मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली
खबर यह है कि आज यानी 15 नवंबर, 2022 को दुनिया की आबादी 8 अरब हो गई है. आज से 12 साल पहले हम लोग 7 अरब हुए थे.असल में, 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर संयुक्त राष्ट्र ने ‘वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रॉस्पेक्ट्स 2022’ रिपोर्ट जारी की थी.
इस रिपोर्ट में कहा गया था कि 15 नवंबर 2022 को दुनिया की आबादी 8 अरब के आंकड़े को पार कर जाएगी. साथ ही, इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 2023 में भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा.
इसके साथ ही 2030 में दुनिया की आबादी के 8.5 अरब के आंकड़े को पार करने का अनुमान जताया गया है.
लेकिन हिंदुस्तान में तेजी से बढ़ती जनसंख्या का भय के धार्मिक पहलू भी हैं. यहां सवाल उठाया जाता है कि भारत में मुसलमान अधिक बच्चे पैदा करते हैं और इसलिए देश की आबादी बढ़ रही है. यह सवाल भ्रम और दहशत पैदा करने वाला है.
कई लोग ऐसे हैं जो मुसलमानों की आबादी बढ़ने की बात कहकर हिंदुओं से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए कह रहे हैं, इससे जुड़े मेसेज सोशल मीडिया पर वायरल कराए जाते हैं. इस डर के पीछे इस्लामोफोबिया एक बड़ी वजह है.
भारत की आबादी में विभिन्न धर्मों की हिस्सेदारी पर जो आंकड़े हैं उसके विश्लेषण से पता चलता है कि अगले बीस साल में मुस्लिमों और हिंदुओं की प्रजनन दर में अंतर खत्म हो जाएगा. इसका मतलब यह हुआ कि जितने बच्चे हिंदुओं के पैदा होंगे इतने ही मुसलमानों के.
बहरहाल, आम लोगों में यह धारणा बेहद मजबूत बना दी गई है कि मुस्लिमों की आबादी बढ़ने से हिंदुओं को खतरा है.
यह बात सच है कि आजादी के बाद हुई हर जनगणना में मुस्लिमों का आबादी में हिस्सा बढ़ा है. और इक्कीसवीं सदी के अंत तक देश में मुस्लिमों की संख्या कुल आबादी का बीस फीसद होंगे. 1951 में जहां भारत की आबादी में 9.8 प्रतिशत मुसलमान थे, 2011 में उनकी हिस्सेदारी बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गई. इसके मुकाबले हिंदुओं का हिस्सा 84.1% से घटकर 79.8% रह गया.
प्यू रिसर्च ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 2021 में मुस्लिमों की भारत में अनुमानित आबादी 21.30 करोड़ थी, जो 2030 तक 23.63 करोड़ हो जाएगी. यानी इन 8 सालों के दौरान मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि दर करीब 10फीसदरहेगी. वहीं भारत की आबादी इस समय बढ़कर 150 करोड़ तक होने का अनुमान है.
2001में हिंदुओं की आबादी 82.75करोड़ और मुस्लिम आबादी 13.8करोड़ थी. ठीक 10साल बाद हिंदुओं की आबादी बढ़कर 96.63करोड़, जबकि मुस्लिमों की आबादी 17.22करोड़ हो गई. इस दौरान मुस्लिमों की आबादी 24.78%की रफ्तार से जबकि हिंदुओं की 16.77%की रफ्तार से बढ़ी है.
छह दशकों में मुस्लिमों की हिस्सेदारी में करीब साढ़े चार प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और ये ट्रेंड जारी रहा तो भी इस सदी के अंत तक भारत में मुस्लिमों की आबादी 20 फीसद से ज्यादा नहीं होगी. यह बढ़त और धीमी होगी क्योंकि मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच प्रजनन का अंतर कम हो रहा है और शायद कुछ सालों में खत्म ही हो जाए.
इस बारे में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे का आंकड़ा देखने से बहुत कुछ साफ हो जाता है.
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि सभी धर्मों में फर्टिलिटी रेट यानी प्रजनन दर में कमी आई है, लेकिन मुस्लिमों में प्रजनन दर में गिरावट तेजी से हुई है. टोटल फर्टिलिटी रेट यानी कुल प्रजनन दर का मतलब होता है कि औसत के हिसाब से हर महिला कितने बच्चों को जन्म देती है.
1992-93 में मुसलमानों में प्रजनन दर 4.4 प्रतिशत था. 2015 में यह घटकर 2.6 प्रतिशत हुआ और 2019-2021 के आंकड़ों में 2.3 फीसद ही रह गया है. यानी गिरावट तेज है. और इसका एक मतलब यह भी है कि भारत के मुसलमान भी परिवार नियोजन के उपाय अपना रहे हैं.
हालांकि, सचाई यह भी है कि अब भी मुसलमानों में प्रजनन दर सभी धार्मिक समूहों में सबसे अधिक है. हिंदुओं में 2015 में जो प्रजनन दर 2.1 प्रतिशत थी वह अब घटकर 1.94 फीसद रह गई है. इसका मतलब यह है कि प्रति महिला बच्चों का जो औसत पांच साल पहले दो से अधिक था अब वह दो से कम रह गया है. हिंदुओं की प्रजनन दर 1992 के सर्वे में 3.3 थी यानी प्रति माता तीन बच्चों से अधिक.
इसका अर्थ है कि हिंदू और मुसलमानों में आबादी बढ़ने की दर का अंतर खत्म होता जा रहा है. और आबादी बढ़ने की ऊंची दर धार्मिकता की बजाए साक्षरता, रोजगार, आमदनी और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच पर निर्भर करती है.
पिछले कुछ दशकों में मुस्लिम मध्य वर्ग का उदय हुआ और आबादी में तेजी से आ रही कमी और परिवार नियोजन पर जोर इसके पीछे एक बड़ी वजह है.
2015 में स्कूल नहीं जाने वाली मुस्लिम महिलाओं की संख्या करीब 32 फीसद थी जो अब घटकर करीब 22 फीसद रह गई है. हिंदुओं में यह करीब 31 फीसद से घटकर करीब 28 फीसद ही हुआ है.
एनएफएचएस की रिपोर्ट यह भी बताती है कि स्कूल नहीं जाने वाली औरतों में बच्चे पैदा करने की दर करीबन 2.8 बच्चों की है जबकि स्कूलिंग पूरी करने वाली महिलाएं कम बच्चे पैदा करती हैं.
तो फिर बीस साल के बाद क्या होगा?
असल में पूरी दुनिया में एक ट्रेंड होता है कि जब लोगों की आमदनी बढ़ती है तो लोग उन संसाधनों का फोकस कुछ ही बच्चों पर रखते हैं. यानी इनकम बढ़ेगी तो बच्चों के पैदा होने की दर कम हो जाती है. इस बात में कोई शक नहीं है कि सामाजिक और आर्थिक रूप से मुस्लिमों के विकास से बच्चों के पैदा होने की दर भी कम होती जाएगी.
इसलिए फिलहाल मन से यह वहम निकाल दें कि देश की आबादी को बढ़ाने में मुसलमानों का योगदान अधिक है. बेशक, अन्य धार्मिक समुदायों के मुकाबले मुसलमानों की आबादी पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ी थी लेकिन अब परिवार नियोजन के उपायों के साथ आर्थिक विकास के जरिए यह तेजी कम होने लगी है.