इस्लाम में क़ुर्बानी को लेकर बाल और नाख़ून के बारे में क्या है हुक्म

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 27-06-2023
इस्लाम में क़ुर्बानी को लेकर बाल और नाख़ून के बारे में क्या है हुक्म
इस्लाम में क़ुर्बानी को लेकर बाल और नाख़ून के बारे में क्या है हुक्म

 

फ़िरदौस ख़ान

इस्लाम में क़ुर्बानी की बहुत बड़ी फ़ज़ीलत है. क़ुर्बानी लफ़्ज़ क़ुर्ब से बना है. क़ुर्ब का मतलब है क़रीब. लोग अपने चौपायों को अल्लाह के नाम पर क़ुर्बान करके क़ुर्बे इलाही हासिल करना चाहते हैं. इस्लाम में क़ुर्बानी का बहुत बड़ा अज्र है.

ईद उल अज़हा पर क़ुर्बानी करना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है. हज़रत सैयदना ज़ैद बिन अरकम रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया कि या रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! ये क़ुर्बानियां क्या हैं ?

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि तुम्हारे बाप हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है.

सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया कि या रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! हमारे लिए क्या सवाब है ?

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि हर बाल के बदले एक नेकी है.

सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया कि और अदन में से ? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि उसके हर बाल के बदले भी एक नेकी है. (इब्ने माज़ा)

हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बक़रा ईद के दिन सींग वाले चितकबरे खस्सी किए हुए दो मेंढे ज़िबह किए. जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें क़िबला की तरफ़ लिटा दिया.

फिर फ़रमाया- “मैंने अपना रुख़ उसकी तरफ़ किया, जिसने ज़मीन और आसमान की तख़लीक़ की. दीन-ए-हनीफ़ पर चलते हुए और मैं मुशरिकों में से नहीं हूं. बेशक मेरी नमाज़ और मेरा हज और क़ुर्बानी और मेरी ज़िन्दगी और मेरी मौत सब अल्लाह ही के लिए है, जो तमाम आलमों का परवरदिगार है. उसका कोई शरीक नहीं, और उसी का मुझे हुक्म दिया गया और मैं उसके सामने गर्दन झुकाने वालों में से हूं. अल्लाह ये तेरे लिए और तुझ ही से है. मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और उनकी उम्मत की जानिब से. अल्लाह के नाम के साथ, अल्लाह सबसे बड़ा है. फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क़ुर्बानी के जानवर को ज़िबह किया.


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हदीसों में कहा गया है कि क़ुर्बानी करने से क़ुर्बानी करने वाले के गुनाह माफ़ हो जाते हैं. एक हदीस के मुताबिक़ क़ुर्बानी का ख़ून ज़मीन पर गिरने से पहले ही क़ुर्बानी करने वाले के गुनाह माफ़ हो जाते हैं.

क़ुर्बानी का जानवर पुल सिरात पर क़ुर्बानी करने वाले की सवारी होगा. एक हदीस के मुताबिक़ इंसान बक़र ईद के दिन कोई ऐसी नेकी नहीं करता, जो अल्लाह को ख़ून बहाने से ज़्यादा पसंद हो. ये क़ुर्बानी क़यामत में अपने सींगों, बालों और खुरो के साथ आएगी और क़ुर्बानी का ख़ून ज़मीन पर गिरने से पहले ही वह अल्लाह की बारगाह में क़ुबूल हो जाती है. लिहाज़ा ख़ुश दिल से क़ुर्बानी करो. (तिर्मिज़ी) 

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हज़रत आयशा सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “अल्लाह तआला के नज़दीक क़ुर्बानी के दिन इंसान के आमाल में सबसे ज़्यादा पसंदीदा चीज़ ख़ून बहाना है.

और बेशक वह जानवर क़यामत के दिन अपने सींगों, बालों और खुरों के साथ आएगा. और बेशक क़ुर्बानी के जानवर का ख़ून ज़मीन पर गिरने से पहले ही वह अल्लाह तबारक व तआला की बारगाह में मक़बूल हो जाता है. ऐ लोगो ! क़ुर्बानी को दिल से करो, तो उस पर तुम्हें सवाब मिलेगा और अल्लाह तबारक व तआला की बारगाह में क़ुबूल होगा. (मिश्कात शरीफ़)

हज़रत इमाम हसन बिन अली अलैहिस्सलाम से रिवायत है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया- “जिसने ख़ुशदिली से सवाब का तालिब होकर क़ुर्बानी की वह जहन्नुम की आग से हिजाब यानी रोक हो जाएगी.”

क़ुर्बानी की शर्तें

क़ुर्बानी की कुछ शर्तें हैं. क़ुर्बानी करने वाला दीन-ए-इस्लाम की पैरवी करने वाला हो यानी मुसलमान हो.

वह आज़ाद हो यानी ग़ुलाम न हो. वह मुक़ीम होना चाहिए यानी मुसाफ़िर न हो. सफ़र के दौरान क़ुर्बानी वाजिब नहीं है. वह साहिबे निसाब हो यानी सदक़ा-ए-फ़ित्र के लिए जो शर्तें हैं, वही शर्तें क़ुर्बानी के लिए भी हैं. उसके पास साढ़े सात तोले सोना या साढ़े बावन तोले चांदी हो या इतनी ही क़ीमत की ज़रूरत के सामान के अलावा कोई और चीज़ हो.   

क़ुर्बानी हर उस शख़्स पर वाजिब है, जो क़ुर्बानी की शर्तें पूरी करता है. हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “जो शख़्स क़ुर्बानी करने की वुसअत रखता हो और फिर भी क़ुर्बानी न करे, तो वह हमारी ईदगाह के क़रीब न आए.” (इब्ने माज़ा)

ऐसा नहीं है कि क़ुर्बानी के लिए कोई बड़ा जानवर ही हो, छोटे जानवर की भी क़ुर्बानी की जा सकती है. बकरे में एक ही हिस्सा होता है यानी एक शख़्स एक बकरे की क़ुर्बानी कर सकता है. इसमें कोई दूसरा शरीक नहीं हो सकता. लेकिन बड़े जानवर में सात लोग शरीक हो सकते हैं. इस तरह की क़ुर्बानी में इस बात का ख़्याल रखा जाना चाहिए कि गोश्त के बराबर के सात हिस्से हों. इसमें कोई हिस्सा वज़न में कम या ज़्यादा नहीं होना चाहिए. 

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अमूमन लोग क़ुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से करते हैं. एक हिस्सा वे अपने पास रखते हैं. एक हिस्सा अपने उन रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए रखते हैं, जिनके यहां क़ुर्बानी नहीं हुई है. एक हिस्सा साइलों यानी मांगने वालों और ग़रीबों के लिए रखा जाता है. क़ुर्बानी के वे कितने हिस्से करते हैं, ये उनकी अपनी मर्ज़ी है.

एक शख़्स ने अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से अर्ज़ किया कि अगर मेरे पास दूध वाली बकरी के अलावा कोई और जानवर क़ुर्बानी के लिए न हो, तो फ़रमाइए क्या मैं उसे ही ज़िबह कर दूं ?

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- नहीं, लेकिन तू क़ुर्बानी वाले दिन अपने बाल काट ले, नाख़ून और मूंछे तराश ले और ज़ेरे नाफ़ बाल साफ़ कर ले. अल्लाह तआला के यहां तेरी तरफ़ से यही मुकम्मल क़ुर्बानी शुमार होगी. (सुनन निसाई)

इसका मतलब यह है कि जिस शख़्स की माली हालत ठीक न हो, तो वह ज़िल हिज्जा का चांद दिखने के बाद अपने नाख़ून और बाल न काटे. फिर वह ईद उल अज़हा के दिन अपने नाख़ून और बाल काटे, तो उसे क़ुर्बानी के बराबर ही सवाब अता किया जाएगा.     


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क़ुर्बानी ईद उल अज़हा के दिन शुरू होती है, यानी हिजरी महीने ज़िल हिज्जा की 10 तारीख़ से शुरू होकर 12 तारीख़ को ख़त्म हो जाती है. ईद उल अज़हा के पहले दिन क़ुर्बानी करना अफ़ज़ल माना जाता है. रात में क़ुर्बानी करना मकरूह है. इसलिए क़ुर्बानी दिन में ही की जाती है. क़ुर्बानी ईद की नमाज़ के बाद ही की जाती है. इससे पहले क़ुर्बानी करना सही नहीं है.

एक हदीस के मुताबिक़ ईद उल अज़हा की नमाज़ के बाद ख़ुत्बे में नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “जिस शख़्स ने हमारी नमाज़ की तरह नमाज़ पढ़ी और हमारी क़ुर्बानी की तरह क़ुर्बानी की, उसकी क़ुर्बानी सही हुई. लेकिन जो शख़्स नमाज़ से पहले क़ुर्बानी करे, वह नमाज़ से पहले ही गोश्त खाता है, मगर वह क़ुर्बानी नहीं है. (सही बुख़ारी)  

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क़ुर्बानी के लिए यह भी ज़रूरी है कि जिसके नाम से क़ुर्बानी की जा रही है, वह जानवर को क़ुर्बान करते वक़्त मौजूद रहे. जानवर भूखा और प्यासा न हो. वह सेहतमंद हो. उसमें कोई ऐब न हो यानी वह काना या लंगड़ा वग़ैरह न हो.

बहुत से लोग कहते हैं कि क़ुर्बानी न करके क़ुर्बानी के जानवर की रक़म को किसी ज़रूरतमंद को दे दो, इससे भी सवाब मिल जाएगा. बेशक किसी ज़रूरतमंद की मदद करने से सवाब मिल जाएगा, लेकिन ये अमल क़ुर्बानी के बराबर नहीं हो सकता. क़ुर्बानी करना अपनी जगह है और किसी ज़रूरतमंद की मदद करना अपनी जगह. क़ुर्बानी वाजिब है, सुन्नत है. इसलिए जो लोग क़ुर्बानी की शर्तें पूरी करते हैं, उन्हें ये सुन्नत अदा करनी चाहिए.

(लेखिका आलिमा हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है.)

 


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