेगा’ का डायरेक्शन भी किया, अलबत्ता यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर नाकामयाब साबित रही.
 
अख़्तर-उल-ईमान की नज़्मों के अनेक मजमुए शाया हुए. जिनमें ने से कुछ ख़ास किताबें हैं-‘गर्दाब’, ‘सब रंग’, ‘तारीक सय्यारा’, ‘आब-ए-जू’, ‘यादें’, ‘बिंत लम्हात’, ‘नया आहंग’, ‘सर-ओ-सामाँ’, ‘ज़मीन ज़मीन’ और ‘ज़मिस्ताँ सर्द-मेहरी का’. ‘इस आबाद ख़राबे में’ उनकी आत्मकथा है, तो वहीं ‘सबरंग’ एक गीति-नाट्य है, जिसमें मजदूरों के शोषण की प्रतीकात्मक कहानी है. अपनी बेमिसाल तख़्लीकात के लिए अख़्तर-उल-ईमान कई एज़ाज़ और इनामात से भी नवाजे़ गए. किताब ‘यादें’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी ऐवार्ड, तो ‘बिंत लम्हात’ पर उ.प्र. उर्दू अकादेमी और मीर अकादेमी ने उनको इनाम दिया. महाराष्ट्र उर्दू अकादेमी ने किताब ‘नया आहंग’ को ऐवार्ड दिया. यही नहीं ‘सर-ओ-सामाँ’ के लिए वो मध्य प्रदेश सरकार के ‘इक़बाल सम्मान’ से नवाज़े गए. इसी किताब पर उनको दिल्ली उर्दू अकादेमी और ग़ालिब इंस्टीट्यूट ने भी इनामात दिए. अख़्तर-उल-ईमान तीन बार ज्ञानपीठ ऐवार्ड के लिए नामज़द किए गए. 9 मार्च, 1996 को अख़्तर-उल-ईमान ने इस दुनिया से अपनी विदाई ली. आज भले ही अख़्तर-उल-ईमान हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी नज़्में, फ़िल्मों में लिखे उनके बेजोड़ संवाद आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं और आइंदा भी रहेंगे.